इतवार की अलसाई सुबह और दिन के अख़बार। देर तक अख़बार पढ़ना आज भी मुझे अच्छा लगता है। ऑनलाइन से ज़्यादा काग़ज़ के पन्ने मुझे अधिक आकर्षित करते हैं। संडे को वैसे मैं तवलीन सिंह का कॉलम सरसरी नज़र से ही देखता हूँ। पर इस बार उसकी हेडलाइन देख कर पूरा पढ़ गया। तवलीन सिंह अपने समय की तेज-तर्रार रिपोर्टर थीं। आज वरिष्ठ पत्रकार हैं। इंडियन एक्सप्रेस में उन्होंने लिखा, ‘हाउडी मोदी पर टीवी चैनल की कवरेज को देखकर मैं थोड़ा शर्मसार हुई।’ वह लिखती हैं, ‘जब मैंने यह जानने की कोशिश की कि आख़िर हाउडी की रिपोर्टिंग में इतना शर्मनाक हिस्टीरिया क्यों पैदा किया गया तो मुझे पता चला कि यह एक तरह की कोशिश थी, यह बताने की कि भारत के नेता को पाकिस्तान के नेता की तुलना में कितना अधिक सम्मान मिला।’
तवलीन सिंह को मोदी समर्थक पत्रकारों में ग़िना जाता है। लेकिन वह उन टीवी पत्रकारों में नहीं हैं जो दिन-रात मोदी पूजा में लगे रहते हैं। उनकी पीएम मोदी और उनकी सरकार को लेकर एक सोच है। और उन्हें लगता है कि मोदी देश के लिये कुछ बेहतर कर रहे हैं। इस वजह से उनके साथी पत्रकार उनकी आलोचना भी करते रहते हैं, लेकिन वह बदलती नहीं हैं। पर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि वह पूरी तरह से मोदी के रंग में रंगी रहती हैं।
तवलीन सिंह ने जो लिखा है, वह सच के बेहद क़रीब है। जब वह ‘पत्रकारिता की जगह प्रोपेगेंडा’ शब्द का इस्तेमाल करती हैं तो मैं उनसे सहमत हुए बग़ैर नहीं रह सकता। तवलीन को यह चिंता होती है कि ‘हाउडी मोदी’ के समय देश-दुनिया में इतना कुछ हो रहा था जिसकी रिपोर्टिंग अमेरिका गये भारतीय पत्रकार कर सकते थे पर वे पाकिस्तान से बाहर नहीं निकल पाये और उसमें भी एक ही नैरेटिव निकलता रहा कि पाकिस्तान एक गलीच मुल्क है और कैसे भारत ने उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मात दे दी है।
तवलीन का कॉलम दो मायनों में महत्वपूर्ण है। पहला, वह भारतीय टीवी पत्रकारिता के सरकार के प्रोपेगेंडावादी चेहरे को सामने रखता है। दूसरा, वह इस ओर भी इशारा करता है कि प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा की स्वतंत्र और निष्पक्ष विवेचना नहीं की गयी।
जहाँ पहला कॉलम 2014 के बाद से संविधान के तहत मिले प्रेस की स्वतंत्रता में लगातार होते अवमूल्यन की ओर इशारा करता है, वहीं वह यह भी संकेत देता है कि शायद मौजूदा टीवी पत्रकारिता विवेकपूर्ण और तार्किक विश्लेषण करने की क्षमता भी खो चुकी है। इसलिये नहीं कि वह सरकार की तारीफ़ करने में लगी है, शायद इसलिये कि उसके पास वह मेधा ही नहीं बची है जो विदेशनीति और राजनय जैसे गूढ़ विषय की मीमांसा कर सके। यह ज़्यादा बड़ा संकट है।
यहाँ सवाल इस बात का नहीं है कि कश्मीर के मसले पर टीवी पत्रकारों के राष्ट्रवादी तेवर क्यों हैं, सवाल इस बात का है कि टीवी पर दिखने वाले ज्य़ादा चेहरों को इन विषयों की समझ है भी या नहीं?
