पालघर में पिछले दिनों गाँववालों द्वारा दो साधुओं की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई और कुछ लोगों की शिकायत है कि इस घटना की उतनी निंदा क्यों नहीं की जा रही जितनी दादरी (अख़लाक़) या दूसरे मामलों की गई थी। उनकी शिकायत है कि इस मामले को भी उतना क्यों नहीं उछाला जा रहा है जितना उन दूसरे मामलों को उछाला गया था जिनमें मरने वाले मुसलमान थे।
ये सवाल कौन लोग उठा रहे हैं, इस पर हम नहीं जाएँगे। सही या ग़लत, एक सवाल उठाया गया है और उसका जवाब देना बनता है। पालघर और दादरी के मामले में कुछ समानता है तो कुछ असमानता भी। समानता यह है कि दोनों ही मामलों में स्थानीय लोगों ने भीड़ का क़ानून चलाया। कुछ लोगों को लगा कि ये लोग गुनहगार हैं और उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए और उन्होंने वहीं-के-वहीं उन्हें सज़ा दे दी। अभियुक्तों को अपनी सफ़ाई देने का मौक़ा तक नहीं दिया गया।
यहाँ तक दोनों मामले एक जैसे हैं लेकिन इससे आगे उनमें बहुत बड़ी असमानता है। अब तक जो जानकारी मिली है और जिन अभियुक्तों की पहचान की गई है, उससे ऐसा नहीं लगता कि साधुओं को भीड़ ने इसलिए मारा था कि वे साधु थे या कि वे हिंदू थे या किसी ख़ास जाति या नस्ल के थे या किसी और प्रदेश या भाषा के थे।
भीड़ ने उन्हें साधुओं के वेष में चोर समझा और मार डाला। लेकिन अख़लाक़ के मामले में ऐसा नहीं था। स्थानीय हिंदुओं ने अख़लाक़ को इसलिये मारा कि अख़लाक़ मुसलमान थे और (उनके अनुसार) गोमांस पकाकर उन्होंने ऐसा अपराध किया था जिसकी सज़ा पिटाई ही हो सकती थी।
इसी तरह गुजरात में दलितों को इसलिए बाँधकर पीटा गया क्योंकि वे दलित थे और उन्होंने गोमांस खाने का अपराध किया था। जब भी कोई मॉब लिंचिंग किसी ख़ास समुदाय, जाति, समूह या धर्म के आधार पर होती है, तो वह मामला अलग हो जाता है। ठीक उसी तरह जिस तरह कोरोना से होने वाली मौत न्यूमोनिया से होने वाली मौत से अलग होती है।
न्यूमोनिया और कोरोना से मौत में अंतर
हम सब जानते हैं कि मौत तो मौत होती है और उतनी ही दुखद होती है फिर चाहे कोई न्यूमोनिया से मरे या कोरोना से। लेकिन आज कोई न्यूमोनिया से मरे तो वह ख़बर अख़बारों में नहीं आएगी परंतु अगर कोई कोरोना से मरे तो न केवल अख़बार उसका संज्ञान लेंगे बल्कि उस परिवार के लोग, आस-पड़ोस के लोग, मुहल्ले के लोग और सरकारी अधिकारी भी उसे बहुत गंभीरता से लेंगे। क्यों? क्योंकि न्यूमोनिया से होने वाली मौत से आसपास के लोगों को न्यूमोनिया होने का ख़तरा नहीं है लेकिन कोरोना वायरस से होने वाली बीमारी संक्रामक है और वह परिवार और मुहल्ले के ढेर सारे लोगों को भी बीमार कर सकती है।
मॉब लिंचिंग में जब चोर समझकर किसी को मार दिया जाता है तो वह न्यूमोनिया जैसा केस होता है। एक स्थानीय मामला जिसका असर बाक़ी इलाक़ों में नहीं फैलता। ऐसा नहीं हुआ कि पालघर के बाद भारत भर में चोरों के ख़िलाफ़ कोई घृणा की लहर फैल गई या चोरों पर एकाएक हमले होने लगे। यह भी नहीं हुआ कि प्रतिक्रिया में साधुओं ने गृहस्थों पर हमले करने शुरू कर दिए और या देश में साधुओं या साधु वेषधारियों पर हमले होने लगे। इस घटना से देश में साधुओं के प्रति न कोई द्वेष बढ़ा, न घटा। बल्कि उनके प्रति सहानुभूति ही उभरी।
अख़लाक़ जैसे मामले कोरोना की बीमारी जैसे होते हैं - भीषण संक्रामक। जब देश के किसी भी कोने में एक समूह के लोग दूसरे समूह के सदस्यों पर हमला करते हैं या उनको जान-माल का नुक़सान पहुँचाते हैं तो देश भर में इन दोनों समूहों के बीच नफ़रत और अविश्वास की बीमारी तेज़ी से फैलती है। एक से सौ, सौ से हज़ार, हज़ार से लाख तक।
जो हिंदू-मुसलमान अब तक इस पारस्परिक घृणा से मुक्त थे, वे भी उससे ग्रस्त हो जाते हैं। नतीजतन भविष्य के गर्भ में और भी अख़लाक़ कांड के बीज रोपित हो जाते हैं। कोरोना से होने वाली बीमारी तो अधिकतर मामलों में 14 दिनों के भीतर ठीक भी हो जाती है, लेकिन नफ़रत और अविश्वास की यह बीमारी न केवल सालों बनी रहती है बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी फैलती जाती है। इसी कारण पालघर की घटना पर वैसी प्रतिक्रिया नहीं होती, जैसी दादरी के मामले पर होती है।
कौन उकसाता है भीड़ को?
ऊपर हमने दोनों मामलों में एक समानता की बात की थी और उसकी भी चर्चा होनी चाहिए क्योंकि दोनों मामलों का मूल कारण वही है। समानता यह कि दोनों मामलों में भीड़ ने न्याय किया था और कोई भी सभ्य समाज भीड़ के न्याय की इजाज़त नहीं देता। जिस समाज में इस तरह का न्याय होता है, वह असभ्य ही कहा जाएगा। लेकिन भीड़ को ऐसा न्याय करने के लिए उकसाता कौन है?
हमारे बीच ही मौजूद कुछ लोग, हमारे राजनीतिक-धार्मिक-जातीय नेता। हम अक्सर किसी को गोली से उड़ा देने की, कुत्ते की मौत मारने की, पाकिस्तान या चीन भेज देने की, अगर लड़की या महिला हो तो उसको सरेबाज़ार नंगा कर देने की, उसका रेप कर देने की धमकियां सुनते-पढ़ते हैं। यह सब क्या है? यह सब भीड़ न्याय का ही रूप है।
किसी विरोधी मत को सहन नहीं करना, आलोचना को सहन नहीं करना, विरोधी मत रखने वाले या आलोचना करने वाले को ख़त्म कर देना या ख़त्म कर देने की इच्छा रखना यही तो भीड़ का न्याय है। जब तक हमारे बीच ऐसे लोग रहेंगे, ऐसी मानसिकता रहेगी, तब तक पालघर भी होता रहेगा और अख़लाक भी। अगर भीड़तंत्र ख़त्म होगा, भीड़ का न्याय ख़त्म होगा, उकसावा ख़त्म होगा, तभी पालघर और दादरी भी ख़त्म होंगे।
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