इन दिनों अगर कोई सिर्फ़ भारत के न्यूज़ चैनल, ख़ास तौर पर हिंदी वाले, देखकर जानना चाहे कि देश-दुनिया में क्या हो रहा है तो उसे यही समझ में आएगा कि सीमा विवाद के मामले में चीन को डराया जा चुका है (टीवी की स्क्रीन पर अनुप्रास अलंकार की आभा बिखेरते हुए ‘डर गया ड्रैगन’ जैसे शीर्षक देखकर), पाकिस्तान को मिटाया जा चुका है, नेपाल तो ख़ैर इनके बाद चैनलों की किसी गिनती में ही नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को बहुत मानते हैं, सारी दुनिया के तमाम लीडरान मोदी जी की दूरदृष्टि, भाषण कला, नेतृत्व क्षमता आदि के आगे नतमस्तक हैं, भारत मोदी जी के नेतृत्व में छह साल पहले विश्वगुरु बन गया था और जीडीपी में गिरावट, बढ़ती बेरोज़गारी, मरते किसान-मज़दूर और चौपट हो चुके काम-धंधों के बावजूद उसकी विश्वगुरु की पदवी किसी और को ट्रांसफर नहीं हुई है। मोदी जी के प्रताप से भारत अब भी विश्वगुरु है और मोदी जी के मास्टरस्ट्रोक की बदौलत ही कयामत तक विश्वगुरु बना रहेगा। देश में कोरोना फैलाने में विपक्ष की साज़िश है। एक भारतीय योग गुरु ने कोरोना की दवा तैयार कर ली है जबकि दुनिया भर के डॉक्टर इस मोर्चे पर अभी मगज़मारी ही कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था में गिरावट की बातें सोशल मीडिया पर फैल रही अफवाहें भर हैं। पैदल चल रहे प्रवासी मज़दूर विपक्ष के एजेंट थे। सच तो यह है कि दैहिक-दैविक-भौतिक तापा, मोदी राज नहिं काहुहिं व्यापा। जनता तो इतनी ख़ुश है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो मोदी जी 450 से ज़्यादा सीटें ले आएँगे।
यह सब वहाँ चौबीसों घंटे चलता रहता है जिसे मुख्य धारा का मीडिया कहा जाता है। यह बात अलग है कि इनमें से लगभग हर मामले में ज़मीनी हक़ीक़त न्यूज़ चैनलों पर मुदित मन से प्रसारित की जा रही इन तमाम ख़ामख़यालियों से बहुत अलग है लेकिन बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब दिल को खुश रखने को ये ख़याल अच्छा है और जो ख़याल अच्छा है वही सच है क्योंकि वह मन की बात है और गीता में स्वयं भगवान् कृष्ण ने अपने बारे में कहा है कि इन्द्रियों में मैं मन हूँ। तो जो मन भगवान् है, उसकी बात को ग़लत कहना सीधे-सीधे भगवान् को ग़लत कहना है और भगवान् को ग़लत कहने पर आजकल के भक्तों की प्रतिक्रिया के बारे में सोचने से मन के साथ-साथ तन की तकलीफ का ख़याल आकर मन को समझाने लगता है कि आ बैल मुझे मार मुहावरे को जीवन में चरितार्थ करने की कोशिश क्यों करना?
पत्रकारिता आज़ादी के दौर में मिशन थी, बाद में प्रोफ़ेशन बन गयी और अब टीवी चैनलों के शोर के दौर में प्रहसन हो चुकी है। इस पत्रकारिता का सूत्र वाक्य है - सनसनी सत्यं, ख़बर मिथ्या।
मुख्यधारा का अधिकांश मीडिया सरकार का भोंपू ही है।
अब रोज़ाना कोरोना संक्रमण के लगभग 10 हज़ार मामले आ रहे हैं। साफ़ है कि कोरोना पर काबू पाने के दावों की पोल ताली-थाली-दीया-घंटी के राष्ट्रीय प्रचार के बावजूद खुल चुकी है। लाॅकडाउन के एलान और फिर उसे खोलने के फ़ैसले ने सर्वोच्च स्तर पर अधकचरेपन को उजागर किया है। शहरों में काम करने वाले प्रवासी मज़दूर बेरोज़गार हो गये हैं, अपने ठिकानों से उजड़ चुके हैं। गाँवों में काम है नहीं। शहरों में छोटे और मंझोले उद्यमियों का क़ारोबार बर्बाद हो चुका है। मध्य वर्ग की नौकरियाँ जा रही हैं। अर्थव्यवस्था रसातल की ओर अग्रसर है। सरकार के पास न तो सही सोच है, न तैयारी और न नीति। एक तरफ़ विदेशी पूँजी निवेश को बढ़ावा है तो दूसरी तरफ़ आत्मनिर्भर बनने का आह्वान। सरकार ने 'आत्मनिर्भर बनो' कहकर अब एक तरह से अपना पल्ला झाड़ लिया है।
