“हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है।”
यह भगत सिंह का बयान है। फाँसी पर लटकाए जाने से तीन दिन पहले 20 मार्च, 1931 को उन्होंने पंजाब के गवर्नर को पत्र लिखकर ख़ुद को युद्धबंदी बताते हुए फाँसी नहीं गोली से उड़ाने की माँग की थी। इस पत्र पर भगत सिंह के साथ-साथ सुखदेव और राजगुरु के भी हस्ताक्षर थे। यह पत्र इन क्रांतिकारियों के उद्देश्यों की स्पष्ट झलक देता है। इसी पत्र में उन्होंने लिखा था -
“निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद व पूँजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं। यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम ख़ुद पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ किया है और न ही यह हमारे जीवन के साथ समाप्त होगा।”
भगत सिंह की उम्मीदों के विरुद्ध साम्राज्यवाद और पूँजीवाद ‘कुछ दिन के मेहमान’ नहीं साबित हुए बल्कि 21वीं सदी की शुरुआत के साथ उनकी ताक़त में इज़ाफ़ा ही हुआ है। यानी भगत सिंह के ‘जीवन के साथ न समाप्त होने वाली लड़ाई’ और भी मौजूं हो उठी है।
ऐसे में जब कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी भगत सिंह को ‘भारत रत्न’ देने की माँग करते हैं तो यह क़दम सावरकर को भारत रत्न दिए जाने के चुनावी शिगूफे की सियासी काट के अलावा कुछ और नज़र नहीं आता। यह किसी सेनापति को युद्ध के बीच में सम्मानित करने की माँग करने जैसा है। मौजूदा भारत, भगत सिंह के सपनों का भारत नहीं है। सच तो यह है कि ‘शोषणमुक्त समाज’ और ‘मज़दूरों के राज’ के भगत सिंह के सपने से तमाम सियासी दल घबराते रहे हैं। न सिर्फ़ बीजेपी बल्कि कांग्रेस भी भगत सिंह की कसौटी पर शोषणकारी समाज बनाए रखने की पक्षधर नज़र आती है।
यह संयोग नहीं है कि कांग्रेस ने आज तक महात्मा गाँधी को ‘भारत रत्न’ देने की माँग नहीं की। गाँधी राष्ट्रपिता हैं क्योंकि उनके नेतृत्व में चले लंबे आंदोलन ने राजनीतिक और सांस्कृतिक विविधताओं से भरे इस देश को एक राष्ट्र में पिरोया। ‘भारत रत्न’ जैसा सर्वोच्च मगर सरकारी सम्मान उनके क़द के सामने बौना लगता है। कुछ वैसा ही दर्जा भगत सिंह का भी है। इसीलिए उन्हें वैचारिक प्रणेता मानने वालों ने कभी उनके लिए ‘भारत रत्न’ नहीं माँगा।
फाँसी का फंदा चूमने से पहले ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ लिखने वाले भगत सिंह पूरी तरह साम्यवादी क्रांति के प्रति समर्पित थे। जेल में रहते हुए ‘लेनिन दिवस’ पर उन्होंने जो तार ‘तीसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ के लिए तैयार किया, वह भी बताता है कि वह देश को कैसा बनाना चाहते थे। अख़बारों में इसकी रिपोर्ट यूँ लिखी गई थी -
“21 जनवरी, 1930 को लाहौर षड्यंत्र केस के सभी अभियुक्त अदालत में लाल रुमाल बांध कर उपस्थित हुए। जैसे ही मजिस्ट्रेट ने अपना आसन ग्रहण किया अभियुक्तों ने “समाजवादी क्रान्ति जिन्दाबाद”, “कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जिन्दाबाद”, “जनता जिन्दाबाद”, “लेनिन का नाम अमर रहेगा” और “साम्राज्यवाद का नाश हो” के नारे लगाये। इसके बाद भगत सिंह ने अदालत में तार का मजमून पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे तीसरे इंटरनेशनल को भिजवाने का आग्रह किया।
तार का मजमून-
“लेनिन दिवस के अवसर पर हम उन सभी को हार्दिक अभिनन्दन भेजते हैं जो महान लेनिन के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोग की सफलता की कामना करते हैं। सर्वहारा विजयी होगा। पूँजीवाद पराजित होगा। साम्राज्यवाद की मौत हो।“
23 मार्च को भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिले थे। मेहता ने बाद में लिखा, “भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, “सिर्फ़ दो संदेश - साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और इन्क़लाब ज़िदाबाद !”
भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वह पंडित नेहरू और सुभाष बोस को उनका धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने उनके केस में गहरी रुचि ली।
लेकिन आज़ादी के बाद नेहरू की थोड़ी-बहुत समाजवादी भंगिमा के बावजूद काँग्रेस ने भगत सिंह के सपनों को पूरा करने में कोई रुचि नहीं ली। उसका वर्गीय आधार इसकी इजाज़त भी नहीं देता था। नेहरू के बाद इंदिरा गाँधी का समाजवादी रुख फौरी राजनीतिक रणनीति के अलावा कुछ ख़ास साबित नहीं हुआ और नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के उदय के साथ काँग्रेस ने अपने तमाम संकल्पों से लगभग पूरी तरह पीछा छुड़ा लिया। इसका नतीजा यह है कि मज़दूरों की सेवा-सुरक्षा, काम के घंटे, बीमा, पेंशन जैसे तमाम अधिकारों पर हो रहे भीषण ‘मोदी-घात’ के ख़िलाफ़ वह खुलकर बोल भी नहीं पा रही है क्योंकि इसकी शुरुआत खुद उसने की थी।
बीजेपी अगर अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगने वाले या महात्मा गाँधी की हत्या का षड्यंत्र रचने वाले सावरकर को (सबूतों के अभाव में अदालत से छूटे सावरकर को जस्टिस जीवन लाल कपूर कमीशन ने महात्मा गाँधी की हत्या का असल षड्यंत्रकारी बताया है।) ‘भारत-रत्न’ देना चाहती है तो यह पूरी तरह स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री मोदी साफ़ कह रहे हैं कि उनके राष्ट्रवाद की बुनियाद में सावरकर के संस्कार हैं।
सावरकर के सपनों का भारत बनाएगी बीजेपी!
बीजेपी सावरकर के सपनों का भारत बनाने में जुटी है, जिसका असंदिग्ध नागरिक वही होगा जिसकी ‘पितृभूमि’ और ‘पवित्रभूमि’ दोनों भारत हों। मुसलमानों और ईसाइयों को संदिग्ध बनाने के ‘सावरकरी हिंदुत्व’ को वह अपना आदर्श मान रही है। बीजेपी इस मामले में पूरी तरह ईमानदार है। भले ही यह प्रयास भारतीय संविधान और स्वतंत्रता संग्राम के संकल्पों को उलटने वाला हो।
इसलिए कांग्रेस से यह सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि भगत सिंह को ‘भारत रत्न’ वह क्यों दिलाना चाहती है? देश पर बलिदान हो जाने वालों की कमी नहीं रही। ख़ुद भगत सिंह की हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के तमाम सदस्य शहीद हुए, लेकिन भगत सिंह ‘शहीद-ए-आज़म’ हैं क्योंकि उन्होंने सबसे स्पष्ट तरीके से समझाया कि उनकी लड़ाई का लक्ष्य और वैचारिकी क्या है।
क्या कांग्रेस में यह हिम्मत है कि वह भगत सिंह के विचारों का प्रचार जनता के बीच कर सकती है? क्या वह भगत सिंह के मज़दूरों के राज या साम्यवादी क्रांति के लक्ष्य का समर्थन करती है?
भगत सिंह कोई ‘रत्न’ नहीं जिसे कोई अपनी शोभा के लिए पहन ले। वह मुक्ति का संकल्प हैं जिसे पूरा करने के लिए अभी न जाने कितनी पीढ़ियाँ और राख होंगी! भगत सिंह की कांति के सामने भारत-रत्न फ़ीका है।
(लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।)
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