पाँच राज्यों के चुनाव संपन्न हुए और देश में 2019 के आम चुनावों की चर्चा ऑकलन संभावनाएँ और अफ़वाहें फ़िज़ा में फैल गईं। टीवी चैनलों के ऐंकर अख़बारों के राजनैतिक भाष्यकार राजनैतिक ज्योतिषी और ‘मैंने तो पहले ही कह दिया था’ मोर्चे पर डट गए हैं!
इन नतीजों ने यकायक राहुल गांधी को चर्चाओं में ला खड़ा किया है। शरद पवार को लग रहा है कि देश को युवा नेतृत्व की ज़रूरत है , राज ठाकरे का कहना है कि पप्पू अब ‘परम पूज्य’ बन गया है, शिवसेना को यक़ीन हो चला है कि राहुल गाँधी को हल्के में लेने की मोदी-शाह की नीति उलट कर खुद उन्हीं पर भारी पड़ गई है। अखिलेश यादव को गठबंधन की संभावनाओं पर अक़ीदा और मज़बूत हो चला है और बहन मायावती को भी लाख असहमतियों के बावजूद कांग्रेस की राज्य सरकार बनवाने-बचाने-चलवाने में ही देशहित दिखाई दे रहा है।
'कांग्रेसी परंपरा'
राहुल गांधी भी विनम्रता से पेश आए हैं। बीजेपी को देश में ही विपक्ष के रूप में रखने को वे कांग्रेसी परंपरा बता रहे हैं और केजरीवाल के महागठबंधन संबंधी मीटिंगों में मौजूद रहने पर अब तक जारी गतिरोध को उन्होंने वापस ले लिया है। गुजरात समेत राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन ने बीजेपी के कांग्रेस-मुक्त भारत के सपने को चकनाचूर कर दिया है ।
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस ने अकेले बीजेपी के धनबल बाहुबल, अफ़वाहबल, मीडिया कंट्रोल, ब्रांड मोदी, आर.एस एस, राम मंदिर, गाय. देशभक्त और हिंदू राष्ट्र के संयुक्त प्रभामंडल को ध्वस्त किया है।
2014 में जो दृश्य था और 2019 में जो दृश्य उभर रहा है, उसमें एक बड़ा साम्य है। 2014 में मनमोहन सिंह सरकार के बारे में जनधारणा बन गई थी कि वह घोटालों की सरकार है और उसका नियंत्रण पर्दे के पीछे से 10 जनपथ उर्फ़ ‘इटली’ कर रहा है। सोनिया गाँधी का विदेशी मूल इस धारणा को हमेशा ही बल देता रहा है।इसी परिदृश्य में हज़ारों करोड़ रुपयों के चुनाव फ़ंड की मदद से और देशी-विदेशी विशेषज्ञों के आधुनिक चुनाव कौशल से मोदी कैंप ने देश के लोगों को ऐसा चश्मा पहनाने में असाधारण सफलता पाई जिससे दिखे कि मनमोहन-सोनिया भ्रष्टाचार के कीचड़ में किस हद तक लथपथ हैं।
कई बार समय बहुत जल्दी दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है। तीन साल बीतते-न-बीतते लम्बी छलांग मारने की कोशिश में मोदी जी ने अर्थव्यवस्था का कबाड़ा कर लिया। नोटबंदी और जीएसटी के चलते मध्यम और लघु उद्योग साफ़ हो गए। नतीजतन बेरोज़गारी बेलगाम हो गई और किसानी की कमर टूट गई। भयंकर मीडिया कंट्रोल व संवैधानिक संस्थानों पर क़ब्ज़े की कोशिशों से देश के सचेत मध्य वर्ग में बेचैनी बढ़ने लगी। सोशल मीडिया में जनता में फैलते ग़ुस्से ने नेपथ्य के सवालों को मुख्यधारा में ला खड़ा किया और चुनिंदा बदनाम औद्योगिक घरानों के साथ मोदी सरकार के फ़ैसलों की नज़दीकियों ने दावानल का रूप धर लिया।
माना जाता है कि नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को भयानक नुक़सान पहुँचाया।
किसान नाराज़
ऐसे में स्वाभाविक तौर पर होना तो यह था कि 2013 में जंतर-मंतर से शुरू हुए अन्ना आंदोलन की तरह का कुछ नजर आता, पर हुआ उससे अलग। किसानों के स्वत:स्फूर्त और प्रायोजित आंदोलनों की शृंखलाएँ बढ़ने लगीं, शुरू में घबराई हुई ट्रेड यूनियनें भी सक्रिय हुईं, गाय और राम मंदिर पर पैदा किेए ज्वार का ताप कम होता दिखा और सत्तारूढ़ दल की खुली प्रशासनिक कोशिशों के बावजूद बड़े दंगे नहीं हो पाए।अगर हम आँकड़ों की मदद से इस सबको देखें और गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनावों के नतीजों से ही शुरू करें तो इन चार राज्यों में ही कांग्रेस के पास अब बीजेपी से ज्यादा विधायक हैं। तीन राज्यों में तो सरकार है और बराबर वोट हैं। सिर्फ बीएसपी को इसमें कांग्रेस से जोड़ दें तो पलड़ा बीजेपी के ख़िलाफ़ झुक जाता है । बीजेपी इसका जवाब यह कहकर दे रही है कि तब मोदी बनाम सब या मोदी बनाम राहुल चुनाव होगा और ब्रांड मोदी इसमें बाज़ी मार लेगा।