पाँच अगस्त के बाद देश ने आधिकारिक रूप से एक नये युग में प्रवेश किया है। इस युग की शुरुआत तो काफ़ी पहले हो गयी थी। पर उसको अमलीजामा अब पहनाया गया है। इस युग में कश्मीर पर किसी तरह की सरकार से अलग राय रखने का अर्थ है फ़ौरन देश के ग़द्दार या देशद्रोही घोषित हो जाना। जान से मारने की धमकी मिलना।
सरकार की हो 'सीमित आलोचना'
मैंने सरकारों की तीख़ी से तीख़ी आलोचना की है पर पहली बार डिबेट में बोलने की वजह से जान से मारने की धमकी मिली। केसी त्यागी जैसे समाजवादी नेता सलाह देते मिले कि सरकार की 'सीमित आलोचना' की जानी चाहिये। मुझे उन्हें एक टीवी डिबेट में यह बताना पड़ा कि संविधान मुझे सरकार या प्रधानमंत्री की असीमित आलोचना का अधिकार देता है। यह अधिकार तब तक है जब तक मैं भाषा की शालीनता नहीं लाँघता, या माँ-बहन की गालियाँ नहीं देता। जब त्यागी जैसे लोग यह बोलने लगते हैं तो सवाल यह खड़ा होता है कि क्या वाक़ई में राष्ट्रवाद की खुराक इतनी ज़बर्दस्त है कि समाज के एक नागरिक होने के नाते हम मुद्दों की नैतिक विवेचना करने का संवैधानिक दायित्व भी भूल गये हैं।
कश्मीर का मुद्दा भारतीय लोकतंत्र और इसके संवैधानिक विवेक का टेस्ट केस है। यहाँ सवाल इस बात का नहीं है कि मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटाने का उपक्रम किया। या फिर एक पूर्ण राज्य को दो हिस्सों में बाँट कर केंद्र शासित राज्य बना दिया। सवाल इस बात का है कि यह कैसे किया गया? क्या जो किया गया वह भारत की लोकतांत्रिक परंपरा के अनुसार हुआ?
हमारे संविधान निर्माताओं को इस बात का इल्म था कि कार्यपालिका यानी सरकारें निरंकुश हो सकती हैं। इसलिये ‘शक्तियों की पृथकता’ का सिद्धांत अपना कर संविधान को इस तरह रचा गया कि किसी भी संस्थान के पास असीमित अधिकार न हों।
राज्य व्यवस्था का इस तरह निर्माण किया गया कि कोई एक संस्थान निरकुंश होकर मनमानी न कर सके। सबसे ज़्यादा निरंकुश होने का ख़तरा कार्यपालिका से होता है। इसके पास सरकार और दूसरे संस्थानों पर नियंत्रण करने के बेहिसाब अधिकार होते हैं। और अगर सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए व्यक्ति इंदिरा गाँधी और नरेंद्र मोदी हों, जो अति केंद्रवादी सत्ता में यक़ीन रखते हैं तो यह ख़तरा और बढ़ जाता है। इसलिये स्वतंत्र न्यायपालिका और मीडिया, बहुदलीय व्यवस्था और संसद का गठन किया गया।
नौकरशाही को न्यूट्रल रखा गया, कैग और चुनाव आयोग को सरकार के चंगुल से बाहर किया गया। यहां तक कि विश्वविद्यालयों और रिज़र्व बैंक को भी स्वायत्तता दी गयी है। मानवाधिकार आयोग बनाया गया है। लेकिन कश्मीर मुद्दे ने यह साबित कर दिया है संविधान के ये सारे नैतिक पहलू दरअसल असहाय हो चुके हैं। बेबस और मूक दर्शक। या तो ये अपना कर्तव्य भूल चुके हैं या फिर विचारधारा के मोहपाश ने इन्हें इतना जकड़ लिया है कि वे स्वतंत्र चिंतन भूल बैठे हैं।
हक़ीक़त तो यह है कि जिस तरह से अनुच्छेद 370 को बदलने का अनुक्रम किया गया वह पूरी प्रक्रिया ही असंवैधानिक है। पर संसद के दोनों सदनों ने उसे पास कर दिया। राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं है पर कोई दिक्कत नहीं आयी। सब राष्ट्रवाद के प्रताप में डूबते-उतराते रहे। विपक्षी दल यही नहीं तय कर पाये कि विरोध किया जाये या नहीं?
