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क्या फ़ेल हो गया मोदी-शाह का 50% वोटों वाला फ़ॉर्मूला?

देश के 50 प्रतिशत हिन्दू मतदाताओं का ध्रुवीकरण कर 50 साल तक सत्ता में बने रहने का भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फ़ॉर्मूला कोई नया नहीं है। यह फ़ॉर्मूला पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह के सामाजिक न्याय की लड़ाई के नाम पर लागू की गयी मंडल आयोग की पृष्ठभूमि से ही जन्मा है। विश्वनाथ प्रताप सिंह मनुवादी संस्कृति के विरोधी डॉ. भीमराव आम्बेडकर और समाजवादी विचारों से प्रभावित दलित और पिछड़े वर्ग की 52 फ़ीसदी जनता का ध्रुवीकरण करना चाहते थे तो संघ परिवार और उसका राजनीतिक मंच बीजेपी कट्टर हिन्दूत्व के सहारे साधने की कोशिश कर रहे हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ों को 27 % आरक्षण दिया तो मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से कमज़ोर या यूँ कह लें कि सवर्ण वर्ग को 10% आरक्षण दिया।

52% जनता का बड़ा दायरा बनाने के बावजूद विश्वनाथ प्रताप सिंह सफल नहीं हो पाए, लेकिन उन्होंने जो बीज बोया था उसकी फ़सल आज काटी जा रही है।

जिस 50% हिन्दू वोटों की बात नरेंद्र मोदी-अमित शाह और संघ परिवार कर रहा था वह पिछले 5 सालों में बीजेपी द्वारा लड़े गए चुनावों में तो कहीं नज़र नहीं आया। इन 5 सालों में बीजेपी ने देश के अनेकों प्रदेशों में जीत के झंडे गाड़े लेकिन हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण से ज़्यादा इन विजय में कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों के नेताओं के बीजेपी प्रवेश का ही असर दिखा। गाय, गंगा, छद्म राष्ट्रवाद, हिन्दू आतंकवाद के नाम पर पाँच सालों में उत्पाती राजनीति का ऐसा दौर भी शुरू किया कि बड़े पैमाने पर जनता में ध्रुवीकरण हो और सत्ता पर काबिज़ होने का फ़ॉर्मूला चल निकले। लेकिन धरातल पर ऐसा ध्रुवीकरण कहीं नहीं दिखाई दे रहा। अगर ऐसा होता था तो बीजेपी और संघ को चुनाव प्रचार में हर हफ़्ते नया गोल पोस्ट नहीं तलाशना पड़ता।

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लेकिन क्या जिस तरह से मंडल आयोग के फ़ॉर्मूले ने देश के राजनीतिक समीकरण बदल दिए हैं वैसा क्या कुछ असर 50% हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण वाला फ़ॉर्मूला डाल पायेगा? इस सवाल का जवाब चुनाव परिणामों के बाद ज़्यादा स्पष्ट होगा? लेकिन जो अभी हो रहा है वह भी इसके जवाब की दिशा और दशा तय करने वाला ही है। 

सॉफ़्ट हिंदूत्व से कांग्रेस का जवाब

हिन्दू ध्रुवीकरण के फ़ॉर्मूले के विपरीत एक बात बड़ी तेज़ी से सामने आयी कि धर्म-निरपेक्षता की विचारधारा को लेकर राजनीति करने वाली कांग्रेस ने सॉफ़्ट हिन्दूत्व की राह पकड़ ली। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी चुनाव प्रचार के दौरान मंदिर-मंदिर जाने लगे और कैलास मानसरोवर और तिरुपति बालाजी की पैदल यात्रा कर आये। प्रियंका गाँधी राजनीति में उतरीं तो गंगा के सहारे सभी तीर्थ स्थलों पर पूजा पाठ करती दिखी। यही नहीं, रायबरेली से चुनाव का पर्चा भरने जाने से पहले सोनिया गाँधी ने अपने आवास पर किस प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान किये, इसकी तसवीरें और वीडियो सोशल मीडिया और मीडिया में दिखाए। इससे एक संकेत तो मिलता है कि 90 के दशक में ‘मंडल-कमंडल’ के ध्रुवीकरण में कांग्रेस जिस तरह से स्पष्ट राह चुनने में विफल रही थी वही ग़लती अब नहीं दोहराना चाहती है। लिहाज़ा राहुल गाँधी का गोत्र भी देश को पता चल गया और वे जनेऊ पहनते हैं या नहीं इसकी जानकारी भी मिल गयी। 

