27 सितंबर को दिल्ली के बसंतकुंज स्थित रंगपुरी कॉलोनी के दो कमरे के फ़्लैट से पुलिस को एक कमरे में 46 साल के हीरालाल शर्मा और दूसरे कमरे में उनकी 26 साल की बेटी नीतू, 24 साल की निक्की, 23 साल की नीरू, और 20 साल की निधि की लाश मिली। घर में राशन नहीं के बराबर था, सल्फास के तीन ख़ाली पैकेट अलबत्ता पड़े थे। ‘इंडियन स्पाइरल इंजरीज़ सेंटर’ में काम करने वाले हीरालाल की नौकरी छूट गयी थी। बैंक खाते में बचे मात्र दो सौ रुपये हीरालाल की आर्थिक तंगी की गवाही दे रहे थे। हीरालाल की पत्नी का कैंसर से पिछले साल निधन हो गया था।
हीरालाल शर्मा बेहद धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। हर मंगलवार हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए व्रत रखते थे। चुपचाप अपने काम से काम करने वाले व्यक्ति थे लेकिन आर्थिक दुश्चक्र में फँसकर हताश हो गये। ‘मुक्ति' के लिए सामूहिक आत्महत्या का फ़ैसला पूरे परिवार का था या फिर हीरालाल ने अपनी बेटियों को ज़हर खिलाने के बाद जान दी, इसकी जानकारी अब शायद ही हो पाये। लेकिन यह हालात के सामने ‘दुर्बल' पड़ चुके एक धर्मभीरु हिंदू की कथा ज़रूर है जिसके ‘जागृत’ और ‘एकजुट’ होने का मंत्र-जाप दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू संगठन होने का दावा करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस रात-दिन करता रहता है। हीरालाल के परिवार की सामूहिक आत्महत्या पर दिल्ली के झंडेवालान में बारह मंज़िला तीन टावर वाले नवनिर्मित आलीशान आरएसएस मुख्यालय में कोई हलचल न होनी थी न हुई।
बहरहाल, क़रीब पंद्रह दिन बाद नागपुर में आरएसएस मुखिया के सालाना दशहरा भाषण में हिंदुओं की ‘दुर्बलता’ की वायवीय चिंताओं की लहर बदस्तूर उठ रही थी। आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि ‘दुर्बलता’ अपने आप में विपत्ति का कारण है। इसलिए हिंदुओं को एकजुट हो जाना चाहिए। बांग्लादेश में हिंदू एकजुट हुआ इसलिए पिछले दिनों हुए हिंसक हमलों से कुछ बचत हो पायी।
यह आरएसएस की स्थापना का शताब्दी वर्ष है जिस पर सबकी नज़र थी। लेकिन मोहन भागवत के भाषण में हिंदू समाज की वास्तविक दुर्बलताओं को लेकर कोई चिंता नहीं दिखी। उन्हें चिंता नहीं कि भारत का आम हिंदू ‘पुष्ट’ होने के लिए भोजन क्यों नहीं कर पा रहा है? हालिया भूख सूचकांक ने भारत को 105वें स्थान पर रखा है। न उन्हें बेरोज़गारी दिखती है जो इतिहास के सर्वोच्च शिखर पर है। न इसकी चिंता है कि अमेरिकी डॉलर की क़ीमत 84 रुपये के पार चली गयी है और विश्व बैंक के मुताबिक़ 2024 में 6.85 डॉलर प्रतिदिन से कम पर पर जीने वाले भारतीयों की तादाद 1990 की तुलना में अधिक हो चली है। यह सब तब है जब भारत सरकार उद्योगपतियों पर दिलो जान से फ़िदा है। पीएम मोदी किस तरह अडानी के लिए धंधा जुटाते हैं इसका खुलासा फ़्रांस से लेकर केन्या तक के भूतपूर्व और वर्तमान राष्ट्राध्यक्ष कर चुके हैं। केन्या में तो अडानी ग्रुप की एक डील के चलते राजनीतिक तूफ़ान आया हुआ है। सत्तारूढ़ पार्टी के प्रमुख को रिश्वत देने का मामला गरम है। केन्या के तत्कालीन राष्ट्रपति ने कहा है कि पीएम मोदी ने अडानी ग्रुप और उसके धंधे से परिचित कराया था जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे।
बीते दिनों आरएसएस और पीएम मोदी के बीच मतभेद की जो सुगबुगाहटें थीं, मोहन भागवत का भाषण उससे उलट था। वे अपने भाषण में दावा कर रहे थे कि भारत बीते कुछ सालों में काफ़ी सशक्त हुआ है। उसकी साख बढ़ी है।
लेकिन 'भारत की तरक़्क़ी से जलने वाली अंतरराष्ट्रीय शक्तियाँ उसे अस्थिर करने का षड्यंत्र रच रही हैं जिसका देश का एक वर्ग वैकल्पिक राजनीति के नाम पर साथ दे रहा है।’ हैरानी की बात है कि मोहन भागवत अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की ‘साख’ बढ़ाने के लिए मोदी सरकार की पीठ तब थपथपा रहे हैं जब कनाडा, अमेरिका, न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और युनाइटेड किंगडम जैसे ‘मित्र देश’ गृहमंत्री अमित शाह पर हत्यारों के संरक्षण का खुला आरोप लगा रहे हैं। जब पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंध ऐतिहासिक रूप से कमज़ोर हैं। यहाँ तक कि नेपाल जैसे पारंपरिक सहयोगी भी चीन के पाले में जाता दिख रहा है।