विरोध करते हैं तो डर यह था कि कहीं कश्मीर के बाहर बहुसंख्यक जनता नाराज़ न हो जाये। दूसरा, उनकी यह समझ में नहीं आ रहा था कि सरकार के कृत्य की आलोचना या विरोध करना देशद्रोह तो नहीं होगा। इस मायने में मानना पड़ेगा कि मोदी सरकार ने अच्छा चक्रव्यूह रचा। वोटबैंक की राजनीति देशहित पर भारी पड़ी। इस मसले का स्वतंत्र विवेचन विपक्ष ने किया ही नहीं।
कश्मीर में पाबंदी लगाये हुए दो महीने होने को हैं। पर विपक्ष लुंज-पुंज पड़ा है। निर्वीर्य। मोदी सही कहते हैं कि तमाम राजनीतिक दलों पर नामदारों का क़ब्ज़ा है।
डरपोक लोगों का झुंड बना विपक्ष
बिना किसी संघर्ष के सत्ता पाने वाले इन लोगों के अंदर सत्ता से संघर्ष करने की न तो इच्छा है और न ही माद्दा। विपक्ष डरपोक लोगों का एक झुंड बन गया है। जहाँ सब अपने को बचाने में लगे हैं। जनता को बेवक़ूफ़ बनाने वालों का जमघट। आज जब सत्ता से टकराने का वक़्त है तो ये अपने एयरकंडीशन्ड घरों में दुबके पड़े हैं। इस बात से डरे सहमे कि न जाने कब सीबीआई, ईडी और आयकर के अधिकारी आ कर उन्हें हथकड़ी लगा देंगे। राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे लोगों को यह डर नहीं था। वह जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से भिड़ने का जज़्बा रखते थे, बिना डरे कि इसकी परिणति जेल होगी।आज लोकतंत्र को सबसे बड़ा ख़तरा इस डरपोक विपक्ष से है। कश्मीर की जनता त्रस्त है। वह अपने को अकेला महसूस कर रही है। उसके अंदर आक्रोश बढ़ता जा रहा है। उसे या तो विपक्ष से उम्मीद थी या न्यायपालिका से लेकिन आज वह निराश है। यह निराशा कश्मीर को बारूद के ढेर पर खड़ा कर देती है।
1947 के बाद अगर कश्मीर कश्मीरियों के लिये अस्मिता का प्रश्न था तो 5 अगस्त के बाद से यह उनके जीवन-मरण का सवाल हो गया है। उनके आक्रोश को कम किया जा सकता था अगर विपक्ष को अपनी ज़िम्मेदारी का बोध होता और न्यायपालिका ज़्यादा अलर्ट होती तो।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर की चर्चा
कश्मीर पर चर्चा आज देश से ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हो रही है। हम भले ही यह मुग़ालता पाल लें कि मोदी की अमेरिका यात्रा ने भारत का क़द बढ़ा दिया है और पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया है लेकिन हक़ीक़त इसके उलट है। यह तो नहीं मालूम कि मोदी का क़द कितना बढ़ा है पर इतना ज़रूर पता है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की जो एक लोकतांत्रिक मुल्क की छवि थी, उस पर गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं।
