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आधुनिक भारतीय इतिहास की हाई-प्रोफाइल जासूसी कहानियों में से एक की कहानी एक वरिष्ठ पत्रकार सुनाते हैं। वर्ष 1994 के आस-पास की यह कहानी ‘इसरो स्पाई स्टोरी’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह कहानी मालदीव की दो महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमती है, जिन्होंने कथित तौर पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों सहित भारत सरकार के कई महत्वपूर्ण सरकारी अधिकारियों और कर्मियों का एक नेटवर्क बनाने के लिए अपने जासूसी कौशल का इस्तेमाल किया था। इस कहानी के अनुसार, इस जासूसी नेटवर्क की मदद से इसरो के बेहद संवेदनशील रहस्यों को चुराने के प्रयास किये गये। इस चर्चित जासूसी कांड के केंद्र में एस. नांबी नारायणन नाम का एक बेहद प्रतिभाशाली रॉकेट वैज्ञानिक था।
उस वरिष्ठ पत्रकार ने एक रिपोर्टर के रूप में इस कहानी को कवर करते हुए अपने लेख में इस पूरी कहानी का उल्लेख किया था। इस कांड को कवर करने के क्रम में मद्रास की हवाई उड़ान के दौरान उनकी मुलाक़ात इसरो के एक बड़े वैज्ञानिक से होती है। इस वैज्ञानिक ने बातचीत के क्रम में बताया था कि इसरो एक पारदर्शी संगठन है और वास्तव में यहाँ कुछ भी गोपनीय के रूप में वर्गीकृत नहीं है।
उन्होंने उपरोक्त जासूसी कहानी की बारीकी से जांच की तथा अंततः पत्रकारों ने पाया कि यह एक मनगढ़ंत और विसंगतियों से भरी हुई कहानी के अलावा कुछ भी नहीं था। इन पत्रकारों ने कहानी को एक फ्रेम-अप के रूप में निरुपित किया, जिसमें केरल पुलिस द्वारा दायर आरोपपत्र में ऐसे दावे थे जो कल्पना की उड़ान के अलावा कुछ भी नहीं थे। सीबीआई भी अपनी जाँच के बाद इसी तरह के निष्कर्ष पर पहुँची थी। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने केरल सरकार को श्री नंबी नारायणन को इस झूठे मुक़दमे में परेशान करने के एवज में क्षतिपूर्ति देने का निर्देश दिया। जासूसी के इस मामले में आरोपी बनाये जाने के कारण श्री नंबी नारायणन को 50 लाख रुपये नुक़सान पहले ही हो चुका था। लेकिन, इसके अलावा एक प्रतिभाशाली रॉकेट वैज्ञानिक को पुलिस की ज़्यादती और घोर लापरवाही के कारण वर्षों तक अपमान और भारी आर्थिक और सामाजिक नुक़सान उठाना पड़ा था।
पिछले हफ्ते दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली दंगों के मामले में आरोपी नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इक़बाल तन्हा की ज़मानत याचिका की जाँच की। इन सभी पर कड़े ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत वैसे बेहद गंभीर आरोप लगाए गए हैं जो विशेष रूप से आतंकवादियों के ख़िलाफ़ लगाये जाते हैं। इस केस पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली पुलिस पर कड़ा प्रहार किया।
हाई कोर्ट ने कहा कि यूएपीए का उपयोग केवल उसी स्थिति में किया जाना चाहिए जहाँ आतंकवाद की वास्तविक घटनाएँ घटित हुई हों तथा इस कठोर अधिनियम का इस्तेमाल सरकार विरोधी असंतोष या विरोध प्रदर्शन के मामलों में क़तई न किया जाए।
यह मामला पुलिस द्वारा आतंकवाद से निपटने के लिए इस्तेमाल होने वाले एक क़ानून का आतंकवादियों के स्थान पर अपने ही नागरिकों पर अत्याचार करने के लिए इस्तेमाल किए जाने का सबसे हालिया उदाहरण है।
जबकि सभी सरकारें कुछ हद तक इन क़ानूनों का दुरुपयोग करती रही हैं, प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी के वर्तमान संस्करण ने असंतुष्टों से निपटने के लिए क़ानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग के नए प्रतिमान स्थापित किया है। इसके असंख्य उदाहरण हैं। भीमा कोरेगाँव के मामले में प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया तथा पुलिस द्वारा उनपर मनगढ़ंत साक्ष्यों के आधार पर आरोप गठित कर दिया गया। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार उत्तर प्रदेश में जनवरी 2018 और दिसंबर 2020 के बीच उच्च न्यायालय ने यूपी पुलिस द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत लगाये गए 120 में से 94 मामलों को रद्द कर दिया। ये किसी भी पुलिस बल और सरकार के लिए शर्मनाक आँकड़े हैं, हालाँकि हम आज एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ हमने शर्म और शर्मिंदगी की सभी दीवारें वर्षों पहले तोड़ दी थीं।
