महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की मौत का रहस्य एक बार फिर चर्चा में है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित किए गए जस्टिस विष्णु सहाय जाँच आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है। इस रिपोर्ट का कहना है कि फ़ैज़ाबाद के गुमनामी बाबा नेताजी सुभाष चंद्र बोस नहीं थे। इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया है। योगी आदित्यनाथ की सरकार ने रिपोर्ट को विधानसभा की पटल पर रखने का फ़ैसला कर लिया है।
अब यह साबित हो चुका है कि 18 अगस्त 1945 को जापान के तोहोकू एयरपोर्ट पर एक विमान दुर्घटना में सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हो गयी थी। कई जाँच कमेटी और आयोग, स्वतंत्र जाँचकर्ता और कई देशों के जाँच अधिकारी सुभाष चंद्र बोस की मौत की पुष्टि कर चुके हैं। लेकिन नेताजी के समर्थक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि नेताजी की मृत्यु हो चुकी है। इनमें से कई लोगों का दावा है कि नेताजी ज़िंदा हैं। वह गुमनामी की ज़िंदगी जी रहे हैं और एक दिन प्रकट ज़रूर होंगे। फ़ैज़ाबाद के गुमनामी बाबा के बारे में भी यह किवदंती प्रचलित थी कि दरअसल वह नेताजी ही थे और भेष बदलकर रह रहे थे। गुमनामी बाबा के निधन के बाद उनके पास से कई ऐसी तसवीरें बरामद हुईं जिनके आधार पर कुछ लोग यह दावा करते नहीं थकते कि वह नेताजी ही थे। बात बढ़ी तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस विष्णु सहाय की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग का गठन किया गया कि वह जाँच करे कि गुमनामी बाबा सुभाष चंद्र बोस थे या नहीं।
नेताजी की मौत हमेशा से ही रहस्य के घेरे में बनी रही है। कुछ लोग यह पूछते हैं कि अगर वह ज़िंदा होते तो उन्हें भेष बदलकर या कहीं छुपकर रहने की क्या ज़रूरत थी, वह ज़रूर जनता के सामने आते। लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि किसी बेहद ज़रूरी कारण की वजह से सुभाष चंद्र बोस सामने नहीं आ रहे हैं। अब तक नेताजी की मौत के बारे में भारत सरकार द्वारा बनाई गई शाहनवाज़ कमेटी, जस्टिस जी. डी. खोसला आयोग के साथ-साथ ब्रिटेन की सेना, जापान सरकार और द्वितीय विश्व युद्ध के समय की एलाइड फ़ौज जाँच कर चुके हैं। ये सभी इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि 18 अगस्त 1945 को उनकी मौत हो गई थी।
जस्टिस मुखर्जी कमेटी का दावा अलग
लेकिन 1999 में वाजपेयी सरकार के समय बनी जस्टिस मनोज मुखर्जी कमेटी ने यह मानने से मना कर दिया कि नेताजी की मौत हवाई दुर्घटना में हुई। जस्टिस मुखर्जी कमेटी यह भी कहती है कि तोहोकू एयरपोर्ट पर न तो कोई विमान हादसा हुआ था और न ही टोक्यो के पास रेनकोझी मंदिर में नेताजी की अस्थियाँ हैं। नेताजी के परिवार वाले भी दावा करते हैं कि इनकी मौत हवाई दुर्घटना में नहीं हुई। जबकि 50 के दशक में भारत सरकार द्वारा गठित शाहनवाज ख़ान कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ तौर पर कहा है-
- 18 अगस्त 1945 को हवाई दुर्घटना हुई थी,
- सुभाष चंद्र बोस की मौत हुई थी,
- अगले दिन उनका अंतिम संस्कार किया गया था,
- रेनकोझी मंदिर में उनकी अस्थियाँ रखी गई थीं।
