संविधान को ख़तरे में बताए जाने के बीच यह बात बड़े जोर-शोर से उठाई जा रही है कि भारत का संविधान बदला ही नहीं जा सकता। बीते एक हफ्ते में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार यह बात कही है कि “मोदी तो क्या बाबा साहेब अंबेडकर भी संविधान को नहीं बदल सकते।”
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी कमोबेस ऐसा ही कह रहे हैं- “मोदी में दम नहीं कि वे संविधान बदल सकें”। लालू प्रसाद तो यहां तक कह रहे हैं कि जो कोई भी संविधान बदलने की कोशिश करेगा जनता उसकी आंखें निकाल लेगी।
तो, क्या मान लिया जाए कि संविधान न तो ख़तरे में है और न ही असुरक्षित?संविधान में अब तक 127 संशोधन हो चुके हैं। इन संशोधनों को संविधान बदलना नहीं कह सकते। फिर, संविधान बदला कैसे जाएगा?
संशोधनों के माध्यम से ही तो संविधान में बदलाव होगा। इसका मतलब यह है कि संविधान संशोधन को जरूर संविधान बदलना नहीं कह सकते लेकिन संविधान बदलने का रास्ता भी संविधान संशोधन ही है।
इनके जुड़ने से मजबूत हुआ हमारा संविधान
समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, अखण्डता से जुड़कर हमारा संविधान मजबूत हुआ है। 42वें संविधान संशोधन जिसके तहत संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और अखण्डता जैसे शब्द जोड़े गये। बीजेपी इन दिनों इसे संविधान बदलना ही कहती रही है। बीजेपी के नेता अक्सर इन शब्दों को संविधान से हटाने की जरूरत बताते रहे हैं।इसके उलट सच यह है कि स्वयं बीजेपी ने अपने संविधान में गांधीवादी समाजवाद को जोड़ा था और वास्तव में 46वें संविधान संशोधन पर अपनी सहमति दी थी। मगर, आज की बीजेपी बदल गयी है। बीजेपी-आरएसएस का इरादा धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद जैसी सोच से छुटकारा पाना है। वो इसके समांतर हिन्दुत्व, रामराज्य, हिन्दू राष्ट्र जैसे शब्द संविधान में रखना चाहते हैं।
इस मंशा का एलान बीजेपी और संघ के नेता समय-समय पर करते रहे हैं। लेकिन, इन दिनों जो बहस संविधान पर ख़तरे को लेकर चली है उसके पीछे दो स्पष्ट कारण हैं- एक कारण है बीजेपी सरकार की विपक्ष के प्रति असहिष्णुता की नीति और दूसरा कारण है स्वयं बीजेपी की ओर से संविधान में बदलाव की ललक जिसे वे छिपा नहीं पाती।
अनंत हेगड़े, ज्योति मिर्धा, प्रेम कुमार, लल्लू सिंह, अरुण गोविल जैसे नेताओं ने लगातार अपने बयान से संविधान बदलने की इच्छा का खुलकर इजहार किया है। बीजेपी ने कभी इन बयानों का खंडन नहीं किया। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी इन नेताओं पर नकेल कसने की जरूरत नहीं समझी।
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान का क्या मतलब निकाला जाए कि बाबा साहेब अंबेडकर भी आ जाते तो संविधान नहीं बदल पाते? क्या वे कहना चाहते हैं कि अब संविधान बदलने की ताकत केवल और केवल बीजेपी में आ गयी है? ऐसा करने की क्षमता बीजेपी के अलावा अब किसी और में नहीं रही?
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बीजेपी को क्यों चाहिए 400+ सीटें?
आखिर बीजेपी को 400 पार सीटें क्यों चाहिए? सरकार बनाने के लिए इतने बड़े बहुमत की कोई आवश्यकता नहीं है। बीजेपी के तमाम नेता इस बहुमत को एक जरूरत के तौर पर बता रहे हैं। यह जरूरत संविधान बदलने की है। ऐसा संविधान में बड़े संशोधनों के जरिए किया जाएगा।ये संशोधन लोकसभा और राज्यसभा में दो तिहाई बहुमत लाकर ही संभव है। राज्यसभा में अब भी बीजेपी के पास सामान्य बहुमत नहीं है। ऐसे में संयुक्त सेशन बुलाए जाने की स्थिति में राज्यसभा में घटी हुई ताकत की भरपाई भी लोकसभा सदस्य के तौर पर हो।
यही कारण है कि बीजेपी के सत्ता में आने के बाद 400 पार का नारा उसके लिए बड़ी शक्ति रहने वाली है। इस संभावित शक्ति की मंशा पर ही सवाल है कि क्या इस शक्ति का दुरुपयोग जनता के ही खिलाफ तो नहीं होगा ?
विपक्ष आरोप लगा रहा है कि बीजेपी के मन में लोकतंत्र के लिए आदर नहीं है। वह हर हाल में सत्ता में बने रहने के लिए वांछित परिवर्तन करने में लगी हुई है।
सत्ता में रहते हुए 147 सांसदों का निलंबन और इस दौरान महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित करना यह बताता है कि बीजेपी संसदीय लोकतंत्र को कितना तवज्जो देती है।
चुनाव के समय में पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जेल भेजना भी संसदीय लोकतंत्र और चुनाव में समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है।
सत्ता की ताकत का दुरुपयोग
केंद्रीय एजेंसियों का पक्षपातपूर्ण तरीके से विपक्ष के खिलाफ इस्तेमाल अब साबित करने की बात नहीं रही। इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए सत्ता प्रतिष्ठानों का इस्तेमाल लोकतंत्र को कुचलने के लिए किया गया, अब इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रह गया है।विपक्ष को लगता है कि एक बार फिर अगर बीजेपी को मौका मिला तो वो सबसे पहले उन ताकतों को नष्ट करेंगे जिन्होंने लोकतंत्र की आवाज़ को बुलंद रखा है। विपक्ष जिस जोर से लोकतंत्र बचाने की आवाज़ उठा रहा है उससे अधिक जोर लगाकर बीजेपी ऐसा करती दिख रही है।
जनता के सामने यही चुनौती है कि सही मायने में लोकतंत्र के रक्षक कौन हैं? इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए लोकतंत्र की आवाज़ उठाने का दावा करने वालों को परखना होगा। लोकतंत्र का किसने अतीत में कितना सम्मान किया है इसकी भी परख जरूरी है। ऐसा करके ही जनता सही मायने में लोकतंत्र के रखवाले की पहचान कर सकेगी। आम चुनाव अवश्य संविधान बचाने की चिंता से लैस इस देश को अपनी राय बनाने में मदद करेगी।
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