मध्य प्रदेश और राजस्थान में जिस तरह से कांग्रेस की सरकारें गाय और साधू-संतों को बारे में अपनी नीति दिखा रही हैं वह भी यह इशारा कर रहा है कि हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण को रोकने के लिए कांग्रेस में कहीं ना कहीं प्रयास चल रहे हैं।

हिन्दू वोटों के इस ध्रुवीकरण की काट यदि कांग्रेस पार्टी नहीं निकाल पाती है तो आगे के दौर के लिए उसकी राजनीति और कठिन होती जाएगी।

मतदाताओं के ध्रुवीकरण की राजनीति हमारे देश में नयी नहीं है। देश में ‘मंडल और कमंडल’ की राजनीति क़रीब एक ही दौर में शुरू हुई थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी पार्टी के जनाधार को बढ़ाने के लिए जब वर्षों से धूल खा रही मंडल आयोग की रिपोर्ट बाहर निकाली तो विपक्ष में बैठी कांग्रेस ही नहीं, सत्ता में बैठे उनके सहयोगियों की भी भौंहें तन गयीं। सामाजिक न्याय की लड़ाई के नाम पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण के इस खेल का अंदाज़ भाँप जहाँ भारतीय जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी रथ पर सवार होकर राम मंदिर निर्माण आंदोलन के नाम पर हिन्दू मतदाताओं और साधू संतों में अलख जगाने निकल पड़े। उस दौर में कांग्रेस न तो राम मंदिर निर्माण आंदोलन के ज्वार को रोक पायी और न ही सामाजिक न्याय की इस लड़ाई में अपनी कोई भूमिका तय कर पायी। आरक्षण विरोधी आंदोलन में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार स्वाहा हो गयी लेकिन सामाजिक न्याय की लड़ाई के कई क्षत्रपों को राजनीति का नया फ़ॉर्मूला दे गयी। 

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सामाजिक न्याय के फ़ॉर्मूले का बीज 

दरअसल, सामाजिक न्याय के इस फ़ॉर्मूले का बीज भी देश की पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार के कार्यकाल में ही पड़ा था। 20 दिसंबर 1978 को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अनुच्छेद 340 के तहत नए पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा सदन में की। आयोग की विज्ञप्ति 1 जनवरी, 1979 को जारी की गई, जिसकी रिपोर्ट आयोग ने 31 दिसंबर 1980 को दी जिसे राष्ट्रपति ने अनुमोदित किया। 30 अप्रैल 1982 में इसे सदन के पटल पर रखा गया, जो 10 वर्ष तक फिर ठंडे बस्ते में रहा। इस दौरान सत्ता में फिर इंदिरा गाँधी की वापसी हो गयी थी लेकिन इस कार्यकाल में उनकी समाजवादी नीतियों की वह धार देखने को नहीं मिल रही थी जो उनकी पिछली सरकार के कार्यकाल में देखने को मिली थी। लेकिन वी.पी. सिंह ने 7 सितंबर 1990 को सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27% आरक्षण लागू कर सामाजिक न्याय की लड़ाई का नया दाँव खेला।

राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर के विचारों को लेकर राजनीति की बात करने वाले मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में तो लालू यादव ने बिहार में नए जातीय समीकरण गढ़कर सत्ता में पहुँचने की राह खोज ली।

बिहार में नीतीश कुमार और शरद यादव भी इस धारा के साथ चलते रहे। ओडीशा में नवीन पटनायक ने भी इसी फ़ॉर्मूले को साधकर सत्ता का अभेद्य चक्रव्यूह रच दिया। मंडल की यह राजनीति कांग्रेस को चुनाव दर चुनाव कमज़ोर करती गयी। इंदिरा गाँधी की समाजवादी नीतियों की वजह से देश का दलित, मुसलिम और पिछड़ा हुआ समाज कांग्रेस से जुड़ा था वह धीरे-धीरे पार्टी से दूर होता गया। कांग्रेस के दलित मुसलिम फ़ॉर्मूले को सामाजिक न्याय की लड़ाई और सोशल इंजीनियरिंग का मुल्लमा चढ़ाकर मायावती अपनी ताक़त बढ़ाती गयी। दिल्ली की सत्ता की फ़सल जिस राज्य में पनपती है उस राज्य में कांग्रेस की धरती बंजर होती चली गयी। आज कांग्रेस के सामने दो चुनौतियाँ हैं। उत्तर प्रदेश में अपनी बंजर पड़ी ज़मीन को उपजाऊ बनाने की और कट्टर हिन्दूत्व के फ़ॉर्मूले को जहाँ तक हो सके अपने पक्ष में घुमाने की।

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संजय राय
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