भारत के बारे में यह मशहूर था कि अपनी कमियों और ख़ामियों के बावजूद वह तमाम विविधताओं के बीच संतुलन बना कर चलता है। कश्मीर ने यह संकेत दिया है कि यह संतुलन अब टूट रहा है। भारत एक बहुसंख्यक देश में तब्दील हो रहा है, जहाँ अल्पसंख्यकों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होगा। और अगर ऐसा हुआ तो फिर पाकिस्तान और मध्य-पूर्व एशिया के देशों और भारत में क्या फ़र्क़ रह जायेगा? अधिनायकवाद और लोकतंत्र के बीच का अंतर मिट जायेगा।
विडंबना यह है कि जहाँ लोकतंत्र सुरक्षित नहीं है, वे देश अब भारत को लोकतंत्र पर नैतिक ज्ञान दे रहे हैं।
तुर्की के शासक अर्दवान को ‘कश्मीर में मानवाधिकार का हनन हो रहा है', यह चिन्ता सता रही है तो मलेशिया के महातिर मोहम्मद कह रहे हैं कि कश्मीर एक स्वतंत्र देश है और भारत ने उस पर हमला कर क़ब्ज़ा कर लिया है। 57 मुसलिम देशों के संगठन आर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कंट्रीज ने प्रस्ताव पास कर कहा है, ‘भारत 370 फ़ौरन बहाल करे, मानवाधिकार का उल्लंघन ख़त्म करे और सैनिकों को वापस बुलाये।’
ट्रंप से मोदी की गलबहियाँ होने पर पूरा देश झूम उठा था पर वही ट्रंप और उसकी सरकार कह रही है कि ‘भारत पाकिस्तान से बातचीत कर समाधान खोजे और कश्मीर के लोगों को दिये वायदों के अनुसार उनका जीवन सुधारे।’ ट्रंप इमरान ख़ान को एक ‘महान नेता’ बता रहे हैं। इन प्रतिक्रियाओं पर देश के टीवी चैनलों पर चर्चा नहीं है।
यह बयान दो बातों के सबूत हैं। पहली, कश्मीर का अंतरराष्ट्रीयकरण हो रहा है। हम भले ही कहते रहें कि यह हमारा अंदरूनी मसला है। दूसरी, कश्मीर पर अंतरराष्ट्रीय विमर्श में एक बुनियादी बदलाव देखने में आ रहा था। 5 अगस्त के पहले कश्मीर पर तर्क था कि पाकिस्तान आतंकवाद और अलगाववाद को बढ़ावा देता है, अब तर्क है कि भारत ने अस्सी लाख लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन कर पाबंदी लगा रखी है।
पहले पाकिस्तान की ढेरों कोशिश के बाद भी मुसलिम देश कमोबेश भारत के साथ रहते थे। इसका एक बड़ा कारण था फिलीस्तीन पर भारत का सहानुभूतिपूर्वक रुख़। आज इस समझ में दरार साफ़ दिख रही है। भारत ट्रंप और इजराइल के बेंजामिन नेतन्याहू के साथ दिख रहा है, ये वे नेता हैं जिनकी छवि धार्मिक कट्टरवादी और नस्लवादी नेता की है।
मोदी सरकार इस पूरे विमर्श को बदल सकती है, अगर वह कश्मीर से पाबंदियों को फ़ौरन हटा दे और राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करे। यह रास्ता बहुत मुश्किल नहीं है। हो सकता है कि थोड़ी बहुत हिंसा हो। पर अगर ये पाबंदियाँ ऐसे ही जारी रहीं तो फिर भारत की बरसों से बनायी गई इमेज को गहरे आघात लगेंगे।
यह बात समझने के लिये हमें इतवार को किसी तवलीन सिंह का कॉलम पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। न ही टीवी डिबेट को देखने की। बस, विचारधारा का चश्मा उतारना होगा, व्यक्तिवादी राजनीति के स्वप्न लोक से बाहर आना होगा और टीवी एंकरों को थोड़ा पढ़ना-लिखना होगा।
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