अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान संगठन ने भारत के प्रति अपने रवैए में एकदम परिवर्तन कर दिया है। पाकिस्तान के लिए तो यह एक बड़ा धक्का है लेकिन यह रवैया हमारे विदेश मंत्रालय के सामने भी बड़ी दुविधा खड़ी कर देगा। अब से पहले तालिबान जब भी जिहाद का आह्वान करते थे, वे कश्मीर का उल्लेख ऐसे करते थे, जैसे कि वह भारत का अंग ही नहीं है। वे कश्मीर को हिंसा और आतंकवाद के ज़रिए भारत से अलग करने की भी वकालत किया करते थे। लेकिन अब तालिबान के दोहा में स्थित केंद्रीय कार्यालय के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने बाक़ायदा एक बयान जारी करके कहा है कि कश्मीर भारत का आतंरिक मामला है और हमारी नीति यह है कि हम अन्य देशों के मामले में कोई दखल नहीं देते हैं।
तालिबान के उप-नेता शेर मुहम्मद अब्बास स्थानकजई ने शिकायत की थी कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत अब भी निषेधात्मक भूमिका निभा रहा है। वह तालिबान के साथ सहयोग करने की बजाय अशरफ गनी और अब्दुल्ला की कठपुतली सरकार के साथ सहयोग कर रहा है। तालिबान नेताओं को आश्चर्य है कि जब अमेरिका उनसे सीधे संपर्क में है तो भारत सरकार ने उनका बहिष्कार क्यों कर रखा है?
यह सवाल अभी से नहीं, जब 20-25 साल पहले तालिबान सक्रिय हुए थे, तभी से उठ रहा था। अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में जब तालिबान काबुल में सत्तारुढ़ हुए तो उन्होंने मुझसे सीधा संपर्क करके उनकी सरकार को भारत से मान्यता दिलवाने का आग्रह किया था। तालिबान सरकार के प्रतिनिधि मुझसे न्यूयॉर्क, लंदन, काबुल और पेशावर में गुपचुप मिलते रहते भी थे। लेकिन उन दिनों तालिबान और पाकिस्तान के रिश्ते इतने अधिक घनिष्ठ थे कि भारत द्वारा उनको मान्यता देना भारत के हित में नहीं होता।
लेकिन इस समय स्थिति बदली हुई है। सबसे पहले मेरी अपनी मान्यता है कि तालिबान संगठन गिलज़ई पठानों का है। ये स्वभाव से स्वतंत्र और सार्वभौम होते हैं। पाकिस्तान तो क्या, अंग्रेज़ भी इन पर अपना रुतबा कायम नहीं कर सके। अब ये दोहा (कतर) से अपना दफ्तर चला रहे हैं, पेशावर से नहीं। और अमेरिका इनसे काबुल सरकार की बराबरी का व्यवहार कर रहा है। आधे अफ़ग़ानिस्तान पर उनका क़ब्ज़ा है।
यह ठीक है कि अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान सरकार से भारत के संबंध अति उत्तम हैं (राष्ट्रपति अशरफ गनी और डाॅ. अब्दुल्ला मेरे व्यक्तिगत मित्र भी हैं), इसके बावजूद मेरी राय है कि तालिबान के लिए अपनी खिड़की खुली रखना भारत के लिए ज़रूरी है। अमेरिकी वापसी के बाद काबुल में जिसकी भी सत्ता कायम होगी, उसके साथ भारत के संबंध अच्छे होने चाहिए। यह कितने दुख और आश्चर्य की बात है कि अफ़ग़ानिस्तान भारत का पड़ोसी है और उसके भविष्य के निर्णय करने का काम अमेरिका कर रहा है? भारत की कोई राजनीतिक भूमिका ही नहीं है।
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