गुजरात के राजनीतिक क्षेत्रों में यह सवाल पूछा जा रहा है कि 2017 में मोदी-शाह को चुनौती देने वाले वो तीनों लड़ाके 2022 के चुनाव में कहां हैं? तीनों लड़ाके यानी हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवानी ने 2017 के गुजरात चुनाव की फिजा बदल दी थी लेकिन इस बार तीनों चुपचाप अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़ रहे हैं। तीनों बदलाव की राजनीति के लिए निकले थे लेकिन राजनीति और वक्त ने उन्हें बदल दिया। हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकुर ने बीजेपी का दामन थाम लिया है, जिग्नेश मेवानी ने कांग्रेस का।
नवंबर 2017 गुजरात की राजनीति में दर्ज है। लंबे वक्त के बाद गुजरात की जमीन से तीन युवा नेता संगठित होकर उभरे थे, जो जन सरोकार के मुद्दे उठा रहे थे, पूरे जोश खरोश से उन पर बहस कर रहे थे। पाटीदार नेता हार्दिक पटेल, ओबीसी नेता अल्पेश ठाकुर और दलित नेता जिग्नेश मेवानी देखते-देखते राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर छा गए। गुजरात में आइडेंटिटी पॉलिटिक्स (व्यक्तिवादी राजनीति) की नई कथा लिखी जा रही थी। ऐसी ही राजनीति कर मोदी और अमित शाह केंद्र की राजनीति में जा पहुंचे थे और इस नई पटकथा के सितारे उनके लिए सिरदर्द बनते जा रहे थे। लेकिन अब नवंबर 2022 को भी 2017 की तरह दर्ज करने की जरूरत है, जब तीनों लड़ाके गुजरात विधानसभा चुनाव में तो हैं लेकिन राजनीति के केंद्र में नहीं हैं। अब उनकी वजह से किसी पार्टी को अपनी रणनीति 2017 की तरह नहीं बदलनी पड़ रही है। पिछले पांच साल इन तीनों नेताओं के लिए बेहतर नहीं रहे।
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हार्दिक पटेल की राजनीति
वो 2015 का साल था। अहमदाबाद के पास वीरमगाम शहर में एक युवक की बहन को ठीकठाक मार्क्स होने के बावजूद उसकी पसंद के कॉलेज में एडमिशन नहीं मिला। उस युवक की आयु उस समय महज 22 साल थी। उसने देखा कि एससी/एसटी/ओबीसी कोटे के तहत कम मार्क्स वाले लोगों को एडमिशन मिल गया था। उस युवक की बहन को जिन प्राइवेट कॉलेजों में एडमिशन मिल रहा था, उनकी फीस उसकी पहुंच से बाहर थी। वहीं से पाटीदार आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसके लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण मांगा गया। उस युवक का नाम हार्दिक पटेल था। हार्दिक ने पाटीदार समुदाय के लिए आरक्षण की मांग करते हुए पाटीदार अनामत आंदोलन समिति को आंदोलन में बदल दिया। पाटीदार गुजरात की आबादी का 18-19 फीसदी हैं और गुजरात विधानसभा की 40 से अधिक सीटों पर प्रभाव रखते हैं।विरमगाम में व्यवस्था के खिलाफ छोटे से विद्रोह ने चिंगारी का काम किया। हार्दिक के साथ युवा इसमें जुड़ने लगे। हार्दिक ने अगस्त 2015 में अहमदाबाद में एक सार्वजनिक रैली आयोजित की। इसमें पूरे राज्य से जो भीड़ जुटी, उसने बीजेपी को हैरान कर दिया। मीडिया का ध्यान गया और रातोंरात पाटीदार आंदोलन इंटटरनेट पर 'की वर्ड' (Key Word)) में बदल गया। गूगल पर हार्दिक पटेल और पाटीदार आंदोलन सर्च होने लगा। करिश्मा हो गया। कई राजनीतिक विश्लेषकों ने लिख मारा कि गुजरात को एक जमीनी नेता मिल गया है।
मीडिया ने हार्दिक को तरजीह देना शुरू कर दिया। अच्छे वक्ता और साफगोई के लिए हार्दिक मशहूर होते जा रहे थे लेकिन इसी दौरान उनका पाटीदार आंदोलन थोड़ा हिंसक भी होने लगा। गुजरात में कई स्थानों पर इस आंदोलन की वजह से हिंसा हुई। हार्दिक पटेल समेत कई पाटीदार नेता गिरफ्तार कर लिए गए।
