मोदी सरकार इन दिनों ये बताने में जुटी है कि भी विपक्षी नेता राहुल गाँधी ‘देशद्रोही’ हैं जिन्होंने विदेश में जाकर ‘राष्ट्र का अपमान’ किया है। हालाँकि इस आरोप को लेकर उसकी गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि वह राहुल गाँधी से महज़ माफ़ी माँगने की माँग कर रही है, जबकि जिन्हें ऐसे कृत्य पर वाक़ई यक़ीन होगा वे माफ़ी नहीं कड़ी सज़ा की माँग करेंगे।
16 मार्च को राहुल गाँधी ने अपनी प्रेस कान्फ्रेंस में उम्मीद जताई थी कि उन्हें संसद में बोलने दिया जाएगा। यह प्राकृतिक न्याय का तक़ाज़ा भी है कि अगर चार मंत्रियों ने नाम लेकर उनके ख़िलाफ़ आरोप लगाए हैं तो फिर उन्हें अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाए। शाम को विभिन्न न्यूज़ चैनलों और डिटिजल प्लेटफॉर्म पर हुई बहसों में तमाम वरिष्ठ पत्रकारों ने भी उम्मीद जताई थी कि सरकार राहुल गाँधी को संसद में अपनी बात कहने का मौक़ा देगी। क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो मोदी राज में लोकतंत्र के क्षरण के राहुल गाँधी ते तमाम आरोप स्वत: प्रमाणित हो जाएँगे। किसी को नहीं लग रहा था कि मोदी सरकार इस हद तक जाएगी।
लेकिन 17 मार्च को मोदी सरकार के रवैये ने सभी लोगों को निराश किया। राहुल गाँधी ही नहीं, पूरी संसद ही म्यूट कर दी गयी। यह पहली बार है जब सरकार के लोग संसद की कार्यवाही रोक रहे हैं जबकि बजट सत्र में वित्त विधेयक पास करवाने जैसी अहम ज़िम्मेदारी उसके कंधे पर है। या फिर उसने वित्त विधेयक को बिना बहस पास करवाने की रणनीति बनाई है। ऐसा हुआ तो वे लोग ही सही साबित होंगै जिन्होंने मोदी सरकार को ऐसी फ़ासिस्ट सरकार के रूप में चिन्हित करना शुरू कर दिया है जो सत्ता में आती तो लोकतांत्रिक तरीक़े से है पर अंतत: लोकतंत्र का गला घोंटे देती है। आश्चर्यजनक रूप से इस रास्ते से आये सभी तानाशाहों के हाथ में ‘राष्ट्रवाद’ का झंडा होता है और उनका डंडा ‘देशद्रोही’ क़रार दिए गए हर विरोधी के सर पर बजता है।
यह संयोग नहीं कि हिटलर के प्रशंसक रहे राष्ट्रीय स्वंयसेवक की हरियाणा में हुई प्रतिनिधि सभा से गुरुमंत्र लेकर आये बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने राहुल गाँधी को ‘राष्ट्रविरोधी टूलकिट’ का हिस्सा बताया। भीषण बेरोज़गारी, महँगाई और आर्थिक दुर्व्यवस्था से उपजे तमाम सवालों के सामने लाजवाब बीजेपी को यही लगता है कि अगला लोकसभा चुनाव जीतने के लिए ख़ुद को ‘राष्ट्रवादी’ और विपक्ष को ‘राष्ट्रद्रोही’ साबित करने के अलावा उसके पास और कोई चारा नहीं है।
वह अतीत में ऐसा करती आयी है। याद कीजिए, जब गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी कड़े मुकाबले में फँसी नज़र आ रही थी तो किस तरह उसने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘राष्ट्रविरोधी साज़िश’ का हिस्सेदार बता दिया था। ख़ुद पीएम मोदी ने पालनपुर में हुई एक रैली में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर के घर हुए एक डिनर का हवाला देते हुए कहा था कि “कांग्रेस नेताओं ने वहाँ पाकिस्तान के नेताओं से मुलाक़ात की थी और गुजरात मे बीजपी को हराने की साज़िश रची।” पीएम मोदी ने इस बात की भी परवाह नहीं की थी कि इस बैठक में दस साल प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह ही नहीं, पूर्व सेनाध्यक्ष भी शामिल हुए थे। इस आरोप से बेहद दुखी हुए मनमोहन सिंह ने कहा था कि ‘पूर्व प्रधानमंत्री और पूर्व आर्मी चीफ जैसे संवैधानिक पदों को बदनाम करके पीएम मोदी बहुत ही खतरनाक मिसाल कायम कर रहे हैं।’ लेकिन बीजेपी को सिर्फ़ चुनाव जीतने से मतलब था, जो वह जीत गयी।
