अभिव्यक्ति की आज़ादी और सूचना के अधिकार पर काम करने वाले ज़्यादातर विशेषज्ञ इन नियमों पर सवाल उठा रहे हैं। और उनकी आपत्तियाँ सही भी हैं। इन नियमों में इस बात की पूरी गुंजाइश दिख रही है कि सरकार के ख़िलाफ़ आने वाली ख़बरों या विचारों को रोकने के लिए इनका इस्तेमाल हो सकता है।
आलोक जोशी
पहली नज़र में निर्मल हृदय से देखने पर बात एकदम सही लगती है। वेब सीरीज़ में या नेटफ्लिक्स, एमेज़ॉन या आल्ट बालाजी और उल्लू ऐप जैसे प्लेटफॉर्म पर आने वाली फिल्मों या वीडियो में बेलगाम अश्लीलता, हिंसा और गाली गलौज पर रोक लगाने की ज़रूरत बहुत से लोगों को महसूस हो रही थी। इसी तरह व्हाट्सऐप, ट्विटर, फ़ेसबुक पर तरह-तरह की उल्टी सीधी जानकारी, अफवाहें, गाली गलौज या नफ़रत फैलाने वाली सामग्री। या हजारों की संख्या में चल रही वेबसाइटों या यू-ट्यूब चैनल। इन सब पर कहाँ क्या चलता है, कौन चलाता है, कौन उस पर नज़र रखता है। और जब ऐसी सामग्री दिखे जो आपको परेशान करती है तो आपको कहाँ किससे शिकायत करनी है, इसके नियम क़ायदे साफ़ नहीं दिखते थे। इसीलिए जब सरकार ने कहा कि वह ऐसी सामग्री के लिए नियमावली या कोड ऑफ़ कंडक्ट और उसे चलाने वाले प्लेटफॉर्म के लिए दिशा-निर्देश जारी कर रही है तो बात बहुत से लोगों को सही लगी।
गनीमत यही है कि सरकार ने सेंसर बोर्ड बनाने की जगह आत्म नियंत्रण या सेल्फ़रेगुलेशन का प्रस्ताव रखा है। ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म को कहा गया है कि उम्र के हिसाब से पाँच अलग-अलग श्रेणियाँ बनाई जाएँ और कार्यक्रम के पहले साफ़ बताया जाए कि यह किस श्रेणी का प्रोग्राम है। यही नहीं, बच्चों तक ग़लत सामग्री न पहुँचे इसके लिए उन्हें अपने ऐप में ही पैरेंटल लॉक का इंतज़ाम भी करना होगा।
उधर ख़बरों वाले प्लेटफ़ॉर्म से तो कहा जा रहा है कि उन्हें बताना होगा कि वो कब, क्या, कहाँ और कैसे प्रकाशित कर रहे हैं। यही नहीं, उन्हें सरकार को अपने सदस्यों या सब्स्क्राइबरों की गिनती भी बतानी होगी। सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि नए नियमों के लागू होने के तीस दिन के भीतर इसमें दी गई शर्तें पूरी करनी होंगी।
हालाँकि सरकार बार-बार कह रही है कि वह मीडिया की आज़ादी पर कोई अंकुश नहीं लगाना चाहती। लेकिन इन नियमों को जिसने भी बारीक़ी से पढ़ा, उसका यही कहना है कि सरकार अब मीडिया के कामकाज में टांग अड़ाने का मौक़ा ही नहीं तलाश रही है बल्कि उसका इंतज़ाम भी कर रही है।
मशहूर फ़िल्मकार हंसल मेहता ने तो इस पूरी प्रक्रिया पर ही सवाल उठा दिया है। उनका कहना है कि वह कोड ऑफ़ कंडक्ट का तुक नहीं समझ पा रहे, ‘क्या हम स्कूल के बच्चे हैं कि हमें बताया जाएगा कि कैसा व्यवहार करना है?’