एक अच्छे वक्ता और स्पष्टवादी हार्दिक की चर्चा पूरे मीडिया में थी। हार्दिक पर देशद्रोह का इल्जाम इसी बीजेपी ने और उसकी सरकार ने लगाया था। हार्दिक नौ महीनों तक जेल में बंद रहे। लेकिन इस आंदोलन ने तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल की कुर्सी सरका दी। पाटीदार आंदोलन को ठीक से नियंत्रित नहीं कर पाने पर उन्हें हटा दिया गया। हार्दिक पॉलिटिक्स में टॉप पर चले गए। जेल से रिहा हुए तो हीरो की तरह स्वागत हुआ। उन्होंने कांग्रेस से हाथ मिला लिया और 2017 में गुजरात विधानसभा चुनावों में बड़े पैमाने पर प्रचार किया। इससे बीजेपी को नुकसान पहुंचा। बीजेपी सिमट कर 99 सीटों पर पहुंच गई।
हार्दिक से कांग्रेस को काफी फायदा हुआ, लेकिन कांग्रेस सरकार बनाने में नाकाम रही। हार्दिक आधिकारिक रूप से 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस में शामिल हुए और प्रचार किया, लेकिन बीजेपी ने गुजरात की सभी 26 सीटों पर जीत हासिल की। कांग्रेस ने 2020 में जब उन्हें गुजरात कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया तब हार्दिक 27 साल के थे और अन्य राज्यों में चुनावों के लिए पार्टी के स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल थे।
हार्दिक खुद के खिलाफ दर्ज मुकदमों से बहुत परेशान थे। बीजेपी सरकार उन्हें लगातार घेर रही थी। उन्हें कांग्रेस की ओर से कानूनी मदद भी नहीं मिल रही थी। हालात ने उन्हें बीजेपी का दामन थामने के लिए मजबूर कर दिया। कल तक पीएम मोदी को कोसने वाले और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को चुनौती देने वाले हार्दिक रातोंरात बदल गए। बीजेपी में शामिल होने के बाद हार्दिक के अल्फाज थे - 'पीएम नरेंद्र मोदी का एक छोटा सिपाही।'
गुजरात विधानसभा चुनाव 2022 में एक अदद टिकट के लिए हार्दिक को काफी संघर्ष करना पड़ा। हार्दिक ने वीरमगाम सीट से टिकट मांगा था। रास्ता बनाने के लिए, बीजेपी को मौजूदा विधायक तेजश्री पटेल का टिकट काटना पड़ा। जो कांग्रेस छोड़कर आई थीं, और इस सीट पर एक मजबूत नेता मानी जाती थीं।
हार्दिक पटेल की इस राजनीतिक यात्रा का रोचक पहलू यह है कि बीजेपी ने उनको बहुत सीमित कर रखा है। यानी बीजेपी ने एक तरह से हार्दिक को उनकी राजनीतिक औकात बता दी है। प्रदेश स्तरीय होनहार नेता वीरमगाम के आसपास उत्तर गुजरात की कुछ मुट्ठी भर सीटों पर ही प्रचार कर रहे हैं। बीजेपी ने उन्हें कहीं और रैली आदि के लिए नहीं बुलाया। जबकि कांग्रेस में वो फैसले लेने, उम्मीदवारों को चुनने वाली टीम का हिस्सा थे। हार्दिक की उम्र अब 29 साल है और वो अपने जीवन का पहला चुनाव लड़ रहे हैं। मोदी-अमित शाह के नाम पर वोट मांग रहे हैं।
पाटीदार समुदाय के लिए आरक्षण 2017 में गुजरात चुनाव का बड़ा मुद्दा था, अब बीजेपी ने अपनी रणनीति से उस मुद्दे को कूड़ेदान में फेंक दिया है। हार्दिक ने 2019 में सूरत के अल्पेश कठेरिया को प्रभारी बनाकर अनामत आंदोलन समिति को छोड़ दिया था। कठेरिया वराछा से आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।
अल्पेश ठाकुर की राजनीति
2017 में 42 साल के अल्पेश ठाकुर भी गुजरात की राजनीति के केंद्र में आए थे। अल्पेश ने पाटीदार आरक्षण आंदोलन का मुकाबला करने के लिए ओएसएस (ओबीसी, एससी, एसटी) एकता आंदोलन शुरू किया। उस समय उनका तर्क था कि पीएएएस आंदोलन या तो सरकार को एससी, एसटी और ओबीसी के लिए मौजूदा कोटा खत्म करने या राजनीतिक रूप से प्रभावशाली पाटीदारों को खपाने के लिए इसे कम करने के लिए प्रेरित करेगा। इसलिए कोटे का फायदा लेने वालों को एकजुट होने और अपनी जमीन को बचाने की जरूरत है।ठाकुर की शुरू से ही राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं क्योंकि उन्होंने 2011 में गुजरात क्षत्रिय ठाकुर सेना की स्थापना की थी। इस समूह का दावा है कि उसके पास लगभग 700,000 ठाकुर युवा सदस्य हैं। गुजरात में 140 ओबीसी समूहों में ठाकुर समुदाय सबसे प्रमुख है। ओबीसी राज्य की आबादी का 52 फीसदी हैं। 2017 में ठाकुर पीएम मोदी और बीजेपी के बड़े आलोचकों में से एक थे।