कांग्रेस और उसके नेताओं को राष्ट्रविरोधी बताकर बीजेपी अडानी प्रकरण से भी ध्यान हटवाना चाहती है जिसमें वह गले तक फँसी हुई है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट की आरोपों पर बाज़ार की गिरावट ने मुहर लगा दी है। अडानी की शेल कंपनियों को लेकर हुए नये खुलासों ने परेशानी कई गुना बढ़ा दी है क्योंकि मसला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े उपक्रमों का आ गया है। राहुल गाँधी इस मुद्दे पर लगातार आक्रामक हैं और बीजेपी जानती है कि अगर उन्हें संसद मे बोलने दिया गया तो वे इस प्रकरण के सभी पहलुओं को पूरी ताक़त से उठाएंगे। पिछली बार की तरह उनके आरोपों को सदन की कार्यवाही से निकालना भी आसान नहीं होगा और अगर ऐसा किया भी गया तो सीधे प्रसारण से तो उनकी बात घर-घर पहुँच ही जाएगी। बाक़ी कसर सोशल मीडिया पूरी कर देगा जिसमें राहुल गाँधी आजकल काफ़ी बेहतर स्थिति में नज़र आ रहे हैं। इसलिए बीजेपी ने कोई रिस्क न लेने की रणनीति बनाई है।
लेकिन यह रणनीति उसी कारपोरेटपरस्ती की मुनादी है जो लोकतंत्र के लिए बड़ा ख़तरा है। इटली में फ़ासिस्ट पार्टी के नेता मुसोलिनी ने कभी कहा था कि ‘फ़ासीवाद दरअसल राज्य और कॉरपोरेट का विलय है।‘ मोदी सरकार अडानी प्रकरण को छिपाने के लिए जिस तरह से लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तार-तार कर रही है, उससे मुसोलिनी की परिभाषा ही सही साबित हो रही है। वरना किसी पूँजपति के लिए सरकार लोकंत्र की कसौटियों को क्यों कुर्बान करेगी!
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हैरत की बात है कि दिल्ली में निर्माणाधीन संसद की नई इमारत को बीजेपी अपनी उपलब्धि बतौर पेश कर रही है पर अपने रवैये से संसदीय परंपराओं को ढहाने मे जुटी है। इस मलबे का मालिक़ बनकर वही ख़ुश हो सकता है जिसकी लोकतंत्र पर रत्ती भर भी आस्था न हो।
बीजेपी शायद भूल गयी है कि भारत में संसदीय गणतंत्र किसी की कृपा का नतीजा नहीं है और न ही ये आसमान से टपका है। इसे अर्जित करने और सजाने-सँवारने में कई पीढ़ियों ने बेमिसाल कुर्बानी दी है। वास्तव में इसकी निर्माता वही कांग्रेस है जिसे वह आज यह भूलकर राष्ट्रविरोधी साबित करना चाहती है कि जब वाक़ई राष्ट्र को ज़रूरत थी तो उसके वैचारिक पुरखे अंग्रेज़ों की कृपा और नीतियों के साये तले पल रहे थे। देश की जनता इस उलटबाँसी को अच्छी तरह समझ रही है।
राहुल गांधी को संसद में बोलने से रोककर मोदी सरकार ने अपनी शान कुछ उसी तरह बढ़ाई है जैसा कि जनकवि अदम गोंडवी फ़रमा गये हैं- “आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे, अपने शाहे वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे।”
(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)
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