लेकिन ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म या फिल्मकारों से कहीं बड़ी मुश्किल ख़बरों के काम में आने वाली है। मेरे जैसा कोई पत्रकार अपना अकेला यू-ट्यूब चैनल चला रहा है। कोई अकेले या चार पांच लोग मिलकर एक वेबसाइट चला रहे हैं। कुछ इससे थोड़े बड़े आकार के हैं। और बहुत से बड़े मीडिया हाउस एक साथ टीवी, प्रिंट, रेडियो और डिजिटल का काम कर रहे हैं। सबके संसाधन और क्षमताएँ अलग-अलग हैं। लेकिन सरकार सबको एक ही डंडे से हाँकना चाहती है।
वरिष्ठ पत्रकार और सत्य हिंदी डॉट कॉम के प्रमुख कमर वहीद नक़वी का कहना है कि यह गाइडलाइंस ख़ासकर स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले छोटे पोर्टल और निजी चैनलों के लिए बहुत बड़ा ख़तरा खड़ा कर सकती हैं। यहाँ तक कि वो अपना कामकाज बंद करने के लिए भी मजबूर हो सकते हैं। वह आजतक और सहयोगी चैनलों के लंबे समय तक संपादकीय प्रमुख रहे हैं और टेलिविज़न चैनलों के कंटेंट पर आनेवाली शिकायतें सुननेवाली संस्था एनबीएसए के सदस्य भी। उनका कहना है कि प्रिंट मीडिया और टेलिविज़न न्यूज़ चैनल अब क़रीब क़रीब ऐसी स्थिति में हैं कि वे सरकार के लिए कोई ख़ास परेशानी खड़ी नहीं करते। सवाल भी नहीं पूछते। इसीलिए सरकार को परेशानी ऐसी छोटी वेबसाइटों और यूट्यूब चैनलों से है जो पैसे के लिए न तो सरकार पर निर्भर हैं न सवाल पूछने से कतराते हैं।
अब नई गाइडलाइंस के मुताबिक़ हर चैनल को एक शिकायत अधिकारी या कंपलायंस ऑफिसर की नियुक्ति करनी होगी। यह अधिकारी संपादक भी नहीं हो सकता और उसके मातहत काम करनेवाला भी नहीं।
बड़े संस्थानों में तो एक लीगल डिपार्टमेंट होता है जो यह सारे काम देखता है। नियमों के हिसाब से कोई भी शिकायत आने पर चौबीस घंटे के अंदर शिकायत करनेवाले को प्राप्ति की मंजूरी देनी होगी, पंद्रह दिन के भीतर बताना होगा कि शिकायत का क्या होगा और हर महीने इस बात का पूरा ब्योरा सामने रखना होगा कि कितनी शिकायतें मिलीं और उनका क्या-क्या किया गया। आज के सोशल मीडिया का जो हाल है उसमें कभी भी कोई ट्रोल सेना हज़ारों शिकायतें मेल पर भेज सकती है। अब छोटी वेबसाइट या चैनल चलानेवाले अपना काम करें या इन शिकायतों का रजिस्टर तैयार करें? और अगर वो शिकायत अधिकारी रखेंगे तो उसकी तनख्वाह कहाँ से आयेगी?
जाहिर है यह न जाने कितने पोर्टल्स या यू ट्यूब चैनलों के लिए काम बंद करने के अलावा कोई रास्ता छोड़ेगा नहीं। और इससे भी बड़ी समस्या यह है कि सरकार ख़ुद ख़बरों या विश्लेषण के काम को नियंत्रित करने की ताक में है। नियमों के हिसाब से संस्थानों में तो तीन स्तर की व्यवस्था होनी ही चाहिए, लेकिन इसके बाद भी सरकार तमाम मंत्रालयों के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारियों की एक समिति बनायेगी जो मीडिया की शिकायतें सुनेगी। इस समिति की सिफारिश पर सूचना मंत्रालय किसी चैनल या प्लेटफॉर्म को चेतावनी दे सकता है, माफ़ी मांगने को कह सकता है या भूल सुधार करने य सामग्री हटाने को भी कह सकता है। आख़िरी फ़ैसला सूचना प्रसारण सचिव के हाथ में होगा।
'आशुतोष की बात' में देखिए, सोशल मीडिया के लिए सख़्त क़ानून, सही या ग़लत?
अभिव्यक्ति की आज़ादी और सूचना के अधिकार पर काम करने वाले ज़्यादातर विशेषज्ञ इन नियमों पर सवाल उठा रहे हैं। और उनकी आपत्तियाँ सही भी हैं।
इन नियमों में इस बात की पूरी गुंजाइश दिख रही है कि सरकार के ख़िलाफ़ आने वाली ख़बरों या विचारों को रोकने के लिए इनका इस्तेमाल हो सकता है। अगर सरकार की नीयत अभिव्यक्ति पर रोक लगाने की नहीं है, तो उसे सर्वदलीय समिति बनाकर बड़े पैमाने पर देश भर में विचार-विमर्श करना चाहिए और एक ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें सभी तरह के मीडिया पर नियंत्रण का इंतज़ाम भी हो सके और यह नियंत्रण सरकार के कब्जे से बाहर भी रहे।
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आलोक जोशी
लेखक सीएनबीसी आवाज़ के पूर्व संपादक हैं, आर्थिक मामलाों के विशेषज्ञ हैं और समसामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं।और पढ़ें »
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