लंबे वक्त तक बीएसपी प्रमुख मायावती के सबसे करीब रहे पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा को क्या किनारे लगा दिया गया है। सतीश चंद्र मिश्रा पार्टी की दो अहम बैठकों से गैर हाजिर रहे और आजमगढ़ सीट पर हुए उपचुनाव में भी उन्हें स्टार प्रचारकों की सूची से बाहर रखा गया था।
बीएसपी को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में करारी हार मिली और वह सिर्फ एक ही सीट जीत सकी। लेकिन आजमगढ़ के उपचुनाव में उसके प्रत्याशी का प्रदर्शन अच्छा रहा है।
आजमगढ़ के उपचुनाव में दलित और मुसलिम वोटों के एक तबके ने यहां पार्टी के उम्मीदवार शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली के पक्ष में मतदान किया।
अब खबर यह है कि दलित-ब्राह्मण के सियासी कार्ड के फेल होने के बाद मायावती दलित-मुसलिम के फ़ॉर्मूले पर फोकस कर रही हैं। अगले लोकसभा चुनाव 2024 के लिए उनका जोर दलित-मुसलिम के फ़ॉर्मूले पर ही रहेगा।
सीमित रहेगा रोल
सतीश चंद्र मिश्रा की छवि बीएसपी में निर्विवाद रूप से नंबर दो के नेता की रही है। बीते कुछ सालों में तमाम बड़े नेता मायावती को छोड़ कर चले गए लेकिन सतीश चंद्र मिश्रा पार्टी में विश्वस्त सहयोगी के रूप में उनके साथ बने रहे। अब जो खबरें आ रही हैं उससे ऐसा लगता है कि सतीश चंद्र मिश्रा को बीएसपी सुप्रीमो मायावती सिर्फ कानूनी मामलों तक ही सीमित रखना चाहती हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने हाल ही में पार्टी के बड़े नेताओं के साथ तीन बैठक की और इनमें उत्तर प्रदेश के सभी आला पदाधिकारियों को बुलाया गया। इसमें से एक बैठक जो 27 मार्च को हुई थी, उसमें तो मिश्रा मौजूद रहे लेकिन 29 मई और 3 जून को हुई बैठकों से मिश्रा गैर हाजिर रहे।
हालांकि इन बैठकों से गैर हाजिर रहने के पीछे उनका स्वास्थ्य खराब होने की वजह का भी हवाला दिया गया है।
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बीएसपी के एक वरिष्ठ नेता ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि मिश्रा से कहा गया है कि वह पार्टी संगठन की बैठक ना लें। उन्हें राजनीतिक मामलों से दूर रखा गया है और सिर्फ पार्टी की लीगल सेल का काम देखने के लिए कहा गया है।
नाराज हैं मायावती
बीएसपी नेता ने कहा कि मायावती उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन से बेहद नाराज हैं। मायावती के पास यह फीडबैक पहुंचा है कि उत्तर प्रदेश में दलित समुदाय मिश्रा के साथ संगठन के कामकाज में सहज महसूस नहीं करता।
पार्टी के एक अन्य नेता ने द इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि मायावती ने सतीश चंद्र मिश्रा के पर कतर दिए हैं और इससे वह दलितों को यह संदेश देना चाहती हैं कि बीएसपी ही उनकी पार्टी है और वही इसकी नेता हैं।
दलित-ब्राह्मण की सोशल इंजीनियरिंग
2007 में जब उत्तर प्रदेश में पहली बार बीएसपी की अपने दम पर सरकार बनी थी तब इस जीत में दलित-ब्राह्मण की सोशल इंजीनियरिंग का अहम रोल माना गया था और तब सतीश चंद्र मिश्रा ने उत्तर प्रदेश में तमाम जगहों पर जाकर ब्राह्मणों को बीएसपी से जोड़ने की कोशिश की थी। लेकिन 2022 के चुनाव में यह फ़ॉर्मूला काम नहीं आया और ब्राह्मण समुदाय के बड़े तबके ने बीजेपी के पक्ष में मतदान किया।
सतीश चंद्र मिश्रा के बारे में बीते दिनों यह खबर भी आई थी कि वह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का हाथ पकड़ सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे पहले मायावती ने एक और ब्राह्मण नेता नकुल दुबे को भी किनारे लगाते हुए उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था।
बड़ी जिम्मेदारी दी
मायावती ने इस बात को जाहिर भी कर दिया है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से पार्टी में दलित व मुसलिम नेताओं को बड़े पद दिए जाएंगे। हाल ही में घनश्याम चंद्र खरवार, भीमराव अंबेडकर, अखिलेश अंबेडकर, सुधीर भारतीय, राजकुमार गौतम, मदन राम और विजय प्रताप को पार्टी ने अहम पद दिए हैं। इसके अलावा मुसलिम नेताओं मुनकाद अली, शमसुद्दीन राईनी और नौशाद अली को भी उत्तर प्रदेश में जोनल प्रभारी बनाया गया है। समाजवादी पार्टी से टूट कर आए मोहम्मद इरशाद खान ने भी बीएसपी का दामन थामा है।
देखना होगा कि दलित-ब्राह्मण फ़ॉर्मूले के फेल होने के बाद मायावती को 2024 के लोकसभा चुनाव में दलित-मुसलिम के फ़ॉर्मूले से क्या किसी तरह की मदद मिलेगी।
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