हरिद्वार के 'अधर्म संसद' में न केवल 20 करोड़ मुसलमान निशाने पर थे, बल्कि संविधान ख़त्म करने की प्रतिज्ञा भी ली गयी I तथाकथित संतों और बीजेपी नेताओं ने संकल्प लिया कि संविधान ख़त्म करके ही दम लेंगेI 20 करोड़ मुसलमानों को ख़त्म करने की बात विवादों में आ गयी लेकिन संविधान ख़त्म करने की बात पर चर्चा आगे नहीं बढ़ सकी I आरएसएस के पितामह गुरु गोलवलकर ने राजनीतिक सम्प्रभुता को मान्यता नहीं दी थी और वे चाहते थे कि सांस्कृतिक सम्प्रभुता से देश चले। संविधान से देश चलता है तो प्रत्येक व्यक्ति के वोट का मूल्य बराबर होता है जो कथित सनातनियों को मंजूर नहीं, जब संविधान बनकर तैयार हुआ तो इसका विरोध संघ ने किया था, यह कहते हुए कि इसमें हिन्दू संस्कृति के लिए स्थान नहीं हैI 11 दिसम्बर 1949 को आरएसएस ने दिल्ली के रामलीला मैदान में सम्मेलन किया और सारे वक्ता संविधान और डा. आम्बेडकर की आलोचना करते रहे और दूसरे दिन मार्च निकाला तथा नेहरू जी और डा. आम्बेडकर का पुतला जलाया।
प्राचीन काल से ही सवर्ण और श्रमण विचारधारा का टकराव रहा हैI श्रमण परम्परा भारत में प्राचीन काल से जैन, आजीविक, चार्वाक तथा बौद्ध दर्शनों में पायी जाती है। ये ब्राह्मण धारा से बाहर मानी जाती है एवं इसे प्रायः नास्तिक दर्शन भी कहते हैं। भिक्षु या साधु को श्रमण कहते हैं, जो सर्वविरत कहलाता है। सबसे बड़ी क्रांति बुद्ध ने वैदिक संस्कृति के खिलाफ की थी I उस समय हिंसा, अंधविश्वास छुआछूत और जात-पात का बोलबाला था | बुद्ध ये सब देखकर दुखी हुए और निवारण हेतु सदा के लिए राजपाट त्याग दिया I एक लम्बे अरसे तक श्रमण संस्कृति ने स्थान बनाया I उस समय तमाम क्षेत्रों में खुशहाली और प्रगति हुई I शिक्षा के क्षेत्र में नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय इसी परम्परा की देन हैI वक्त बीतने के साथ श्रमण संस्कृति क्षीण होती गयी और 9वीं सदी तक अद्वैतवाद का तेजी से उभार हुआI बताय गया है कि अद्वैतवाद में संसार मिथ्या है और सत्य इन्सान की समझ से परे है। जो भी है इन्सान की इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता है। यह संसार परम सत्ता की परछाई है और सब कुछ पहले से निर्धारित है। मानव पूर्व निर्धारित नियम एवं व्यवस्था के अनुसार सांसारिक कृत्य कर रहा हैI
जाति व्यवस्था को इससे और मजबूती मिली, क्योंकि उसके जन्म के पहले ही सब कुछ निर्धारित हो चुका होता हैI इस मान्यता पर समाज और सत्ता चलाना आसान हो जाता है और शोषित भी अपने को समझा लेता है कि उसके साथ जो बर्ताव हो रहा है वह पूर्व निर्धारित कर्मों के कारण हैI अगर शुद्र है तो उसका वर्तमान जीवन पूर्वजन्म के पापों को धोने में व्यतीत होना चाहिए ताकि उसका अगला जीवन बेहतर हो सकेI इनके सांस्कृतिकवाद में जाति व्यवस्था को उचित माना जाता हैI भारतीय संविधान इसे निषेध करता है और वह प्रत्येक नागरिक को बराबर मानता हैIसबसे बड़ा दुष्प्रचार यह है कि आक्रान्ताओं के कारण इस्लाम भारत में आया, जो गलत हैI सबसे पहले इस्लाम 7वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में आया लेकिन दुष्प्रचार