दुनिया के नक़्शे पर एक बार फिर से तालिबान का ख़तरा मँडराने लगा है। वह फिर से शक्तिशाली हो रहा है I उसे अपने आप को नये सिरे से संगठित करने का अच्छा मौक़ा मिल गया। यह उस समय हो रहा है जब दुनिया के बड़े देश अफ़ग़ानिस्तान को अपने प्रभाव में लेने के लिये सक्रिय हो रहे हैं। रूस मॉस्को में एक सम्मलेन कर रहा है। अमेरिका इस इलाक़े में बातचीत के लिए समर्थन जुटाने में लगा है। वह कैलिफ़ोर्निया में एक सम्मलेन भी कर चुका है। अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी शांति वार्ता के लिये जेनेवा गये थे और भविष्य की योजना पर चर्चा भी की थी। अपनी तरफ़ से उन्होंने एक रोडमैप भी रखा। फ़िलहाल तालिबान उनसे बात करने को तैयार नहीं है। तालिबान का मानना है कि इस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान पूरी तरह से अमेरिका के कब्ज़े में है। और अगर उन्हें बात ही करनी होगी तो वह अमेरिका से करेगा, उनके कठपुतली से वह क्यों करे बात? कैलिफ़ोर्निया सम्मेलन के बाद ग़ज़नी शहर को तालिबानियों ने रौंद डाला। कुंदूज़ और फराह शहर पहले से ही तालिबान के कब्ज़े में है।
यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में क्यों असफल रहा? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अमेरिकी सेना अफ़ग़ानिस्तान में देर से पहुँची। और जो पहुँची भी वह काफ़ी कम थी। अमेरिका सिर्फ़ एक ब्रिगेड ही अफ़ग़ानिस्तान भेज पाया। रात्रि हवाई हमलों और आक्रमणों का कोई फ़ायदा नहीं हुआI सच्चाई यह है कि अमेरिका ने कभी गंभीरता से अफ़ग़ानिस्तान की सेना के नव-निर्माण की कोशिश नहीं की। उधर, नाटो देशों ने सिर्फ़ दिखावे के लिए ही अपनी सेनाएँ भेजीं। अमेरिकी सेना के अफ़ग़ानिस्तान आने का एक ग़लत असर यह भी हुआ कि वहाँ के लोग यह समझने लगे हैं कि अमरेकी वहाँ तालिबान को हराने के लिए नहीं, बल्कि उनके देश पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए आए हैं। अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की आशंका इस बात से भी पुष्ट हुई कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान के प्रशासनिक ढाँचे को मज़बूत नहीं कर पाया। वह सिर्फ़ शहरों को ही बचाने में लगा रहा। जबकि तालिबान गाँवों में काफ़ी मज़बूत है और वहाँ अमेरिका जाने से झिझकता रहा।
अफ़ग़ानिस्तान के पास ताक़त नहीं
अफ़ग़ानिस्तानी सेना के पास न हौसला है और न ही ताक़त कि वह तालिबान का मुक़ाबला कर सके। उनकी फ़ौज तालिबानियों को देख कर अपने मोर्चे छोड़ कर भाग रही है। क़रीब पचास से ऊपर अफ़ग़ानिस्तानी सैनिक प्रतिदिन तालिबानियों के हाथों मारे जा रहे हैं। तालिबान अपनी पुरानी रणनीति पर काम कर रही है। वह देख-बूझ कर अलग-थलग पड़े फ़ौजी मोर्चों पर अफ़ग़ानिस्तानी सैनिकों को घेर लेती है। फिर बड़ी बेदर्दी से उसे तहस-नहस करती है। पुलिस थानों को उड़ाना उसके लिए बहुत आसान है। आत्मघाती हमलों ने अफ़ग़ानिस्तानी सुरक्षा बलों की नाक में दम कर रखा है। हालाँकि स्थानीय लोगों को अपने पक्ष में करने के लिए तालिबान पुरानी ग़लतियाँ नहीं दोहरा रहा है।
अब तालिबान लड़कियों के पढ़ने पर रोक नहीं लगा रहा। सार्वजनिक रूप से मृत्युदंड भी नहीं दे रहा है। वह यह भी ख़्याल रख रहा है कि उसके हमले में आम लोगों के जान माल का भी कम से कम नुक़सान हो। इस वजह से उसे कुछ जनसमर्थन भी मिलता दिख रहा है।
क्यों बढ़ रही है तालिबान की ताक़त?
