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गोरक्षा के नाम पर हुक़ूमत की पगड़ी उछाल रही है भीड़

बुलंदशहर हिंसा से एक नया पहलू सामने आया है कि गोरक्षा के नाम पर सक्रिय समूह इतने ताक़तवर और ख़ुदमुख़्तार हो गए हैं कि वे न केवल अपने इलाक़ों में रहने वाले मुसलमानों को टार्गेट करते हैं बल्कि यदि कोई सरकारी मुलाज़िम उनको ऐसा करने से रोके तो वे उसको भी नहीं छोड़ते। बुलंदशहर में सुबोध सिंह की हत्या बताती है कि भगवा आतंकियों के लिए सरकारी वर्दी का अब कोई अर्थ नहीं है।
शेष नारायण सिंह
बुलंदशहर के स्याना थाना क्षेत्र की हिंसक घटना बहुत सारे सवाल के साथ हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर नाज़िल हो गई है। एक भीड़ ने स्याना के थानेदार सुबोध कुमार सिंह को उस वक़्त मार दिया जब वे सड़क पर जाम लगाने से रोकने के लिए अपने इलाक़े के एक गाँव में गए हुए थे। वह भीड़ इस अफ़वाह के बाद इकठ्ठा हुई थी कि किसी खेत में पशु के कुछ अवशेष मिले हैं जो संभवतः गाय का माँस था।आसपास के लोग इकठ्ठा हो गए और सड़क पर जाम लगा दिया, जब इंस्पेक्टर सुबोध कुमार मौक़ा-ए-वारदात पर पहुँचे तो भीड़ उग्र रूप ले चुकी थी। सुबोध ने लोगों को शांत कराया। जब वे भीड़ को समझा-बुझा कर वापस आने के लिए अपनी जीप में बैठे तो फिर हिंसा शुरू हो गई और उसका एक नतीजा यह हुआ कि थानेदार साहब की मौत हो गई।

बजरंग दल नेता की भूमिका

पुलिस ने क़रीब 70 लोगों को जाँच की ज़द में लिया है और कुछ गिरफ़्तारियाँ भी हुई हैं। अपराध में जिन लोगों के शामिल होने का शक है उनमें योगेश राज नाम का एक नौजवान है। उसके बारे में पुलिस को पता चला है कि वह बजरंग दल का ज़िला संयोजक है। उसके परिवार के लोगों ने भी इस बात की पुष्टि की है कि वह बजरंग दल से संबंधित है।परिवार से यह भी पता चला है कि वह हिंसा की घटना वाले स्थान पर ही गया था लेकिन उसके परिवार वालों का दावा है कि पुलिस अधिकारी की हत्या में उसकी कोई भूमिका नहीं है। इसी तरह आरोपियों में से ज़्यादातर लोग योगेश राज की मंडली के ही बताए जाते हैं जो भीड़ का हिस्सा थे और मरने-मारने पर उतारू थे। एफ़आईआर में शिखर अग्रवाल का भी नाम है जो बीजेपी के युवा मोर्चा के शहर अध्यक्ष हैं। विहिप के शहर अध्यक्ष उप्रेंद्र राघव का भी एफ़आईआर में नाम है।

शासन व्यवस्था पर उठे सवाल

उधर, लखनऊ में मौजूद पुलिस के आला अधिकारी मामले को सँभालने में जुट गए हैं। कानून-व्यवस्था के अतिरिक्त महानिदेशक ने बयान दिया है कि वारदात में किसी संगठन के शामिल होने के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उन्होंने कहा कि योगेश राज पर तो मुक़दमा कायम किया गया है लेकिन उनके लिए यह कहना सही नहीं होगा कि वह किस संगठन से सम्बंधित है। घटना की निंदा सभी कर रहे हैं। लेकिन जो बात अभी आम तौर पर रेखांकित नहीं की जा रही है वह यह है कि उत्तर प्रदेश की शासन व्यवस्था पर एक ज़बरदस्त सवालिया निशान लग गया है।पुलिस का थानेदार हुकूमत के इक़बाल का प्रतिनिधि होता है। जब उसको भी कोई भीड़ घेरकर मार दे तो यह शासन को लाखों सवालों के घेरे में लपेट लेने के लिए काफ़ी है। सरकार को अपनी पगड़ी संभालने के लिए अब बहुत ही अधिक यत्न करना पड़ेगा। मामले की जाँच को पुलिस ने नौकरशाही की अँगीठी पर चढ़ा दिया है। ज़ाहिर है, जाँच होगी और नतीजे भी आएँगे लेकिन तब तक प्रशासन की पगड़ी उछल चुकी होगी। एक बात हमेशा सवालों के घेरे में रहेगी कि क्यों स्थानीय पुलिस की जाँच कर पाने की क्षमता पर भरोसा नहीं किया गया और क़ानून द्वारा स्थापित सरकार पर हमला करने के जुर्म में मुक़दमा दर्ज़ करके स्याना थाने को काम करने से रोकने के लिए क्यों एसआईटी आदि का टालू कार्यक्रम शुरू किया गया।

