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क्या सिर्फ टमाटर रुला रहा? ‘सब्र की इक हद भी होती है’

आटे-दाल का भाव सिर्फ़ इस देश तो क्या, दुनिया के खासे बड़े हिस्से में भूखे पेटों की आम समस्या रहा है। अकारण नहीं कि बड़े-बुजुर्ग दुनिया मुट्ठी में कर लेने की आतुरता में ‘हाथ से बेहाथ होती’ नई पीढ़ी को सुनाकर यह कहने से नहीं चूकते कि ‘आटे-दाल का भाव पता चलेगा, तब समझ में आयेगा’।

लेकिन इधर जिस तरह न सिर्फ़ टमाटर, आलू, अदरख और मिर्च के भाव आसमान पर चले गये हैं, बल्कि दूसरी कई मौसमी व गैरमौसमी सब्जियाँ भी उनसे होड़ पर आमादा हैं, उससे लगता है, आटे-दाल का भाव पता चलने का मुहावरा नये भारत में जल्दी ही टमाटर, आलू, अदरख या मिर्च के भाव पता चलने के मुहावरे में बदल जायेगा। गौर कीजिए, इनके भाव ऐसे वक्त में आसमान पर गये हैं, जब सरकार खुदरा महंगाई दर घटने और थोक महंगाई दर के घटते-घटते आठ साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाने के ‘जश्न’ में मगन है। 

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इस अंदाज में कि जैसे जग जीत लेने जैसी अपनी इस उपलब्धि को उसने अपने उन आलोचकों के मुंह पर मार दिया है जो महंगाई न रोक पाने को लेकर उसे प्रायः निशाने पर लिये रहते हैं। इस बीच एक समय ऐसा भी हुआ, जब प्याज की कीमतें एकबारगी जमीन पर गिरकर एक नये अनर्थ को जन्म देने लगीं और महाराष्ट्र के प्याज उत्पादक अपनी लेई-पूंजी गंवा देने के संकट से जूझने लगे।

ऐसा भी नहीं कि मुहावरा बदलने की संभावना इसलिए पैदा हुई है कि आटा व दाल सस्ते हो गये हैं। कई पीड़ितों की मानें तो महंगाई के इस दौर में देश में सस्ती तो न जिन्दगी रह गई है और न मौत। थोड़ा-बहुत सस्ता सच पूछिये तो डाटा ही है, जिससे अनेक देशवासी अपने मोबाइलों में ‘खोये’ रहकर महंगाई का गम गलत कर लेते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इस डाटा की भूखे पेटों को भरने में कोई भूमिका नहीं है। जैसा कि व्यंग्य कवि कहते हैं: “न कोई चबैने की तरह कम्प्यूटर के डाटा चबाकर तृप्त हो सकता है, न रोटी गूगल से डाउनलोड हो सकती है।” 

अफसोस की बात है कि इसके बावजूद सरकार के स्तर पर इस महंगाई की कोई खास चिन्ता नहीं दिखाई देती, जबकि उसे टमाटर व आलू आदि की महंगाई को लेकर आटे-दाल की महंगाई के मुकाबले ज्यादा चिंतित होना चाहिए था। दरअसल, टमाटर, आलू व प्याज जैसी सब्जियां गरीब और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के सदस्यों में बच्चों से लेकर बुजुर्गों और महिलाओं से लेकर पुरुषों तक सबका न्यूनतम पोषण सुनिश्चित करने अथवा कुपोषण घटाने में बड़ी भूमिका निभाती रही हैं। दूसरी सब्जियाँ पहुंच में न रह जायें तो भी ये परिवार तब तक बहुत चिन्तित नहीं होते, जब तक आलू-प्याज-टमाटर सस्ते दामों पर मिलते रहते हैं। लेकिन अब इनके दामों के अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी से वे खासे परेशान हैं और समझ नहीं पा रहे कि इसे लेकर फरियाद करने कहां जायें?
भूख और कुपोषण दूर करने को लेकर लम्बी-चौड़ी बातें करती रहने वाली देश की सरकार है कि जब से वह सत्ता में आई है, उसे महंगाई की मार बहुत होती दिखती ही नहीं। इसलिए जब भी महंगाई की बात आती है, वह उसके खात्मे के उपाय करने के बजाय कारण गिनाने लगती है।

एक बार तो वह उसे राष्ट्रवादी और देश के विकास के लिए ज़रूरी भी बता चुकी है। वित्तमंत्री का वह कथन लोगों को अभी भी नहीं भूला है कि वे प्याज नहीं खातीं। क्या पता टमाटर और आलू खाती हैं या नहीं?

