मजबूरी में गठजोड़
सवाल यह है कि एक समय पर धुर विरोधी बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की एक साथ आने की मज़बूरी क्या है? उत्तर प्रदेश के सामाजिक और राजनीतिक माहौल को देखें तो इसका जवाब ढूंढना ज्यादा मुश्किल नहीं है। सपा-बसपा दोनों पार्टियों का एक बड़ा जनाधार मुसलमान मतदाताओं के बीच है। मुसलमानों की आबादी करीब 20 प्रतिशत है। 2017 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनावों में मुसलमानों का वोट बंट गया था, जो दोनों चुनावों में दोनों पार्टियों की बुरी तरह हार का एक बड़ा कारण बना। 2019 के चुनाव में मुसलमानों के वोट को बँटने से रोकने के लिए दोनों दलों का साथ आना ज़रूरी हो गया था। मोदी लहर में सपा का मूल आधार यादव भी बँट गया था और यादवों के एक बड़े वर्ग ने बीजेपी का समर्थन किया था। इसी तरह मायावती के साथ जुड़ी दलित जातियों में सबसे संगठित जाटव भी बीजेपी की तरफ झुके थे। बीएसपी का सबसे मजबूत आधार जाटवों के बीच ही है। जिसकी आबादी क़रीब 9 प्रतिशत है। वहीं आबादी में यादवों का हिस्सा भी लगभग 9 प्रतिशत ही है।
2014 और 2017 के चुनावों में समाजवादी पार्टी का पिछड़ा-मुसलिम और बहुजन समाज पार्टी का दलित-मुसलिम गठबंधन काम नहीं कर पाया।
गोरक्षा बना परेशानी का सबब
सपा ने 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले समझ लिया था कि अकेले दम पर बीजेपी का मुकाबला संभव नहीं है। इसलिए वह कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरी। यह दौर मोदी लहर के चढ़ाव का था। इसलिए सपा-कांग्रेस-आरएलडी गठबंधन बीजेपी की महाजीत को रोक नहीं पाया। 2017 के मार्च में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद यूपी में स्थितियां तेजी से बदली हैं। योगी पूर्ण रूप से हिंदुत्व की राजनीति कर रहे हैं। उनके सत्ता में आने के बाद गोरक्षा सरकार का मुख्य अजेंडा बन गया। गोहत्या के आरोप में मुसलमानों पर हमले शुरू हो गए, जिससे प्रदेश में आतंक का नया माहौल बना। इसका प्रभाव दलितों पर भी पड़ा क्योंकि कुछ दलित जातियां पारंपरिक रूप से चमड़े के काम से जुड़ी हैं। दूध नहीं देने वाली गायों और बैलों को बेचकर किसान कुछ कमाई कर लेते थे। लेकिन उनके ख़रीददार मिलने बंद हो गए और अब हालात ये हैं कि किसानों के छोड़े गए आवारा गाय और बैल खेतों के लिए बड़ी समस्या बन गए हैं और किसान इस मुद्दे पर आंदोलन कर रहे हैं। योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद सर्वणों में ख़ासकर राजपूतों का दबदबा बढ़ा है और कई पिछड़ी और दलित जातियां ख़ुद को असुरक्षित महसूस कर रही हैं।
उपचुनाव में बीजेपी को झटका
कुल मिलाकर अखिलेश और मयावती दोनों पर साथ आने का दबाव लगातार बढ़ रहा था। इस बीच उपचुनाव में कुछ प्रयोग भी हुए। मुख्यमंत्री योगी के लोकसभा सीट से इस्तीफ़ा देने से ख़ाली फ़ूलपुर और गोरखपुर सीट पर उपचुनाव में सपा और कांग्रेस मिलकर लड़े और बीजेपी को पराजित कर दिया। उन नतीजों ने गठबंधन की राजनीति को मजबूत किया। बीएसपी उपचुनाव नहीं लड़ती है इसलिए उसने सपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों का समर्थन किया। इन नतीजों के बाद सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन की पहल तेज होने लगी। अब जो तस्वीर सामने आ रही है उससे लगता है कि गठबंधन सिर्फ बसपा और सपा के बीच होगा।
प्रदेश के जातीय गणित के हिसाब से यह गठबंधन काफ़ी मजबूत साबित हो सकता है। लेकिन अगर कांग्रेस कुछ छोटी पार्टियों को लेकर अलग से मैदान में उतरती है तो उसका कुछ नुक़सान सपा और बसपा को हो सकता है।
माया-मुलायम आए थे साथ
1993 के विधानसभा चुनाव के बाद पहली बार सपा और बसपा ने साथ सरकार बनाई, लेकिन मुलायम सिंह यादव और मयावती ज़्यादा समय पर साथ नहीं चल पाए। सरकार बनाने के क़रीब 2 साल बाद ही उत्तर प्रदेश का गेस्ट हाउस कांड हुआ जिसमें मायावती ने समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के द्वारा जानलेवा हमले का आरोप लगाया। 1995 में मुलायम सिंह की सरकार गिराकर मयावती बीजेपी के समर्थन से ख़ुद मुख्यमंत्री बन गईं। यह गठबंधन भी ज़्यादा टिकाऊ साबित नहीं हो पाया। 2007 में पूर्ण बहुमत मिलने के बाद मायावती अपने बूते पर मुख्यमंत्री बनीं। यह उनके नए जातीय गठबंधन की जीत थी जिसमें दलित और मुसलमान के साथ ब्राहम्मण भी शामिल था।
मार्च 2012 में समाजवादी पार्टी अपने बूते पर सरकार में आई और मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की तल्ख़ी अखिलेश के दौर में कुछ कम हुई।
कांग्रेस की भूमिका
सपा और बसपा का गठबंधन शक्तिशाली ज़रूरदिखाई देता है, लेकिन कांग्रेस का अपना अलग वोट बैंक भी है। सवर्ण कभी कांग्रेस के साथ थे। ब्राह्मण, दलित और मुसलिम वोटों के बल पर कांग्रेस का दबदबा लंबे समय तक कायम रहा। 2017 के चुनाव में कांग्रेस को क़रीब 6 फ़ीसदी वोट मिला था। ज़ाहिर है कि कांग्रेस को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मतदाताओं का झुकाव कई बार अलग-अलग होता है। विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा रहता है, जबकि लोकसभा में राष्ट्रीय पार्टी का। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि मायावती ख़ुद भी प्रधानमंत्री पद की दावेदार हो सकती है। इसलिए वह कांग्रेस को साथ लेने के लिए तैयार नहीं है। फिलहाल चुनाव में अभी चार महीने से ज्यादा का समय बचा है, और राजनीतिक गठबंधन इस बीच बनते-बिगड़ते रहेंगे।
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