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सोनिया ने सरकार को बेनक़ाब कर दिया?

सोनिया गाँधी ने मज़दूरों का ट्रेन किराया कांग्रेस द्वारा देने की घोषणा करके केंद्र सरकार को बेनकाब कर दिया है। उनकी इस घोषणा के बाद राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष तेजस्वी यादव ने भी ऐलान कर दिया है कि बिहार के लोगों को लाने के लिए उनकी पार्टी पचास ट्रेनों का ख़र्च उठाएगी। राजनीतिक नुक़सान देखते हुए नीतीश कुमार भी यात्रा का ख़र्च उठाने के लिए तैयार हो गए हैं।

ये घोषणाएँ सरकार को शर्मसार करने के लिए काफ़ी होनी चाहिए, मगर सरकार दूसरी मिट्टी से ही बनी है। उससे जवाब देते नहीं बन रहा है और अब वह राज्य सरकारों के सिर पर ठीकरा फोड़ने में लगी हुई है। बेशर्मी देखिए कि बीजेपी पैसे वसूलने की ख़बर को ही झूठ बता रही है जबकि हर जगह मज़दूर टिकटें दिखा रहे हैं।

रेल मंत्रालय ने ट्रेन चलाने की घोषणा करते समय ही जो निर्देश दिए थे उनके मुताबिक़ किराया या तो उस राज्य को देना था जहाँ से मज़दूर जा रहे हैं या फिर उन राज्यों को जहाँ वे जा रहे हैं। उसने ख़ुद को आर्थिक देनदारियों से बाहर कर लिया था और मज़दूरों को राज्यों के भरोसे छोड़ दिया था।

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उधर राज्य पहले से ही फंड की कमी से जूझ रहे थे और गुहार लगा रहे थे कि केंद्र सरकार यह ख़र्च ख़ुद उठाए। अगर केंद्र सरकार ने केवल चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन घोषित कर दिया था तो उससे बनने वाली स्थिति की ज़िम्मेदार भी वही थी। उसे इसकी ज़िम्मेदारी लेनी भी चाहिए थी मगर वह ऐसा करने से मुकर गई, पीछे हट गई।

यह कितनी शर्मनाक बात है कि मज़दूरों को कहा गया था कि उनकी यात्रा मुफ़्त होगी मगर ट्रेन में बैठने पर उनको बाक़ायदा टिकट दिए गए और पैसे वसूले गए। यही नहीं, ये टिकट निर्धारित किराए से ज़्यादा के थे और इनमें सुपरफ़ास्ट चार्ज वगैरह भी लगाए गए थे।

ये वही मज़दूर हैं जो चालीस दिनों से बिना काम धंधे के अपने ठिकानों में बंद थे और ज़ाहिर है कि उनकी जमा पूँजी भी ख़त्म हो रही होगी। फिर वे घर जा रहे हैं जहाँ उनके पास न तो कोई रोज़गार होगा न जीविका चलाने का कोई और साधन यानी वे बिल्कुल निचोड़े जा चुके हैं। मगर सरकार को इससे क्या, उसे तो पैसे से मतलब।
मज़दूरों को उनके प्रदेशों में पहुँचाने का कुल ख़र्च सौ करोड़ रुपए था। ये रेलवे मंत्रालय का ही दिया हुआ आँकड़ा है। पिछले पाँच साल में उसने बेतहाशा किराया बढ़ाया है और अंधाधुंध कमाई की है। क्या वह ऐसी मुसीबत के समय में मुसीबत के मारे मज़दूरों पर सौ करोड़ ख़र्च नहीं कर सकता था। ज़रूर कर सकता था।

जब पीएम केयर फंड में वह डेढ़ सौ करोड़ का दान दे सकता है तो ये छोटी सी रक़म भी खर्च की जा सकती थी। मगर जब नीयत हो तब न। अब रेल मंत्री कह रहे हैं कि पचासी फ़ीसदी किराया उनका मंत्रालय वहन कर रहा है और केवल पंद्रह फ़ीसदी किराया राज्यों को देना है। इस हिस्सेदारी का विवरण उसने पहले नहीं दिया था। 

इसका मतलब है कि जब चारों तरफ़ से आरोप लगने शुरू हो गए तो उसने यह दलील गढ़ ली। फिर भी क्या वो बताएँगे कि जब पचासी प्रतिशत केंद्र सरकार दे सकती थी तो फिर केवल पंद्रह करोड़ रुपए राज्यों के लिए क्यों छोड़ दिए गए। यह रक़म तो कुछ भी नहीं थी। सोनिया गाँधी ठीक कहती हैं कि सौ करोड़ रुपए केवल एक दिन में ट्रम्प की अगवानी पर ख़र्च किए जा सकते हैं मगर देश का निर्माण करने वाले लोगों पर नहीं। 

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सीपीएम के सीताराम येचुरी की टिप्पणी भी ग़ौर करने लायक है। विदेशों से लोगों को फ्लाइट से मुफ़्त लाया गया और यह घोषणा सरकार ने संसद में की थी। ज़ाहिर है कि वह ख़र्च रेलवे के इस ख़र्च से कहीं ज़्यादा रहा होगा, मगर मज़दूरों पर ख़र्च करना सरकार को चुभ रहा था, इसलिए उसने सैकड़ों रुपए वसूलने की योजना बना डाली। वास्तव में सरकार का यह रवैया बताता है कि उसके मानदंड दोहरे हैं। एक अमीरों के लिए है दूसरे ग़रीब मज़दूरों के लिए। 

ध्यान रहे यही सरकार विलासिता के लिए फिजूलखर्ची की नई मिसालें कायम करने जा रही है। सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट पर वह बीस हज़ार करोड़ की मंज़ूरी दे चुकी है, जबकि न तो इसकी ज़रूरत थी और न ही इससे किसी का भला होने वाला है। तमाम विशेषज्ञ और राजनीतिक दल इस योजना को बंद करने की अपील कर चुके हैं मगर तुग़लकी फ़रमान भला कभी वापस लिए जाते हैं। 

केंद्र सरकार ने दिखा दिया है कि वह देश के निर्माण में अपना ख़ून पसीना बहाने वाले श्रमिकों के मामले में कितनी संवेदनशील है और कितनी मानवीयता के साथ उनका खयाल रखती है। इसीलिए अचानक लगाए गए लॉकडाउन की वज़ह से चालीस दिनों की सज़ा भुगत रहे मज़दूरों को उनके घर पहुँचाने की एवज़ में वह किराया वसूल रही थी।

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मुकेश कुमार
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