चौतरफ़ा बर्बादी की आँखों देखी कड़वी हक़ीक़त के बीच 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था का सपना दिखाया जा रहा है। ऐसे में भी मीडिया के कई तथाकथित सितारे हैं जो सरकार का ढोल पीट रहे हैं। ताली-थाली, घण्टी, दीया वाली भक्त मंडली चीन से जुड़े सीमा विवाद पर सन्नाटा खींच कर बैठी है। इस बार तो नेहरू जी को भी दोष देने का कोई मौक़ा नहीं मिल पा रहा।
हिंदी की पत्रकारिता सरकार और सत्ता समूह से तालमेल बिठाये रखने की कवायद में लम्बे समय से लगी हुई थी, टेलीविज़न चैनलों की पैदाइश से भी पहले से। देश ने कांग्रेस राज में इंदिरा गाँधी की हुकूमत में इमरजेंसी का वह दमनकारी दौर भी देखा है जब मीडिया से घुटने टेकने को कहा गया और वह रेंगने लग गया था। लेकिन मोदी युग की टीवी पत्रकारिता ने सरकार की खुशामद और उसके आगे समर्पण के पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं।
आज की पत्रकारिता खुलेआम जनविरोधी है। दबंगई और बेशर्मी के साथ युद्धोन्माद, अंधराष्ट्रवाद फैला रही है, गृह युद्ध भड़का रही है, सांप्रदायिक तनाव फैला रही है, सरकार से सवाल पूछने के बजाय विपक्ष को ही घेरने में लगी हुई है। मुसलमान, पिछड़े, दलित, आदिवासी उसके निशाने पर रहते हैं।
ताज़ा-ताज़ा चर्चित वेब सीरीज़ पाताल लोक का इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी कहता है- ‘ये जो दुनिया है, ये एक नहीं तीन दुनिया है। सबसे ऊपर स्वर्ग लोक जिसमें देवता रहते हैं, बीच में धरती लोक जिसमें आदमी रहते हैं और सबसे नीचे पाताल लोक जिसमें कीड़े रहते हैं।’
इस धारावाहिक में दिखाया गया धाकड़ पत्रकार संपादक टीवी के परदे पर दिखने वाली आज की असली पत्रकारिता से उठाया गया एक चेहरा है। दोमुंहे चरित्र वाला, तेज़ तर्रार, अपने हितों को साधने के लिए लोगों को इस्तेमाल करने वाला, जो लोगों की नज़र में हीरो बनने के लिए अपने ऊपर हमले की नकली और झूठी ख़बर दिखा कर हमदर्दी हासिल करने और पैसे और पद के लिए सौदेबाज़ी में लगा दिखता है। धारावाहिक के अंत में बोर्ड पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा फ़ेक न्यूज़ ही उसकी असलियत है। कहानी कहने वाला स्पष्ट कर देता है कि अगर हमारी दुनिया पाताल लोक जैसी है तो उसका एक कीड़ा यानी निकृष्ट इंसान वह संपादक भी है जिससे मिलकर इंस्पेक्टर हाथी राम कहता है- ‘मुझे लगता था आप कितने बड़े आदमी हो और मैं कितना छोटा आदमी हूँ। आपसे मिलने के बाद ये ग़लतफ़हमी दूर हो गयी।’
पत्रकारिता की विरासत
महात्मा गाँधी प्रशिक्षित वकील तो थे ही, पत्रकार भी थे। ‘इंडियन ओपिनियन’ , ‘यंग इंडिया’, ‘नवजीवन’ और ‘हरिजन’ अख़बार निकाले थे, उन्होंने। गाँधी जी पत्रकारिता को पेशा नहीं समाज की सेवा मानते थे। भीमराव आंबेडकर ने भी पत्रकारिता की। आज़ादी की लड़ाई के दौर में पत्रकारिता आम जनता से जुड़ी थी। हमारी पत्रकारिता की एक शानदार जनोन्मुखी विरासत है। इसके पुरखों में गणेश शंकर विद्यार्थी, माखन लाल चतुर्वेदी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, महात्मा गाँधी, भीमराव आंबेडकर जैसे दिग्गजों के नाम शामिल हैं। लेकिन अब जो इसके प्रतिनिधि चेहरे हैं उनमें से बहुत से लोग समाज को जोड़ने में नहीं, तोड़ने में आनंद और गर्व महसूस करते हैं। वे सरकार के पिछलग्गू हैं और इस पर उन्हें फख्र होता है।
उन्हें पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों और स्थापित मूल्यों के साथ समझौता करने और खुलेआम धोखाधड़ी करने में कोई शर्म नहीं आती।
जॉर्ज ऑरवेल का एक मशहूर कथन है-
‘धोखाधड़ी के दौर में सच बोलना एक क्रांतिकारी काम है।’
मुख्यधारा के मीडिया से सच बोलने की उम्मीद करना बेकार है। यह काम वैकल्पिक मीडिया को ही करना होगा। मुक्तिबोध के शब्दों में-
‘अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे। तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब।’
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