बीजेपी के चंद मुस्लिम चेहरों के कैंप में फिलहाल मायूसी छाई हुई है। बीजेपी ने राज्यसभा के अब तक जो प्रत्याशी घोषित किए हैं, उनमें केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी, पत्रकार एम. जे. अकबर और पार्टी के प्रवक्ता सैयद जफर इस्लाम के नाम नहीं हैं। इनमें नकवी की साख दांव पर है। अगर वो दोबारा से राज्यसभा में नहीं पहुंचते हैं तो उन्हें छह महीने के भीतर मंत्री पद छोड़ना पड़ सकता है। बीजेपी के पास अब चार सीटों का कोटा बचा हुआ है, अगर नकवी को इनमें जगह मिली तो मिली, नहीं तो उसके बाद सारे मौके खत्म हो जाएंगे। एम जे अकबर और जफर इस्लाम की लॉटरी शायद ही लगे। नकवी के रामपुर से चुनाव लड़ने की संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता।
बीजेपी ने अभी तक जितने भी प्रत्याशी घोषित किए हैं, उनमें पार्टी के पुराने वफादार नेताओं को जगह मिली है। उनमें ब्राह्मण-ओबीसी संतुलन का खास ध्यान रखा गया है। लेकिन मुस्लिमों के हर मुद्दों पर बीजेपी का बचाव करने वाले मुख्तार अब्बास नकवी अभी तक घोषित सूची में जगह नहीं बना पाए हैं। उन्हें बीजेपी के किसी खेमे का नहीं माना जाता। जब पार्टी ने पहली बार नरेंद्र मोदी को गुजरात से लाकर वाराणसी से चुनाव लड़ाने का फैसला किया तो पार्टी ने नकवी को वहां आगे-आगे रखा और वही हर चीज की ब्रीफिंग कर रहे थे, जबकि उस समय बीजेपी दो गुटों में बंटी हुई थी। मोदी जीते और प्रधानमंत्री बन गए। नकवी मंत्री बन गए। यह सिलसिला अभी तक ठीकठाक चल रहा था। 29 जून को नकवी का राज्यसभा में मौजूदा कार्यकाल खत्म हो जाएगा।
नकवी को क्या चुनाव लड़ाया जाएगा
मुख्तार अब्बास नकवी को सबसे ज्यादा महत्व अटल बिहारी वाजपेयी के समय मिला, जब उन्हें 1998 में रामपुर से पार्टी ने टिकट दिया। नकवी जीते और लोकसभा पहुंच गए। अटल ने उन्हें सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी दी। यह महत्वपूर्ण विभाग था लेकिन उसके बाद पार्टी ने उन्हें अल्पसंख्यक कोटे का मंत्री बना कर रख दिया। 1998 के बाद नकवी कोई भी चुनाव जीत नहीं पाए। 2016 से वो राज्यसभा में भेज दिए गए। अगर एक-दो दिन के अंदर पार्टी उनका नाम चार संभावितों की लिस्ट में नहीं डालती है तो इसका अर्थ ये है कि उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा जाएगा।
क्या पार्टी उन्हें रामपुर से चुनाव लड़ा सकती है? बीजेपी इस तरह का प्रयोग करती रहती है। बीच-बीच में वो मुस्लिम वोटों के झुकाव को परखने के लिए मुस्लिम बहुल सीट से किसी नामी चेहरे को उतार देती है। रामपुर की लोकसभा सीट खाली पड़ी है। रामपुर आजम खान और आजमगढ़ लोकसभा सीट अखिलेश के इस्तीफों की वजह से खाली हो गई है। इन दोनों ने विधानसभा में रहने का फैसला किया। बहुत मुमकिन है कि नकवी के नाम पर रामपुर से विचार हो। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि मौजूदा लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने में ठीक दो साल बचे हैं, तो क्या नकवी महज दो साल तक सांसद रहने वाले चुनाव को लड़ना पसंद करेंगे। बहरहाल, मामला काफी पेचीदा है। नकवी का इस्तेमाल बीजेपी आने वाले वक्त में किस तरह करेगी, यह देखना है।
मी टू वाले अकबर