तालिबान की बढ़ती ताक़त के कई कारण हैं। अफ़ग़ानिस्तानी फ़ौजी ताक़त काफ़ी कम है। ऊपर से लोग सरकार की अमेरिकी नीति से ख़ुश नहीं हैं। उसकी विश्वसनीयता इस कारण से लगातार कम होती जा रही है। एक अजब बात यह भी सरकार के ख़िलाफ़ जा रही है कि राष्ट्रपति ग़नी ने एक ईसाई महिला से शादी की है। आम अफ़ग़ानिस्तानी इसको सही नहीं मानते और उन्हें अमेरिकी पिट्ठू समझते हैं। दूसरे, अमरिकी सेना सिर्फ़ हवाई हमले ही कर रही है। इन हमलों में स्थानीय लोगों की ही जानें ज़्यादा जा रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार इस साल क़रीब 313 लोग हवाई हमलों में मारे गए और 336 जख्मी हुए हैं। ये आँकड़े काफी हैं और इस वजह से लोगों में काफ़ी आक्रोश है।
रूस क्यों लगा है बीच-बचाव में?
रूस ने अफ़ग़ान सरकार और तालिबान के बीच बीच-बचाव की कोशिश भी की। मॉस्को में दोनों के बीच एक सम्मलेन भी करवायाI पर तालिबान को रूस पर भी शक है कि वह तालिबान को शांत कर आईएसआईएस पर और हमले कर सीरिया पर अपना वर्चस्व बनाना चाहता है। रूस ने पहले कहा कि उनका और तालिबान का एक ही मक़सद है, और वह है आईएसआईएस को हराना।- तालिबान भी खोरासन प्रदेश में आईएसआईएस के कब्जे को हटाना चाहता है I यहाँ पर दोनों के विचार मिलते हैं पर जब उसे यह पता चला कि रूस अफ़ग़ानिस्तान की सेना को 10000 नए स्वचालित राइफ़ल भी दे रहा है तो वह भड़क उठा। उसे लगा कि रूस दोगली नीति पर चल रहा है।
भारत की नीति स्पष्ट क्यों नहीं?
इस पूरे मामले में अभी भारत की नीति स्पष्ट नहीं है। भारत अफ़ग़ानिस्तान में शांति का समर्थक है। भारत की अमेरिकी नीतियों पर पूरी निर्भरता उसे कोई स्वतंत्र नीति बनाने नहीं देती। ठीक वैसे ही जैसे 1980 के दशक में भारत की अफ़ग़ान नीति पूरी तरह से सोवियत संघ पर निर्भर थी। भारत की दिक़्क़त यह है कि वह शुरू से तालिबान के ख़तरे को ठीक से समझ नहीं पाया। इसी कारण भारत समय रहते अफ़ग़ानिस्तान में कोई सार्थक भूमिका नहीं निभा पाया।
- भारत की सिर्फ़ एक ही कोशिश है कि वह किसी भी तरह से पकिस्तान की भूमिका अफ़ग़ानिस्तान में कम से कम कर सके और शांतिवार्ता में उसकी दखलदांजी न हो। उधर पाकिस्तान पूरी तरह से तालिबान की मदद कर रहा है।
तालिबान कभी नहीं होगा ख़त्म?
अब यह बात धीरे-धीरे सब की समझ में आ गई है कि तालिबान को ख़त्म नहीं किया जा सकता। भारत को अफ़ग़ानिस्तान में अपनी भूमिका बनाए रखने के लिए तालिबान से भी बात करने के लिए तैयार होना होगा। अब सबकी यही कोशिश है कि अफ़ग़ान सरकार और तालिबान के बीच कोई समझौता हो जाए तो बेहतर होगा। इसमें भारत को भी अपनी एक भूमिका तलाश करनी होगी। उदारवादी तालिबान को चिन्हित किया जाए और उनको बड़ी जिम्मेदारी देने के लिए दोनों पक्षों को राज़ी किया जाए तभी अफ़ग़ानिस्तान का भला होगा और इलाक़े में शांति हो सकती है। पर फ़िलहाल अभी ऐसा होता लगता नहीं है।
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