तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
मशहूर शायर मजाज़ लखनवी ने अपनी इन इन्क़लाबी लाइनों के ज़रिये आज़ादी की लड़ाई में महिलाओं की भूमिका का जो सपना देखा था, शाहीन बाग़ की महिलाओं ने उसे अमल में लाकर हक़ीक़त में बदल दिया है। नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर के विरोध में शुरू हुई मुहिम ने दिल्ली के एक मोहल्ले शाहीन बाग़ को संघर्ष का एक सशक्त रूपक बना दिया है। शाहीन बाग़ अब महज़ किसी जगह का नाम नहीं है। वह पूरे देश में और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की आम जनता के प्रतिरोध की पहचान बन गया है।
आज़ादी के बाद यह शायद अपनी तरह का पहला ऐसा जन आंदोलन है जिसका नेतृत्व महिलायें कर रही हैं और अगुआई में कोई एक परिचित चेहरा नहीं है, न ही यह किसी राजनैतिक दल से संचालित है। शाहीन बाग़ की औरतों की कमान में चल रही मुहिम धर्मनिरपेक्षता को नए समाज के हिसाब से नए सिरे से परिभाषित कर रही है। जहाँ हवन हो रहा हो, वहीं क़ुरान की आयतें पढ़ी जाएँ, शबद-कीर्तन हो रहा हो और बाइबिल का भी पाठ हो। सर्व धर्म समभाव का यह नज़ारा बुद्धिजीवियों का उपक्रम नहीं है, आम लोगों का रचा आख्यान है जो सिर्फ़ एक दृश्य भर नहीं है, बल्कि इसमें संविधान की मूल आत्मा की रक्षा का संकल्प दिखता है।
शाहीन बाग़ की सर्व धर्म प्रार्थना को देख कर गाँधी जी की प्रार्थना सभाओं में गाई जाने वाली राम धुन और ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ की याद आना स्वाभाविक है। यह एक ऐसी बात है जो इन महिलाओं के आंदोलन को जाने-अनजाने गाँधी के अहिंसात्मक सत्याग्रह के आंदोलन से जोड़ देती है, भले ही इनमें से किसी ने भी गाँधी को पढ़ा हो या नहीं।
इसका असर यह हुआ है कि देश में जगह-जगह शाहीन बाग़ की तर्ज़ पर आंदोलन हो रहे हैं जिनमें अगुआई ज़्यादातर महिलाएँ कर रही हैं।
अन्धेरे से जब बहुत सारे लोग डर जाते थे
और उसे अपनी नियति मान लेते थे
कुछ ज़िद्दी लोग हमेशा बच रहते थे समाज में
जो कहते थे कि अन्धेरे समय में अन्धेरे के बारे में गाना ही
रोशनी के बारे में गाना है।
वो अन्धेरे समय में अन्धेरे के गीत गाते थे।
अन्धेरे के लिए यही सबसे बड़ा ख़तरा था।
(-राजेश जोशी, ‘अंधेरे के बारे में कुछ वाक्य’)
कश्मीर के पत्थरबाज़ों से निपटने में क़ामयाबी का दावा करने वाली सरकार शाहीन बाग़ की औरतों का सामना करने से क़तरा रही है। कश्मीर में पत्थरबाज़ी करने वाला मुसलमान केंद्र सरकार और बीजेपी-आरएसएस की कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए फ़ायदे का सौदा था।
कश्मीर के पत्थरबाज़ मुसलमान की विध्वंसक छवि को सामने रखकर, उसे पाकिस्तान परस्त और देशद्रोही क़रार दे और इस बहाने उत्तर भारत के मुसलमानों को भी संदेह के दायरे में समेटने की सांप्रदायिक राजनीति बीजेपी के लिए बेहद मुफ़ीद थी।
लेकिन शाहीन बाग़ की महिलाओं ने अपने आंदोलन को देशद्रोही, पाकिस्तान परस्त और सांप्रदायिक साबित किये जाने की संभावनाओं को जड़ें जमाने नहीं दी हैं। कोशिशें तो सारी हुईं। लेकिन आंदोलनकारी महिलाओं की सूझबूझ, सतर्कता और इन सबसे बढ़कर गाँधीगीरी के आगे एक भी पैंतरा टिक नहीं पाया।
गाँधीजी होते तो क्या करते?