यह है की प्रथम आक्रान्ताओं – मोहम्मद बिन कासिम और गजनवी इस्लाम लेकर आए I सिंध का हिंदू राजा दाहिर मो. बिन कासिम से हारता है तो मात्र अपनी शक्ति से ही नहीं बल्कि उसको न्योता दिया गया था और युद्ध के समय खुफिया जानकारी हिन्दू समाज से ही दी गई थीI गजनवी का सेनापति हिन्दू था जिसका नाम तिलक था। गजनवी मंदिर तोड़ने नहीं आया था बल्कि धन लूटने आया था और वापस लौट गया। धर्मांतरण करना होता तो वापस क्यों जाता?अकबर का सेनापति राजपूत मानसिंह था।
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दक्षिण भारत में आक्रांता कभी पहुंचे नहीं तो इस्लाम की जड़ें वहां कैसे मजबूत हो गईं। वहां तो 7वीं सदी में इस्लाम फैल गया था।
इतिहास में श्रमण वर्ग को कभी स्थान नहीं मिला क्योंकि लिखने वाले ये नहीं थे। जाति व्यवस्था मूल कारण है आक्रांताओं के आने का। जब आज भी गांवों में जाति के हिसाब से टोले हैं तो उस समय क्या स्थिति रही होगी? यहां के शुद्र -अछूत को सेना में लिया नहीं जाता था। आक्रमणकारी इस कमजोरी का खूब फायदा उठाए। हिंदुत्ववादियों को अचानक क्यों प्रेम उमड़ जाता है, जब कोई इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाता हैI छुआछूत, भेदभाव, जातिवाद करते समय यह प्रेम कहाँ गायब हो जाता है? शासन-प्रशासन में जब भागीदारी की बात आती है, तो यह स्नेह क्यों नहीं दिखता है? हजारों वर्षों से दलित-पिछड़ों को जब आरक्षण मिलता है तो विरोध मुसलमान और ईसाई तो नहीं करते, कौन करता है, सभी को पता है I
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बलात्कार, घर जलाना, अलग-अलग जाति के आधार पर गाँव में मोहल्ले बनाना किसकी देन है?
क्या इसके लिए इस्लाम और ईसाइयत जिम्मेदार है? दलित और पिछड़े जब ईसाइयत और इस्लाम को अपनाते हैं, तभी क्यों संघ को दर्द होता हैI
शूद्र अगर हिन्दू नहीं रह गए तो इनकी सेवा कौन करेगा? और ये हुकूमत किसके ऊपर करेंगे ? मुसलमानों से नफरत करने का यही सबसे बड़ा निहित कारण है I
लगभग छह प्रतिशत ठाकुर उत्तर प्रदेश में हैं लेकिन 21 डीएम और 22 एसपी, एसएसपी हैं जो 28 प्रतिशत बनते हैं I 22 प्रतिशत ब्राह्मण डीएम हैं और सिर्फ 5 प्रतिशत ही अनुसूचित जाति और जनजाति से हैं , पिछड़े नहीं के बराबर। मुसलमानों से जब लड़ाना होता है तब दलित व पिछड़ों को हिन्दू बना लेते हैं और जब सत्ता और संसाधान में भागेदारी की बात हो तो कोई हिंदू नहीं, सिवाय जाति के।हिंदू -मुसलमान फसाद पैदा कराके बहुत दिनों तक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। इनके हसीन सपने कि 20 करोड़ मुसलमान संविधान को खत्म कर देंगे और मनुस्मृति फिर लागू होगी, भूल जाएं। श्रमण संस्कृति वाले बहुसंख्यक अब समझदार हो गए हैं। एक पूर्व मुख्यमंत्री के आवास को गंगाजल से पवित्र करने वाले कृत्य को अब बर्दाश्त नहीं किया जायेगा।
(लेखक पूर्व सांसद और असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस व अनुसूचित जाति / जनजाति परिसंघ के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं)
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