हंगरी-अमेरीकी उद्योगपति जॉर्ज सोरोस की टिप्पणी पर भारत में बवाल मचा हुआ है।
सोरोस की टिप्पणी पर सरकार की तरफ से स्मृती ईरानी ने जवाब दिया, और कहा कि ने सोरोस की टिप्पणी ‘भारत पर हमला’
है। म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस में बोलते हुए सोरोस ने एक टिप्पणी करते हुए कहा था कि
अडानी समूह पर लगा शेयरों में छेड़छाड़ का आरोप भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में बढ़ोत्तरी करेगा। प्रधानमंत्री को इसका जवाब देना होगा।
स्मृति ईरानी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित कर कहा कि सभी भारतीयों को एकजुट
होकर उन विदेशी ताकतों को जवाब देना होगा, जो भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में
हस्तक्षेप करने की कोशिश करती हैं'। उन्होंने कहा कि भारतीयों ने ऐसी 'विदेशी शक्तियों' को हराया है जिन्होंने पहले भी हमारे
आंतरिक मामलों में दखल देने की कोशिश की थी, और फिर से ऐसा करेंगे। उन्होंने कहा, 'मैं हर भारतीय से जॉर्ज सोरोस को करारा
जवाब देने का आग्रह करती हूं।'
जॉर्ज सोरोस की टिप्पणी और राष्ट्र पर हमले बताने की कोशिश देश की राजनीति में नई नहीं है। इससे पहले की सरकारें और नेता भी किसी आंतरिक मसले घिरने पर विदेशी साजिशों का आरोप लगाती रही हैं।
शुरुआत होती है पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय से जब उनकी सरकार किसी
आंतरिक मसले पर घिरी होती थी, और वह अक्सर कह देती थीं कि यह उनकी सरकार को गिराने
के लिए सीआईए या फिर अमेरिका की साजिश है।
दरअसल 1960 का दशक और उसके बाद के साल राजनीतिक लिहाज के बहुत अहम थे। भारत इस
दौरान गुट निरपेक्ष की नीति पर चल रहा था। दो बड़ी महाशक्तियां भारत को अपने खेमें
लाने का प्रयास कर रही थीं। ऐसे में बहुत संभव रहा हो कुछ लोग किसी के एजेंड को
आगे बढ़ा रहे हों।
इस दौर में केवल नेता ही नहीं लेखकों से लेकर कलाकारों तक को इसी चश्मे से देखा जाता रहा है। अज्ञेय और राजकपूर इस कड़ी के सबसे बड़े नायक हैं।
यह वह दौर था जब दुनिया रुस और अमेरिका के दो खेमों में बंटी हुई थी, और तरफ पाले
खिंचे हुए थे। उस समय भारत घोषित तौर पर रूस के खेमे में था। और श्रीमति गांधी इसलिए
बार-बार इसको अमेरिकी साजिश कह देती थीं।
देश के कई नेताओं को अमरीकी समर्थक मानकर उन पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते थे।
इसमें सबसे बड़ा नाम तो पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई का है, जिनको अमेरिका
समर्थित माना जाता था। ऐसे ही आरोप प्रसिद्ध गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण पर भी
लगाए जाते रहे हैं।
मोरारजी देसाई पर आरोप है कि उन्हें इंदिरा गांधी के
मंत्रिमंडल में शामिल कराने के लिए अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने लॉबिंग की थी। देसाई
पर जो अमेरिकी एजेंट होने का जो सबसे बड़ा आरोप है वह 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान
लगाया गया। कहा गया कि युदध से जुड़ी जानकारी अमेरिका को देने के बदले में उन्हें
हर साल 20 हजार डॉलर की राशि दी गई। हालांकि बाद में नरसिंहा राव ने विदेश मंत्री रहते
हुए इस बात का खंडन किया। जब जेपी ने इंदिरा सरकार के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का
बिगुल फूंका तो उनपर भी ऐसे ही आरोप लगाए गये।
हर विरोध के पीछे सीआईए की साजिश बताने वाले दौर का एक बड़ा मशहूर किस्सा है। जनता
पार्टी से समाजवादी खेमें के लोकसभा सांसद हुआ करते थे पीलू मोदी, जो अपने संसदीय
कार्यों के अलावा अपने हास्य और व्यंग के लिए भी बड़े प्रसिद्ध थे। एक बार जब इंदिरा
गांधी ने कुछ सांसदों की तरफ इशारा करते हुए उन्हें सीआईए का एजेंट घोषित किया।
इनमें पीलू मोदी का नाम भी शामिल था। इससे नाराज होकर मोदी अगले दिन अपने सीने पर
एक बैज लगाकर पहुंचे, जिसपर लिखा था, ‘यस आई एम ए सीआईए एजेंट।’
पीलू मोदी की हरकत को सरकार पर गहरे व्यंग के तौर पर देखा गया।
ऐसा नहीं है कि विरोधियों को किसी देश का एजेंट कह देने का चलन इसके बाद रुक गया हो। यह कम और ज्यादा हर सरकार के समय पर होता रहा है। राजीव सरकार के समय भी यह चलन में रहा। वीपी सिंह जब सरकार से अलग होकर बाहर गये तो और उन्होंने राजीव गांधी का विरोध करना शुरु किया तो उन्हें भी ऐसे ही आरोपों का सामना करना पड़ा।
सोरोस की टिप्पणी पर केवल भाजपा ने ही नहीं विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भी जॉर्ज सोरोस
के उस बयान की आलोचना की है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने कहा कि पीएम
से जुड़ा अडानी घोटाला 'लोकतांत्रिक पुनरुत्थान' शुरू करता है या नहीं, यह कांग्रेस, विपक्षी दलों और भारत की चुनावी प्रक्रिया
पर निर्भर करता है।
कांग्रेस के प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत ने भी मामले में प्रतिक्रिया
देते हुए कहा कि, 'स्मृति ईरानी जी
साफ़ सुन लो मोदी जी को कोई झुकाये कोई उठाये ये देखना भाजपा का काम है, पर हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री को झुकाने
की औक़ात दुनिया में किसी की नहीं है। भाजपा देश के पीछे ना छुपे।'
सोरोस की यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है जबकि भाजपा सरकार गौतम अडानी के मुद्दे
पर विपक्षी दलों के सवालों से घिरी हुई है, और इससे निकलने का रास्ता खोज रही है। और
भाजपा को यह रास्ता मिला सोरोस की टिप्पणी में, जो उसे अडानी मुद्दे पर बचा सकता
है।
तबसे लेकर अबतक गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है लेकिन सरकारें थोड़ी सी
मुश्किल में आने पर विदेशी साजिश का राग अलापना नहीं छोड़ पाई हैं। लेकिन मोदी
सरकार इस मामले में कुछ ज्यादा ही सक्रिय है, जो हर छोटी-बड़ी घटना में विदेशी एजेंडे
की तलाश कर लेती है। इसमें सीएए/एनआरसी से लेकर किसान
आंदोलन हो या फिर हालिया हिंडनबर्ग रिपोर्ट और बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री। जिसमें उसे
विदेशी साजिश नजर आती है।
अपनी राय बतायें