ठाकुर अक्टूबर 2017 में ही कांग्रेस में शामिल हो गए थे और राधनपुर सीट से करीब 15,000 वोटों से जीते। लेकिन ठाकुर ने पलटी मारी। वो दो अन्य विधायकों के साथ 2019 में बीजेपी में यह कहते हुए चले गए कि उन्हें कांग्रेस में 'सम्मान' नहीं मिल रहा है। इसके बाद जब वो उपचुनाव में खड़े हुए तो राधनपुर से हार गए। तब से, ठाकुर भी हार्दिक की तरह किसी तरह जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बीजेपी उन्हें ठाकुर बहुल क्षेत्रों में प्रचार के लिए इस्तेमाल कर रही है। इस बार इस चुनाव में अल्पेश ठाकुर को गांधीनगर (दक्षिण) से उतारा गया है, जो बीजेपी के लिए एक आसान सीट है। उन्होंने गुरुवार को यहां से नामांकन दाखिल कर दिया है। इस सीट से बीजेपी के शंभूजी ठाकुर दो बार विधायक बने। इस बार बीजेपी में असंतुष्ट हैं। उन्होंने 2017 में 100,000 वोटों से यह सीट जीती थी। हार्दिक की तरह, अल्पेश को भी बीजेपी मशीनरी के समर्थन का भरोसा नहीं है और वह अपनी सीट जीतने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं।
जिग्नेश मेवानीः जानदार दलित आवाज
जिग्नेश मेवानी भी एक मकसद के साथ राजनीति में उतरे थे। 2016 में जब उत्तर गुजरात में आरक्षण की राजनीति शुरू हुई तो जिग्नेश मेवानी दलित समुदाय के एंग्री यंगमैन के रूप में उभरे। उन्हें नेता के रूप में जन्म देने वाली एक घटना थी। सोमनाथ जिले के ऊना कस्बे के पास मोटा समधियाला गांव में सात दलितों को बेरहमी से पीटा गया। घटना का वीडियो वायरल होते ही पूरे देश में हंगामा मच गया। अहमदाबाद में रहने वाले एक युवा वकील जिग्नेश इस गुस्से का चेहरा बने। दलित अत्याचारों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए सार्वजनिक स्थानों पर कई आंदोलनों और प्रदर्शनों का नेतृत्व करते हुए वह एक होनहार युवा दलित नेता के रूप में देशभर में मशहूर हो गए।मेवानी, जो 42 साल के हैं, ने पाटन जिले की वडगाम सीट से निर्दलीय के रूप में 2017 का विधानसभा चुनाव 19,696 मतों से जीता था। हालांकि वो मूल रूप से कांग्रेस समर्थक ही थे लेकिन वो 2021 में कांग्रेस में शामिल हुए। मेवानी की राजनीति का दारोमदार दलित-मुस्लिम मतदाता है, जो वडगाम में कुल मतदाताओं के आधे हैं। हालांकि इस बार वडगाम में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) काफी सक्रिय है। समझा जा सकता है कि एआईएमआईएम को मुस्लिम वोट काटने और जिग्नेश का रास्ता रोकने के लिए उतारा गया है। ऐसे में वहां के मुस्लिम मतदाता क्या रुख दिखाते हैं, इसके लिए इंतजार करना होगा।
मेवानी 2017 में जहां खड़े थे, जिन मुद्दों के लिए लड़े थे, वो उसके प्रति ज्यादा सच्चे रहे हैं, लेकिन व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह को आगे बढ़ाने की बजाय अब वो भी व्यवस्था का हिस्सा हो गए हैं। अब उनकी बातें राज्य स्तर पर सुनाई नहीं देतीं। लेकिन जिग्नेश में संभावनाएं हैं। वो कांग्रेस में बने हुए हैं। अगर जीते तो कांग्रेस उन पर बड़ा दांव लगाने को भी तैयार है। हार्दिक, अल्पेश से जो बात जिग्नेश को अलग करती है वो है उनकी राजनीतिक परिपक्वता।
अगर गुजरात के इन तीनों युवा नेताओं की एकसाथ तुलना की जाए तो हार्दिक और अल्पेश के मुकाबले जिग्नेश ज्यादा गंभीर राजनीति कर रहे हैं। वो हार्दिक और अल्पेश की तरह अवसरवादी भी नहीं दिखाई देते। कभी हार्दिक और मेवानी ने साथ में प्रचार भी किया था। लेकिन पिछले पांच साल ने दोनों के स्वभाव को बदल दिया है। हालांकि पिछले पांच साल तीनों के लिए कठिन रहे हैं, लेकिन हार्दिक, अल्पेश और मेवानी के सामने अपने-अपने तरीके से एक शानदार राजनीतिक करियर बनाने का पूरा मौका है।...और उन्होंने अभी तो शुरुआत भर की है। तीनों को अगर उनकी पार्टियों ने मौके दिए तो ये लोग राजनीति में लंबी रेस का घोड़ा साबित होंगे।
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