यहाँ यह याद दिलाना बहुत ज़रूरी है कि यह साल असहयोग आंदोलन का शताब्दी वर्ष है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान गाँधी जी के नेतृत्व में 1920 में अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई थी। गाँधी जी अगर आज होते तो बेहिचक शाहीन बाग़ की इन महिलाओं की हौसला अफज़ाई करते, इन्हें शाबाशी देते और इनकी मंडली में शामिल होकर सत्याग्रह करते भी पाए जाते। यही तो वह हथियार था जिसको उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया था।
गाँधी जी ने आज़ादी के बाद बँटवारे के दौरान हुई हिंसा को लेकर भारत की सरकार को भी अपने सत्याग्रह और उपवास के माध्यम से यह चेतावनी दी थी कि वह जन विरोधी न बने और हर समुदाय के हितों का ख्याल रखे। 23 सितम्बर 1947 को अपनी प्रार्थना सभा में गाँधी जी ने कहा था–
मैं तो इसी चीज़ पर कायम हूँ कि हम पर ज़ुल्म हो तो भी हम जहाँ पड़े हैं, वहीं पर पड़े रहें, मर जाएँ। लोग मार डालें, तो मर जाएँ। मगर ईश्वर का नाम लेते हुए बहादुरी से मरें। यही मैंने लड़कियों को सिखाया है। मरने का इल्म हासिल कर लें और ईश्वर का नाम लेती रहें। कोई इंसान है, बुरा आदमी है, उसकी नज़रबंदी हो जाती है। वह हिन्दू हो, सिख हो, पारसी हो, कोई भी हो। हम यह तो कर सकें कि उसके बस में न हों। वह कहे कि चलो पैसा देते हैं तो उसको यही करना चाहिए कि 3 मिनट बाद मारना है तो तू अभी मार दे, लेकिन हम तेरे बस में आने वाली नहीं। पैसे देकर हटने वाली नहीं। मैं तो जब तक मेरे में साँस है, यही शिक्षा दूँगा। दूसरी बात मैं नहीं कर सकूँगा।
(-महात्मा गाँधी, 23 सितम्बर 1947, प्रार्थना सभा में)
1920 में शुरू किए गए असहयोग आंदोलन के लिए गाँधी जी ने जो ऐतिहासिक प्रस्ताव पेश किया था उसमें कहा गया था कि जब तक अत्याचार समाप्त न हो और स्वराज्य स्थापित न हो जाए, भारतीयों के लिए अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है।
अपनी बहुचर्चित किताब 'हिंद स्वराज' में महात्मा गाँधी ने सरकार से असहयोग करने वाले आंदोलन में सत्याग्रह और आत्मबल की रणनीति का ख़ुलासा किया है जो बड़े दिलचस्प ढंग से मौजूदा माहौल पर भी लागू होता है।
गाँधी कहते हैं-
‘मिसाल के तौर पर, मुझ पर लागू होने वाला कोई क़ानून सरकार ने पास किया। वह क़ानून मुझे पसंद नहीं है। अब अगर मैं सरकार पर हमला करके यह क़ानून रद्द करवाता हूँ तो कहा जाएगा कि मैंने शरीर बल का प्रयोग किया। अगर मैं उस क़ानून को मंज़ूर ही न करूँ और उस कारण से होने वाली सज़ा भुगत लूँ तो कहा जाएगा मैंने आत्मबल या सत्याग्रह से काम लिया। सत्याग्रह में मैं अपना ही बलिदान देता हूँ। … क़ानून हमें पसंद न हो तो भी उनके मुताबिक़ चलना चाहिए, यह सिखावन मर्दानगी के ख़िलाफ़ है, धर्म के ख़िलाफ़ है और ग़ुलामी की हद है। ...अगर लोग एक बार सीख लें कि जो क़ानून हमें अन्यायी (ग़ैरइंसाफवाला) मालूम हो उसे मानना नामर्दगी है, तो हमें किसी का भी ज़ुल्म बाँध नहीं सकता। यही स्वराज्य की कुंजी है।’
यह बात अलग है कि गाँधी जी आज होते और यही बात कहते तो बीजेपी सरकार की पुलिस के डंडे खाते और जेल में होते।
गणतंत्र दिवस नज़दीक है। देश को गणराज्य बने हुए भी 70 साल हो गए। शाहीन बाग़ की महिलाओं की अगुआई में चल रही मुहिम स्पष्ट रूप से सरकारी तंत्र के ख़िलाफ़ जन-गण के मन का आक्रोश है। इसे नज़रअंदाज़ करना लोकतंत्र और संविधान की भावना का अनादर होगा जो देश और समाज के लिए शुभ नहीं होगा।
दुनिया सरकारें या दौलत नहीं चलाती
दुनिया को चलाने वाली है अवाम
हो सकता है मेरा कहा सच होने में लग जाएँ
सैकड़ों साल
पर ऐसा होना है ज़रूर।
-नाज़िम हिकमत
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