सफलता क्या है? सफलता ही वह पैमाना है, वह स्केल है, वह मापदंड है जिसके आधार पर समाज व्यक्ति के महत्व को आँकता है, उसके मूल्य का निर्धारण करता है। पर समाज क्या है? समाज वह आईना है जिसमें व्यक्ति अपनी झलक देखता है और अपने को पहचानने की कोशिश करता है। कहा जा सकता है कि व्यक्ति सीधे-सीधे या प्रत्यक्ष रूप से अपने आप से मुलाक़ात नहीं करता। बल्कि वह प्रायः समाज की मध्यस्थता के ज़रिये ही अपने आप से मिलता है।
अपनी झलक पाने और अपने को पहचानने के लिए समाज की ओर देखने की बाध्यता या आदत के कारण व्यक्ति अपने रूप, गुण, प्रतिभा, ज्ञान, विशिष्टता, श्रेष्ठता आदि की सामाजिक स्वीकृति चाहता है। सामाजिक स्वीकृति से ही वह अपने प्रति और अपने आप में विश्वास व आश्वस्ति पाता है। इसी कारण से व्यक्ति समाज के सामने याचक के समान हाथ जोड़े खड़ा रहता है या प्रार्थना करता रहता है या गिड़गिड़ाता रहता है - सामाजिक स्वीकृति के लिए। समाज अपनी स्वीकृति अपने पैमानों पर खरा उतरने पर ही देता है। जिन-जिन पैमानों पर समाज व्यक्ति को अपनी स्वीकृति प्रदान करता है- वे पैमाने ही सफलता का निर्धारण करते हैं। चूँकि अलग- अलग समाजों के पैमाने भी अलग-अलग होते हैं इसलिए अलग-अलग समाजों में सफलताओं का स्वरूप और अर्थ भी अलग- अलग होता है। फिर यह भी सच है कि एक समाज के भीतर भी समय के साथ-साथ पैमाने बदलते रहते हैं। इसलिए एक ही समाज में सफलता का अर्थ भी समय के साथ बदलता जाता है। तो इस तरह से हम देख सकते हैं कि सफलताएँ समाज - सापेक्ष और समय - सापेक्ष होती हैं।
चूँकि उपलब्धियाँ और सफलताएँ समाज - सापेक्ष और काल - सापेक्ष होती हैं, इसलिए किसी विशेष समय में किसी समाज में सफलताओं और उपलब्धियों के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं से उस समाज की दिशा, दशा और प्रकृति व स्वभाव का पता लगाया जा सकता है। उस समाज में व्याप्त शक्ति - संरचना, सामाजिक - आर्थिक असमानताओं, वंचनाओं और सांस्कृतिक विकास के स्तर आदि जैसी बातों को समझा जा सकता है।
तो, मैं कह रहा था कि हम सभी समाज रूपी आईने में अपनी सफल, समृद्ध, प्रतिभा-युक्त, श्रेष्ठ, सुंदर छवि देखना चाहते हैं।
लेकिन सफल कौन - जिसे समाज सफल माने। सुंदर कौन - जिसे समाज सुंदर माने। प्रतिभा से युक्त कौन - जिसे समाज प्रतिभाशाली माने। श्रेष्ठ कौन - जिसे समाज श्रेष्ठ माने।
ध्यान दीजिए, मैंने कहा - बनना और दिखना। बस, बनना ज़रूरी नहीं, दिखना भी ज़रूरी है। चूँकि, समाज बहुधा व्यक्ति से सतह पर ही interact करता (रूबरू होता) है, इसलिये, कई बार तो बनने या होने से ज़्यादा दिखना या लगना ज़रूरी होता है। हम अक्सर सुनते रहते हैं-अमुक व्यक्ति अफ़सर तो है, लेकिन लगता नहीं है अफ़सर जैसा। नेता तो है लेकिन लगता नहीं है नेता जैसा आदि आदि। हम यह भी सुनते रहते हैं कि - तुम अफ़सर नहीं हो, लेकिन लगते एकदम अफ़सर जैसे हो, हीरो नहीं हो, लेकिन दिखते हीरो जैसे हो। और, ऐसी टिप्पणी सुनकर लोग ख़ुश भी हो जाते हैं। इसलिए, कई बार जब व्यक्ति वास्तव में बन नहीं पाता, तो फिर भी दिखने की कोशिश करता रहता है।
समाज बहुधा व्यक्ति से सतह पर ही interact करता (रूबरू होता) है। इसलिए दिखने का महत्व है। और दिखावे की प्रवृत्ति सम्भवतः 'दिखने' के इसी महत्व से पैदा होती है।
कुछ 'बनना' तो सुदीर्घ और श्रमसाध्य प्रक्रिया है। लेकिन कुछ 'दिखना' शॉर्ट-कट का मामला है। शॉर्ट-कट होने के कारण अधिक संख्या में लोग 'दिखना' afford कर (चुन) पाते हैं। इसलिए व्यक्ति हीरो भले ही बन नहीं पाता पर दिखना चाहता है। नेता नहीं होता पर दिखना चाहता है। कला-साधक नहीं होता पर दिखना चाहता है। कवि-लेखक नहीं होता पर दिखना चाहता है। अमीर नहीं होता पर दिखना चाहता है। इस पूरी प्रक्रिया में व्यक्ति एक बहरूपिया भर बन कर रह जाता है। वह स्वयं अपने हृदय में जानता है कि वह इन सबमें से कुछ नहीं है, पर दिखना चाहता है। 'होना' और 'दिखना' के इसी कश्मकश से व्यक्ति में अप्रामाणिकता उत्पन्न होती है -
‘दो सत्य
दो संकल्प
दो आस्थायें
व्यक्ति में ही
एक अप्रामाणिक व्यक्ति पैदा हो रहा है।’
इस प्रकार अपनी झलक पाने और अपने को पहचानने के लिए समाज की ओर देखने की मजबूरी व्यक्ति को समाज की सामाजिक संरचनाओं, समीकरणों, मान्यताओं, धारणाओं, विश्वासों, नियमों और क़ानूनों की बेड़ियों में बांध देती है। इसी प्रक्रिया के ज़रिये समाज व्यक्तियों को नियमित करके अपने साँचे में ढालता रहता है।
दरअसल,
समाज को साँचों से प्यार है, व्यक्तियों से नहीं।
क्योंकि समाज साँचों में बसता है, व्यक्तियों में नहीं।
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