राजधानी के सबसे घनी आबादी वाले इलाक़े उत्तर-पूर्वी दिल्ली में तीन दिन तक जारी रही हिंसा की ख़बरें देखने-सुनने और समझने के बाद आपके जेहन में एक सवाल ज़रूर आ रहा होगा। सवाल यह कि दिल्ली पुलिस आख़िर तीन दिन तक ख़ामोश क्यों रही। उपद्रवी मनमानी करते रहे और पुलिस मूकदर्शक बनी रही। उसने कभी ज़मीन पर लाठी फटकारी तो कभी दूर से आंसू गैस के गोले छोड़े। दंगाई फ़ायरिंग कर रहे थे। पुलिसवालों के सामने आगजनी हो रही थी। लेकिन पुलिस असहाय होकर देख रही थी।
मंगलवार को गृह मंत्री अमित शाह को दिल्ली की याद आई और आनन-फानन में सीआरपीएफ़ के 1985 बैच के वरिष्ठ आईपीएस अफ़सर एस.एन. श्रीवास्तव को दिल्ली की क़ानून-व्यवस्था की कमान सौंपी गई। जम्मू-कश्मीर से लेकर दिल्ली तक की कानून-व्यवस्था के जानकार एस.एन. श्रीवास्तव दिल्ली के कमिश्नर पद के दावेदार हैं। वह ग्राउंड पर काम करने में विश्वास रखते हैं। मंगलवार की शाम को नियुक्ति होने से अब तक वह लगातार उत्तर पूर्वी-दिल्ली में ही जमे हुए हैं।
श्रीवास्तव की तैनाती के साथ ही दिल्ली पुलिस ने ताबड़तोड़ सख़्त फ़ैसले लेने शुरू किए। दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश से लेकर कर्फ्यू तक की कार्रवाई होने लगी और जाफ़राबाद और मौजपुर से प्रदर्शनकारियों को हटा दिया गया।
नाकाम रहा ख़ुफिया तंत्र
मगर सवाल अब भी जेहन में वही है कि ऐसा हुआ क्यों और दिल्ली पुलिस ख़ामोश क्यों रही। सबसे पहले इस मामले में दिल्ली पुलिस की चंद चूकों पर नजर डाल लेते हैं। शनिवार की रात अचानक सैकड़ों की संख्या में महिलाओं का जाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन पर इकट्ठा होने की ख़बर दिल्ली पुलिस के पास नहीं थी। दिल्ली पुलिस के ख़ुफिया तंत्र की पहली नाकामी यहीं साबित होती है।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली में नागरिकता क़ानून को लेकर विरोध चल रहा है, इस बात को दिल्ली पुलिस के स्थानीय थानाकर्मी से लेकर आला अफ़सर तक जानते हैं। मैं खुद जानता हूं कि केवल जाफ़राबाद ही नहीं कई थाना इलाक़ों में अक्सर लोग नागरिकता कानून को लेकर एकत्रित होने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन जहां पर थानाध्यक्ष और पुलिस होशियार है, वे इन्हें काबू में कर ले रहे हैं।
पुलिस की ग़लती इससे आगे भी है क्योंकि दूसरे दिन यानी रविवार को जब बीजेपी नेता कपिल मिश्रा के नेतृत्व में लोग इकट्ठा हुए तो दिल्ली पुलिस उनको तितर-बितर नहीं कर पाई बल्कि इस समय आईसीयू में दाख़िल डीसीपी कपिल मिश्रा के साथ खड़े हो गए और उनके सामने कपिल मिश्रा तीन दिन की वार्निंग देने लगे। इससे माहौल बिगड़ना ही था। इसके बाद भी पुलिस ने अपने ख़ुफिया तंत्र का इस्तेमाल नहीं किया वर्ना लोग सरेआम पिस्टल ना लहरा रहे होते।
असल में पिछले तीन साल से दिल्ली पुलिस में एक अजीब सी प्रथा चालू हुई। प्रथा जुगाड़ की, प्रथा हरेक फ़ैसले के लिए ऊपर से आदेश आने का इंतजार करने की। प्रथा कागजों पर पुलिस को अति स्मार्ट दिखाने की।
अगर आप किसी पुलिसवाले को जानते हैं और वह चाहे कांस्टेबल हो या अफ़सर एक सवाल जरूर पूछिएगा। सवाल यह कि दिल्ली पुलिस के कितने सोशल मीडिया ऐप हैं। मेरा मानना है कि आपके उस जानकार पुलिसवाले को इसका सही जवाब नहीं पता होगा। पिछले तीन साल में दिल्ली पुलिस के जितने ऐप लांच हुए हैं और इनकी लांचिंग का समारोह हुआ है, उसके बारे में दिल्ली पुलिस के अफ़सरों को भी पता नहीं होगा।
दिल्ली के थाने आज भी 25 रजिस्टरों पर ही चलते हैं और आप इन रजिस्टरों की भूमिका को जानेंगे तो हैरान रह जाएंगे कि आख़िर पुलिस मॉडर्न होने का दावा ही क्यों करती है।
कागजों पर मॉडर्न होती दिल्ली पुलिस में एक और प्रथा है। काबिल अफ़सरों को ना जाने किसके फ़ीडबैक पर उन पदों पर रखा जाता है, जहां उनके लिए करने को कुछ खास नहीं होता।
दिल्ली पुलिस में एसएचओ तैनात करने के लिए गठित कमेटी सभी इंस्पेक्टरों का साक्षात्कार तो करती है लेकिन उनमें से कुछेक को ही थाने की कमान दी जाती है, लेकिन क्यों?
स्थानीय स्तर पर एसएचओ और उसका सिस्टम ही वह कड़ी है जो दिल्ली की कानून और व्यवस्था के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार होती है। लेकिन दिल्ली में आप पाएंगे कि डीसीपी और ज्वाइंट सीपी स्तर के अफ़सर एसएचओ की तरह गश्त करते या मीटिंग करते नजर आते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि थाने का लोकल सिस्टम इन सीनियर अफ़सरों की औपचारिकता में फंसकर असली काम से दूर रहता है। इनसे बचे समय में उसे अपने कागज पूरे करने होते हैं।
सीनियर अफ़सरों की पब्लिक मीटिंग का समय इलाक़े में गुजरने लगा है और यही वजह है कि स्थानीय स्तर पर ख़ुफिया तंत्र विफल हो जाता है। जेएनयू हो या जामिया या फिर अब उत्तरी-पूर्वी दिल्ली। लोकल इंटेलीजेंस की विफलता से ही ये मामले हुए और सरकार का सिरदर्द बने। दिल्ली के एक-दो जिलों को छोड़ दें तो लगभग सारी दिल्ली में तैनाती के मापदंड कुछ और हो गए हैं।
ख़ैर, जलती हुई दिल्ली में सख्त एक्शन के लिए जिस जगह से हरी झंडी का इंतजार किया जा रहा था, उस जगह पर फ़ैसला इतनी जल्दी नहीं होता। नहीं तो गोवा चार महीने से बिना डीजीपी के नहीं होता। फ़ैसला लेने की इस रफ्तार से दिल्ली पुलिस के सभी अफ़सर परिचित हैं। सख्त फ़ैसला लेने के लिए किसी ने उन पर रोक भी नहीं लगाई थी। जाहिर है कि दिल्ली पुलिस उलझन में थी।
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