एक सम्मानित पत्रकार का दर्जा पाने वाले एम.जे. अकबर कांग्रेस से होते हुए बीजेपी में आए थे। कई प्रधानमंत्रियों से उनके निजी संबंध रहे। बीजेपी ने जब उनको कांग्रेस से झटका तो मोदी ने उन्हें सीधे अपनी कैबिनेट में जगह दे दी और विदेश मंत्रालय जैसा जिम्मा दिया। लेकिन मी टू वाले विवाद में अकबर ऐसा फंसे कि बाहर नहीं निकल सके। उनका कार्यकाल भी 29 जून को खत्म हो जाएगा। वो मध्य प्रदेश से राज्यसभा पहुंचे थे। रविवार शाम को पार्टी ने जो सूची जारी की है, उसमें उनका नाम नहीं था। उनकी जगह पार्टी की पुरानी वफादार कविता पाटीदार को राज्यसभा भेजने का फैसला किया गया।
एक तरह से एम. जे. अकबर के राजनीतिक करियर का यह अंत भी कहा जा सकता है। कोई दूसरी पार्टी उन पर शायद ही दांव लगाए। जो भी पार्टी उन पर दांव लगाएगी, महिला संगठन उसकी छीछालेदर करने से पीछे नहीं हटेंगे। कुल मिलाकर एम जे अकबर के सामने पत्रकारिता में वापस आने या किताब लिखने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
सैयद जफर इस्लाम से क्या मिला
बीजेपी के प्रवक्ता और राज्यसभा सदस्य सैयद जफर इस्लाम क्या पार्टी के लिए अब काम के नहीं रह गए? बिहार के रहने वाले आईआईएम अहमदाबाद से पढ़े हुए जफर पूर्व इन्वेस्टमेंट बैंकर हैं। बीजेपी उन्हें तमाम खूबियों की वजह से आगे बढ़ाया। पार्टी ने उनको मुस्लिम चेहरा बनाया लेकिन वो नकवी और शाहनवाज हुसैन जैसा करिश्मा नहीं कर सके। सैयद जफर इस्लाम अपने बयान की वजह से शायद ही कभी विवादों में आए हों। हालांकि पिछले दिनों उन्होंने उर्दू अखबारों के संपादकों की अलग से बैठक बुलाई थी और बीजेपी की खबरों को सही परिपेक्ष्य में पेश करने की सलाह दी थी। ये वो कुछ काम थे, जो उन्होंने मिशन के तौर पर खुद ही संभाल रखा था। उस बैठक में उन्होंने उर्दू के संपादकों को बताया था कि संपादकीय पेज पर किस तरह के लेख छापे जा सकते हैं।
मुस्लिम मुद्दों पर बीजेपी के उलझने के समय उनके बयान कभी नकवी या शाहनवाज हुसैन जैसे नहीं रहे। इसलिए वो इन दोनों की तरह कभी अग्रिम पंक्ति में भी नजर नहीं आए। जफर को मात्र उनकी काबिलियत के दम पर बीजेपी में लाया गया था। 29 जून को वो भी राज्यसभा से विदा हो जाएंगे। देखना यह है कि पार्टी आगे उनका इस्तेमाल किस तरह करना चाहेगी।
पिछले मुस्लिम चेहरों का क्या हुआ
बीजेपी के पिछले मुस्लिम चेहरों की स्थिति पार्टी में कभी बहुत अच्छी नहीं रही। शाहनवाज हुसैन इसका ताजा उदाहरण हैं। पार्टी ने उन्हें राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र से बिहार की राजनीति में धकेल दिया। इस समय वो बिहार में जेडीयू-बीजेपी की साझा सरकार में उद्योग मंत्री हैं। हालांकि पार्टी ने उन्हें राष्ट्रीय प्रवक्ता भी बना रखा है। यह अजीबोगरीब तालमेल है। एक तरफ वो बिहार में मंत्री हैं तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं। लेकिन बतौर राष्ट्रीय प्रवक्ता उनकी स्थिति संबित पात्रा या अन्य प्रवक्ताओं जैसी नहीं है, वो अब कभी कभी ही सामने नजर आते हैं। नकवी की तरह शाहनवाज को भी अटल बिहारी वाजपेयी के समय महत्व मिला। वो तीन बार लोकसभा में जीत कर पहुंचे।
बीजेपी का जो मुस्लिम नेता तीन बार लोकसभा पहुंचा हो, उसका कद पार्टी बढ़ा सकती थी लेकिन उसने एक सीमा के बाद शाहनवाज की बढ़त को रोक दिया। शाहनवाज 2021 में बिहार विधान परिषद के सदस्य बने और उसी कोटे से मंत्री भी हैं। अपनी रोजा इफ्तार दावतों के लिए मशहूर शाहनवाज बीजेपी के उन नेताओं में हैं, जो अपने बयान की वजह से कभी विवाद में नहीं फंसे। तमाम मुस्लिम मुद्दों पर बीजेपी के बचाव में वो देर नहीं लगाते।
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