‘अपनों’ के निशाने पर सरकार

इस बीच, इस घटना पर राजनीति शुरू हो गई है। उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री, ओम प्रकाश राजभर ने अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर दी है। उन्होंने कहा है कि यह घटना बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों द्वारा मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश है। राजभर ने कहा है कि, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विहिप, बजरंग दल और बीजेपी के कुछ लोग वहाँ हिंदू-मुस्लिम के बीच दंगा कराने के लिए गए और पुलिस का एक इन्स्पेक्टर मार दिया गया।' ये राजभर के निजी विचार हो सकते हैं। हम अभी जाँच की प्रतीक्षा करेंगे और नतीजे आने के पहले बीजेपी या उसके सहयोगी संगठनों के शामिल होने के पर्याप्त संकेत होने के बावजूद भी बीजेपी या किसी भी अन्य संगठन के बारे में कोई बात नहीं करेंगे। एक बात और भी दिलचस्प है। जब भी हिंदू-मुसलमान के बीच विवाद होता है तो राजनीतिक लाभ हिंदू आधिपत्यवाद स्थापित करने की कोशिश कर रहे संगठनों का ही होता है। दंगा फैलाने में पिछले दो-ढाई सौ वर्षों में गाय के बारे में शुरू हुए झगड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत-पाक बँटवारे के दौरान हुए दंगों में भी गाय की रक्षा की बात केंद्रीय थी।
inspector subodh kumar singh killed in bulandshahar violence - Satya Hindi

गाय का है ऐतिहासिक महत्व

गाय का ऐतिहासिक महत्व है। महाभारत काल में ज़मीन पहली बार संपत्ति की पहचान के रूप में देखी गई थी। उसके पहले ज़मीन ख़ूब थी और उसपर आश्रित रहने वाले जानवर, गोधन, गजधन और बाजिधन संपत्ति की पहचान और यूनिट थे। महाभारत में पहली बार जब ज़मीन के बँटवारे की बात हुई तो दुर्योधन ने कहा कि 'सूच्यग्रम न दास्यामि' यानी सुई की नोक के बराबर भी (ज़मीन) पांडवों को नहीं दूँगा।महाभारत के पहले तो गाय, हाथी और घोड़े संपत्ति की यूनिट हुआ करते थे। विषय बहुत विषद है लेकिन जब मुसलमान इस देश के शासक हुए तो उनके लिए गाय खाद्य पदार्थ थी और देश की स्थानीय आबादी शासकों की तरफ से गाय की हत्या का हमेशा विरोध करती रही। उसका विधिवत रेकॉर्ड नहीं मिलता लेकिन 1857 के बाद गोवध के कारण हुए संघर्षों का मामूली ही सही, रेकॉर्ड है। हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख गोहत्या का विरोध हमेशा से करते रहे हैं।

राजनीतिक दलों ने करवाए दंगे

आर्यसमाज के जन्म के बाद उत्तर भारत के कई इलाकों में गोहत्या के विरोध के बाद संघर्ष की बातें इतिहास को मालूम हैं। उसी दौरान गाय की हत्या के कारण पंजाब और संयुक्त प्रांत (यूपी) में दंगे हुए। गोरक्षा के नाम पर स्वतंत्र भारत में राजनीतिक लाभ की परिपाटी शुरू हुई। आजादी के बाद अपनी राजनीतिक ज़मीन खो चुकी पार्टियों ने 1948 और 1951 के बीच आज़मगढ़, अकोला, पीलीभीत, कटनी, नागपुर, अलीगढ़, धुबरी, दिल्ली और कलकत्ता में दंगे करवाए। सभी दंगों के मूल में गोकशी ही थी। लेकिन इन दंगों का चुनावी फ़ायदा किसी को नहीं हुआ क्योंकि आजादी की लड़ाई के ज़्यादातर हीरो ज़िंदा थे और देश की राजनीति के भाग्यविधाता भी थे।

हथियार बना गोरक्षा का मुद्दा

वोटों का लाभ 1966 के गोरक्षा आन्दोलन और उसके बाद हुए दंगों के बाद जनसंघ को हुआ। उत्तर प्रदेश में जनसंघ मामूली पार्टी थी लेकिन 1967 के चुनावों में वह 98 सीटों के साथ कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनी। दिल्ली प्रशासन में उसकी सरकार बनी। संसद भवन पर हुए गोरक्षा आन्दोलन में हुए झगड़े में लाठी-गोली चली, बहुत लोग मारे गए और गोरक्षा एक महत्वपूर्ण राजनीतिक हथियार के रूप में विकसित हो गया। स्वामी करपात्री जी ने फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू को इस सीट से बेदख़ल करने की कोशिश की थी पर नाकाम रहे थे। लेकिन 1966 के आन्दोलन का नेतृत्व करके उनकी बेटी को कमज़ोर कर दिया। इंदिरा गांधी की पार्टी 1967 के चुनाव में उत्तर भारत के सभी राज्यों में चुनाव हार गई।

दलित-मुसलमान रहे हैं निशाने पर

1998 में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार के केंद्र में आने के बाद तो गोरक्षा के नाम पर नौजवानों के समूह दलितों और मुसलमानों को निशाने पर लेते ही रहे हैं। आजकल तो गोरक्षा के नाम पर पुलिस और सरकार की इज़्ज़त को भी घेर लिया जाता है। बुलंदशहर उसी का नमूना है। हो सकता है कि इससे राजनीतिक लाभ देने लायक ध्रुवीकरण भी हो जाए लेकिन सरकार की अथॉरिटी को जो चुनौती मिलेगी, उसको सँभाल पाना मुश्किल होगा।
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