शाहनवाज कमेटी में तीन सदस्य थे। इस कमेटी में शाहनवाज़ ख़ान के अलावा सुभाष चंद्र के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस और एस. एन. मैत्र शामिल थे। इस कमेटी ने 67 गवाहों से बात की, 11 प्रत्यक्षदर्शियों के बयान लिए और दुर्घटनाग्रस्त विमान में सुभाष चंद्र बोस के साथ सवार 6 में से 5 सहयात्रियों से पूछताछ की। दिलचस्प बात यह है कि 2 जुलाई 1956 को जब इस कमेटी ने अपनी ड्राफ़्ट रिपोर्ट पर दस्तख़त किए तो इसमें सुरेश चंद्र बोस भी शामिल थे। यानी वह कमेटी के इस निष्कर्ष से सहमत थे कि नेताजी की मौत हो चुकी है। जब 3 अगस्त 1956 को कमेटी ने अपनी अंतिम रिपोर्ट संसद को सौंपी तब सुरेश चंद्र बोस ने रिपोर्ट पर दस्तख़त करने से मना कर दिया।
सुरेश चंद्र बोस ने 9 अक्टूबर 1956 को अपनी एक अलग रिपोर्ट सौंपी जिसमें उन्होंने साफ़ तौर पर लिखा कि न तो कोई विमान दुर्घटना हुई और न ही सुभाष चंद्र बोस की मौत हुई।
सुभाष चंद्र बोस के भाई सुरेश चंद्र बोस की रिपोर्ट से अटकलों और अफ़वाहों को काफ़ी बल मिला। फ़रवरी 1966 में सुरेश बोस ने यहाँ तक एलान कर दिया था कि मार्च के महीने में नेताजी ख़ुद अवतरित होंगे। जो कभी हुआ ही नहीं।
शाहनवाज़ रिपोर्ट के बाद 1970 में भारत सरकार ने जस्टिस जी डी खोसला के नेतृत्व में एक जाँच आयोग बनाया। आयोग ने कुल 224 गवाहों से पूछताछ की और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नेताजी की मौत हवाई दुर्घटना में ही हुई थी। लेकिन खोसला आयोग के सामने कुछ ऐसे लोग भी पेश हुए थे जिन्होंने दावा किया कि वे नेताजी से मिल चुके हैं। जैसे, एक सांसद ने दावा किया था कि मारशेयी एयरपोर्ट पर 1946 में वह सुभाष चंद्र से मिले थे। एक अन्य सांसद का दावा था कि नेताजी सोवियत संघ के साइबेरिया की एक जेल की 45 नंबर सेल में बंद हैं। नेताजी के एक समर्थक ने यहाँ तक दावा किया कि 24 दिसंबर 1956 को उसने नेताजी को क्रेमलिन में उच्च अधिकारियों के साथ शानदार कपड़े पहने हुए देखा था। जबकि एक अन्य समर्थक ने बताया कि 1952 में बीजिंग में नेताजी मंगोलिया के ट्रेड यूनियन के नेताओं के साथ खड़े दिखाई दिए थे। समाजवादी पार्टी के एक सदस्य ने तो यहाँ तक कह दिया कि नेताजी रंगून में इना झील के पास एक बौद्ध भिक्षु के रूप में उनसे मिले थे। ज़ाहिर-सी बात है ऐसी ख़बरों से अफ़वाहों को पंख लग जाते हैं। जस्टिस खोसला ने इन दावों को अपनी रिपोर्ट में शामिल तो किया लेकिन यह भी लिखा - ‘यह दर्शाता है कि किस हद तक कपोल कल्पना के ज़रिए सच को झुठलाने की कोशिश की गई।’
क्या कहते हैं गवाह और प्रत्यक्षदर्शी?
जिन गवाहों और प्रत्यक्षदर्शियों को तमाम जाँचकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में शामिल किया है उनमें डॉक्टर योशिमी और नर्स शान पी शा की गवाही काफ़ी महत्वपूर्ण है। योशिमी उस अस्पताल में डॉक्टर थे जहाँ दुर्घटना में घायल होने के बाद नेताजी को ले जाया गया था। शान पी शा वह नर्स थी जिसने अंतिम समय तक नेताजी की सेवा की थी। दोनों ने ही यह दावा किया है कि 18 अगस्त 1945 को नेताजी को अस्पताल लाया गया था। आग में झुलसने की वजह से वह बुरी तरह ज़ख्मी थे और उसी रात उन्होंने अंतिम साँस ली थी। योशिमी ने जाँचकर्ताओं को बताया था - ‘अस्पताल के बिस्तर पर वह पड़े थे। मैंने ख़ुद तेल से उनके घावों को साफ़ किया था। उनकी मरहम-पट्टी की थी। उनका शरीर जलने की वजह से बहुत तकलीफ़ में था। सबसे ज़्यादा घाव उनके सिर, छाती और जाँघों पर थे। उनके सिर पर एक भी बाल नहीं थे और उनकी पहचानना मुश्किल हो रहा था।’