जबकि राजनेता और पुलिस जो वस्तुत: राजनेताओं द्वारा नियंत्रित होती है, दोनों में ही ईमानदारी और शर्म का घोर आभाव है, ऐसे में हमारे पास क्या विकल्प बचता है? हमें अपने संविधान में निहित लोकतान्त्रिक मूल्यों से प्रेरणा लेकर अपने क़ानूनों और लोकतान्त्रिक संस्थाओं को मज़बूत करने के लिए आगे आना चाहिए। तकनीकी रूप से कहें तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के पास ऐसी पुलिस ज़्यादतियों की जाँच करने और पुलिस कर्मियों को जवाबदेह ठहराने की शक्ति और अधिकार है। हालाँकि, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के साथ दो समस्याएँ हैं- एक यह कि इसकी कार्रवाई उस तरीक़े की व्यवस्थित नहीं होती जिस तरह से पुलिस बल क़ानूनी कार्रवाइयाँ करता है। पुलिस में इस प्रकार के कार्यों में संलग्न लोग पेशेवर हैं, तथा तकनीकी रूप से बेहद चालाकी से अपना काम करते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास ऐसे किसी स्थापित प्रोटोकॉल का अभाव है जो प्रक्रिया के दुरुपयोग के लिए पुलिस स्टेशनों की सही तरह से जाँच कर सके।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के वर्तमान संस्करण के साथ दूसरा मुद्दा है- इसकी छवि और निष्पक्ष तरीक़े से कार्य करने की कथित क्षमता। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में श्री अरुण मिश्रा की नियुक्ति ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की छवि और निष्पक्षता को गंभीर नुक़सान किया है। सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में सेवा करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के पहले गैर मुख्य न्यायाधीश, श्री अरुण मिश्रा ने एक बार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर रहते हुए प्रधान मंत्री को "बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति" के रूप में वर्णित किया था। श्री मिश्रा न्यायाधीशों की एक कुख्यात जमात का भी हिस्सा हैं, जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी का तोहफा स्वीकार कर लिया है। अध्यक्ष के रूप में उनकी नियुक्ति के तुरंत बाद, उन्होंने बंगाल के राज्यपाल के साथ एक बैठक की, जो बीजेपी द्वारा राज्यपाल के रूप में नियुक्त किये गये हैं। कहने की ज़रूरत नहीं है कि श्री मिश्रा की मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति पुलिस और सरकारी ज्यादतियों से निपटने के मुद्दे पर आयोग के प्रति विश्वास नहीं जगाती।
निष्पक्ष और प्रभावी नियुक्तियों पर भरोसा करने के बजाय, वर्तमान समय की ज़रूरत यह है कि एक ऐसे व्यापक ढांचे का निर्माण किया जाए जो पुलिस स्टेशनों द्वारा अलग-अलग मामलों में उठाये गए क़दमों की ऑडिट करने में सक्षम हो। उन मामलों में जहाँ पुलिस पर गंभीर आरोप लगे हैं वहाँ की जाँच स्वतंत्र आयोग द्वारा करवाया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, यूएपीए और एनएसए के मामलों में जहाँ बंदियों के अधिकारों को कम करने के आरोप लगे हैं, जाँच आयोग ‘जांच’ और कैदियों के ‘मौलिक अधिकारों की देखभाल’ के लिए व्यापक अधिकार सीमा की मांग कर सकता है। इसके अलावा, भारतीय पुलिस सेवा में एक पुलिस अधिकारी की पदोन्नति को भी इस तरह के मापदंड के आधार पर मूल्यांकित किया जाना चाहिए। अर्थात, पुलिस अधिकारियों की पदोन्नति में मानवाधिकार से जुड़े उनके ट्रैक रिकॉर्ड को भी आधार बनाना चाहिए।
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