जिस तरह इनकी महंगाई को लेकर सरकार के कानों पर जूं रेंगती नहीं दिखाई दे रही और वह महंगाई से जुड़ी गरीबों व निम्नमघ्यवर्गीय परिवारों की चिन्ताओं को सम्बोधित नहीं कर रही, उससे तो यही लगता है कि नहीं खातीं। अन्यथा जैसे कई बार अचानक सोते से जागकर मंदी की चपेट में आई अर्थव्यवस्था को कई प्रकार के आर्थिक पैकेजों से गति प्रदान करने के प्रयास करती हैं, सब्जियों व खाद्य वस्तुओं की बढ़ती महंगाई से निपटने के समुचित जतन भी क्यों नहीं करतीं? उससे जुड़ी सारी चिन्ताओं को अपने अधिकारियों द्वारा गढ़े गये बेहिस बहानों की बिना पर तकिया क्यों बना लेतीं?

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टमाटर की महंगाई को लेकर सरकार का सबसे बड़ा बहाना हिमाचल प्रदेश जैसे उत्पादक राज्यों में असमय बारिश का है। इसी तरह अदरख, आलू, मिर्च और दूसरी सब्जियों की महंगाई के लिए भी उसके पास कोई न कोई बहाना है ही। मगर उनमें ज़्यादातर बहाने तार्किक व्याख्याओं के पास जाते ही दम तोड़ देते हैं। तिस पर समस्या की असल वजह को स्वीकार करने से वह प्रायः कतराती रहती है। मानती नहीं कि हर तरह की महंगाई के पीछे लगातार महंगा होता जा रहा परिवहन, मांग व आपूर्ति का असंतुलन, अवांछनीय जमाखोरी और बड़े कराधान की ही बड़ी भूमिका है और इन चारों के लिए वही सीधी ज़िम्मेदार है।

फिर क्या देशवासियों को महंगाई से निजात दिलाने की उसकी जिम्मेदारी इसलिए खत्म मानी जा सकती है कि उसका कोई न कोई कारण है? कारण है तो उसके निवारण के उपाय कहां हैं? रोजगार और आय बढ़ाकर महंगाई का त्रास घटाने का रास्ता क्योंकर बन्द या इतना संकराकर दिया गया है कि लोग उस पर चल ही नहीं पा रहे? क्यों सरकार को याद नहीं आता कि पिछले दिनों भूख व कुपोषण के वैश्विक सूचकांकों में देश की स्थिति पाकिस्तान, बांग्लादेश व श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों से भी बुरी नजर आयी थी? क्यों नहीं समझती वह कि टमाटर व आलू आदि के साथ खाद्य वस्तुओं की ताजा महंगाई आम आदमी की थाली में न्यूनतम पोषक तत्वों का संकट बढ़ाकर स्थिति को और खराब कर सकती है?

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ऐसे हालात में लोग सरकार के इस आश्वासन के भरोसे क्योंकर खुश या आश्वस्त रह सकते हैं कि आपूर्ति सामान्य होने पर सब्जियों व खाद्य वस्तुओं की कीमतें फिर सामान्य हो जायेंगी? वे तो यह भी समझ नहीं पा रहे कि एक ओर उत्पादक किसानों को वाजिब दाम नहीं मिल रहा तो दूसरी ओर उपभोक्ताओं को बाजारों में ऊंचे दामों पर सब्जियां व अनाज क्यों खरीदने पड़ रहे हैं? इस विडम्बना का लाभ कौन उठा रहा है? इस स्थिति से क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि बाजार का नियामक तंत्र अपने दायित्व निभाने में विफल हो रहा है? साथ ही आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव के बाद मुनाफाखोर व्यवसायी वर्ग द्वारा भरपूर जमाखोरी कर कृत्रिम अभाव और महंगाई पैदा की जा रही है?

यह निष्कर्ष सच्चा है तो जमाखोरों व मुनाफाखोरों पर कड़ी कार्रवाई के बगैर महंगाई कैसे घटेगी? और नहीं घटेगी तो क्या देश को उसकी बिनाह पर नये असंतोषों और उद्वेलनों का सामना नहीं करना पड़ेगा? टमाटर की चोरी और रखवाली से जुड़ी जो हैरतअंगेज ख़बरें आ रही हैं, क्या वे नये उद्वेलनों का संकेत नहीं हैं? जनकवि अदम गोंडवी तो बहुत पहले कह गये हैं: 

“सब्र की इक हद भी होती है, तवज्जो दीजिए, 

गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख्वान को?”

तवज्जो के बगैर लोग अपने दस्तरखान को बेहिस नारों से कब तलक गर्म रखेंगे भला? 

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कृष्ण प्रताप सिंह
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