योशिमी शाहनवाज़ कमेटी और जस्टिस खोसला आयोग दोनों के सामने पेश हुए थे। योशिमी ने बताया था, ‘अस्पताल में आने के चार घंटे के बाद वह बेहोश होने लगे थे और बेहोशी की हालत में वह कुछ बुदबुदा रहे थे। उसी दिन क़रीब 11 बजे रात उनकी मौत हो गई थी।’ योशिमी ने यह भी बताया, ‘अंतिम समय पर मैंने उनसे पूछा था कि मैं उनके लिए क्या कर सकता हूँ। नेताजी ने जवाब दिया था कि मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि ख़ून मेरे सिर की तरफ़ दौड़ा जा रहा है- ‘मैं सोना चाहता हूँ।’ ‘मैंने उन्हें इंजेक्शन दिया और थोड़ी देर में उनकी मौत हो गई।’
अस्पताल की नर्स शान पी शा ने भी इस बात की तस्दीक की थी कि उनके सामने ही नेताजी ने अंतिम साँस ली थी। शा ने जाँचकर्ताओं को बताया था, ‘उनकी यहाँ मौत हुई थी, मैं उनके पास थी। 18 अगस्त 1945 का दिन था… मैं एक सर्जिकल नर्स हूँ और अंतिम समय तक मैंने उनकी सेवा की थी।’
शाहनवाज़ कमेटी और खोसला आयोग के अलावा फ्री प्रेस जर्नल के युद्ध संवाददाता हरीन शाह ने भी नेताजी की मौत की जाँच की थी। उन्होंने उन पर एक किताब भी लिखी। इस सिलसिले में सितंबर 1946 को वह जापान गए। वह भी इसी नतीजे पर पहुँचे थे कि नेताजी इस दुनिया में नहीं रहे। हरीन शाह की तरह ही ब्रिटेन के एक गुप्तचर अधिकारी कर्नल जॉन जी. फ़िगस ने 25 जुलाई 1946 को अपनी रिपोर्ट में नेताजी की मौत की पुष्टि की थी। उनके मुताबिक़ ‘उनकी मौत का दिन 18 अगस्त 1945 था और उन्होंने फ़ौजी अस्पताल में अपने प्राण त्यागे थे।’
तमाम जाँच में यह खुलासा भी हुआ है कि नेताजी कैसे विमान दुर्घटना में आग की चपेट में आए और कैसे उन्हें नहीं बचाया जा सका। भारत सरकार को भेजी गई जापान सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, “20 मीटर तक उड़ान भरने के बाद विमान के बाएँ हिस्से के प्रोपेलर का एक डैना टूट गया और विमान ज़मीन से जा टकराया। ज़्यादातर यात्री बच गए लेकिन जो लोग विमान के आगे बैठे हुए थे वे ज्वलनशील गैसोलिन से भीग गए और आग लग गई। नेताजी को बचाने का बहुत प्रयास किया गया। नेताजी ने ठंड से बचने के लिए बहुत मोटा स्वेटर पहन रखा था। स्वेटर गैसोलिन से तरबतर हो गया था जिसकी वजह से उनको बचाने में काफ़ी दिक़्क़त आई।
डीएनए टेस्ट कराने की माँग?
नेताजी की मौत पर हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार आशीष रे ने एक किताब ‘लेड टु रेस्ट’ लिखी है। इस किताब की प्रस्तावना नेताजी की जर्मन पुत्री अनिता फ़ैफ ने लिखी है जिसमें उन्होंने यह माना है कि विमान दुर्घटना में बच गए नेताजी के एक सहयात्री का इंटरव्यू उन्होंने 1979 में देखा था। इसके बाद उन्होंने मान लिया कि सुभाष चंद्र बोस अब जीवित नहीं हैं। हालाँकि फ़ैफ ने यह भी कहा कि नेताजी की मौत के बारे में लोगों को यक़ीन दिलाने के लिए यह ज़रूरी है कि रिनकोझी मंदिर में रखी गई अस्थियों का डीएनए टेस्ट करा लिया जाए।
‘सत्य हिंदी’ के पाठकों को यह बता दें कि 31 मई 2017 को केंद्रीय गृहमंत्रालय ने एक आरटीआई के जवाब में यह कहा है कि सरकार इस नतीजे पर पहुँच चुकी है कि 18 अगस्त 1945 को विमान दुर्घटना में नेताजी की मौत हो गई थी। ज़ाहिर है ऐसे में न तो उत्तर प्रदेश की जस्टिस विष्णु सहाय जाँच आयोग की रिपोर्ट का कोई ख़ास मतलब रह जाता है और न ही इस विवाद का कि गुमनामी बाबा ही सुभाष चंद्र बोस थे।
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