उपरोक्त चार राज्यों में गुजरात और राजस्थान की सारी लोकसभा सीटें बीजेपी को मिली थीं और मध्य प्रदेश में कुल 2 और छत्तीसगढ़ में सिर्फ 1 के अलावा भी सभी सीटें बीजेपी को मिली थीं। क्या यह नतीजा दोहराना संभव है? इन चार राज्यों में कुल 91 सीटें हैं जिनमें से 89 बीजेपी ने जीती थीं, पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान इन चारों राज्यों में बीजेपी की ही सरकारें भी थीं। अब बदली परिस्थितियों में जब सिर्फ चार बड़े शहरों में जीतकर और पंद्रह ग्रामीण घनत्व के शहरों में हार कर बीजेपी किसी तरह सिर्फ गुजरात में सत्ता में बची हो इन 91 में से आधी सीटें वापस लाने के लिए उसे तमाम पापड़ बेलने पड़ेंगे।
एनडीए की मुश्किलें
पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में कुल 30 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें बीजेपी के पास 16 और उसके सहयोगी अकाली दल के पास 4 यानी एनडीए के पास 20 सीटें थीं। बाक़ी बची 10 में से 4-4 आप और कांग्रेस के पास व 2 चौटाला के इंडियन नैशनल लोक दल के हाथ में थीं। इन राज्यों में कांग्रेस बीएसपी और आप अगर समझौता करके मैदान में उतरते हैं तो बीजेपी-एनडीए को 10 सीटों के लिए भी एड़ियाँ रगड़नी पड़ेंगी!उत्तर प्रदेश और बिहार में भी सीटों की खींचतान के बावजूद गठबंधन न होने का विकल्प अब कमजोर है । सपा-बसपा-कांग्रेस गठबंधन को उत्तर प्रदेश में 50 से कम लोकसभा सीटों पर रोक पाना चमत्कार ही होगा। बिहार में मुक़ाबला कड़ा होगा पर तेजस्वी के ग्राफ़ में सबको बढ़त दिख रही है। कुशवाहा साथ आने को विवश हैं और हालिया नतीजों से उत्साह से लबरेज़ कांग्रेस उसके साथ पहले से ही है।
2014 में एनडीए ने यहाँ 40 में से 31सीटें जीती थीं अब ऐसा दावा कौन कर सकता है? इन सभी जगहों में एनडीए के लिए वैसा ही मौक़ा है जैसा तेलंगाना के हालिया विधानसभा चुनावों में था। यहाँ से करिश्मे की किसी को शायद ही उम्मीद हो!
उत्तर पूर्व की 26 सीटों में से एनडीए गर रेकर्ड तोड़ दे तो शायद 20 बीस सीट जीत जाए पर वह देशव्यापी गिनती में ऊँट के मुँह में जीरे से ज़्यादा न होगा।महाराष्ट्र और कर्नाटक में यूपीए और एनडीए एक-एक राज्य में समझौता सरकारों में हैं। दोनों राज्यों में कुल सीटें थीं और 18 शिवसेना की साथ थीं। बदलते परिवेश में अब आधी बच जाएँ तो कामयाबी मानी जाएगी! खैर, यह सब एक तस्वीर है।
संघ बीजेपी मोदी शाह टोपी में से कबूतर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। संघ ने राम मंदिर के मुद्दे को कढ़ाई पर चढ़ा ही रखा है , टीवी चैनल और मीडिया का हर हिस्सा उनके लिए किसी भी सीमा को सीमा नहीं मानता।
विदेशी बॉन्ड ज़रिए 95% चंदा बीजेपी ही ले रही है और देशी चंदे के किसी नामी-गिरामी स्रोत की हिम्मत नहीं कि उनसे बैर लेकर विपक्ष को चंदा दे। उनकी आज भी सबसे बड़ी (कई गुना बड़ी) साइबर आर्मी है।
रिज़र्वेशन से बिलबिलाते सवर्ण समाज का बहुमत खिसिया कर नोटा पर भले चला जाए, अभी राहुल गाँधी से परहेज़ पर ही है। केंद्र की ऐसी सरकार उनके हाथ है जिसका डर अफ़सरों मातहतों और संवैधानिक संस्थानों पर अभी कायम है।
उनके पीछे संघ भी है जिसके प्रभाव को कल मेघालय हाईकोर्ट के जस्टिस सेन के जजमेंट से समझा जा सकता है जिन्होंने संविधान को तिरस्कृत कर ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने का फैसला कर दिया। और दुनिया में मुसलमानों के ख़िलाफ़ फैली और फैलाई गई घृणा से लबरेज़ करोड़ों अर्धशिक्षित अर्धविकसित बेरोज़गार नौजवान हैं!
हालाँकि आशुतोष मानते हैं कि पप्पू फ़र्स्ट डिवीज़न पास हो गया, पर मुझे वह मुक़ाबले में आता भर दिखता है।
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पप्पू पास हो गया, वह भी फ़र्स्ट डिविज़न में - आशुतोष
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