मोहन भागवत का भाषण बताता है कि अगर कोई अपनी दुर्व्यवस्था का ज़िम्मेदार मोदी सरकार को मानकर विपक्ष के साथ खड़ा होता है या सड़क पर कोई आंदोलन संगठित करता है तो वह देश को अस्थिर करने की साज़िश का हिस्सा है। मोहन भागवत ने देश के दुश्मन के रूप में ‘डीपस्टेट’, ‘वोकिज़्म’ और ‘क्लचरल मार्क्सिस्ट’ को चिन्हित किया है। इन्हें उन्होंने भारत की सांस्कृतिक परंपराओं का दुश्मन बताया। लेकिन इन शब्दों का मायने खोला जाये तो पता चलता है कि यह सिर्फ़ मोदी सरकार की नाकामी को ढँकने के लिए फेंका जा रहा शब्दजाल है।
सबसे पहले ‘डीप-स्टेट' की बात। मोहन भागवत ने ‘अरब स्प्रिंग’ की याद दिलायी जिसने तमाम देशों को अस्थिर कर दिया था। भागवत के हिसाब से यह अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र था जिसका अरब देश के युवा शिकार बन गये। लेकिन 2010 के ‘अरब स्प्रिंग’ का प्रभाव तो भारत पर भी पड़ा था। 2011 में शुरू हुआ अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी उन्हीं प्रविधियों और सोशल मीडिया के ज़रिए फैला जिसके पीछे भागवत अरब देशों में साज़िश खोज रहे हैं। दिलचस्प बात तो ये है कि ख़ुद आरएसएस ने अन्ना आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था। उसके बे-वर्दी स्वयंसेवकों के हाथ में सारी व्यवस्था थी। प्रशांत भूषण जैसे आंदोलन के संस्थापक तो खुलकर उसे आरएसएस के षड्यंत्र का हिस्सा बता चुके हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बदनाम करने के लिए कॉरपोरेट ने जिस तरह तब अपने नियंत्रण वाले मीडिया को खुली छूट दी थी, वह बताता है कि षड्यंत्र का स्तर कितना बड़ा था। तो क्या आरएसएस मानेगा कि वह देश को अस्थिर करने के षड्यंत्र में शामिल था? क्या वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से माफ़ी माँगेगा, ख़ासतौर पर जब तमाम घोटालों पर मुहर लगाने वाले तत्कालीन सीएजी विनोद राय अपने आकलन की ग़लती मान चुके हैं और अदालतें एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ के टूजी घोटाले के सभी आरोपियों को बरी कर चुकी हैं?
और ‘वोकिज़्म' पर निशाना बनाकर मोहन भागवत साबित कर रहे हैं कि आरएसएस व्यापक हिंदू समाज को आदेशपालक गु़लामों में तब्दील करना चाहता है। जहाँ नागरिक नहीं महज़ लाभार्थी हों। अन्याय के विरुद्ध कोई भी आवाज़ साज़िश मानी जाए। ‘वोक’ अंग्रेज़ी के ‘अवेक’ यानी ‘जागो’ से बना है। ‘वोक’ शब्द 2014 में व्यापक चर्चा में आया जब अमेरिका में एक पुलिस अधिकारी ने 18 वर्षीय अश्वेत युवक माइकल ब्राउन की गोली मार कर हत्या कर दी। यह शब्द पुलिस की बर्बरता और ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन के दौरान भी चर्चित रहा। ख़ासतौर पर अश्वेत आबादी ने इसे अपना नारा बना लिया। 2017 में ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में ‘वोक’ शब्द को जगह मिली। लेकिन अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया के दक्षिणपंथी राजनीतिक-आर्थिक परिसर में इसका इस्तेमाल मज़ाक़ उड़ाने के लिए किया जाने लगा है। कुछ वैसे ही, जैसे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधीवादी कार्यकर्ताओं का मज़ाक़ ‘सुराजी’ कह कर उड़ाया जाता था। हैरानी की बात नहीं कि अंग्रेज़ों के साथ खड़े आरएसएस के नेता और समर्थक भी उनमें शामिल थे।
राहुल गाँधी की जाति जनगणना से लेकर कॉरपोरेट लूट का हिसाब लेने तक की माँग आरएसएस को ‘वोकिज़्म’ लगता है। शासन-प्रशासन में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों की भागीदारी की उनकी माँग आरएसएस की नज़र में हिंदू समाज को तोड़ने की साज़िश है, जो स्वाभाविक है।
वह अपने मूल चरित्र में हिंदुओं की दुख-तकलीफ़ के कारणों का निवारण करने वाला संगठन नहीं, बल्कि उनकी मुश्किलों का कारण बनी सरकार और कॉरपोरेट लूट का हितचिंतक है। वरना ‘वोकिज़्म’ जैसे उधार के शब्द से वह देश के लोगों को डराने का प्रयत्न न करता।
और क्लचरल मार्क्सिज्म..? जिस दौर में कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे कमज़ोर स्थित में हैं, आरएसएस को सिर्फ़ मार्क्सिज़्म नहीं, कल्चरल मार्क्सिज़्म से ख़तरा नज़र आता है। इसे वह देश की संस्कृति पर हमला लगता है। यहाँ भी वह शोषण का झंडाबरदार नज़र आता है। क्योंकि मार्क्सिज़्म के साथ जो संस्कृति जुड़ी है, वह समता और समानता का सवाल उठाती है। वह मज़दूरों के श्रम के मूल्य, उनके काम के घंटे निर्धारित करने और स्त्रियों को भी हर क्षेत्र में बराबरी देने की बात करती है। स्वाभाविक है कि स्त्रियों को नौकरी न करके सिर्फ़ घर में रहकर बच्चा सँभालने की सलाह दे चुके मोहन भागवत को यह सब भारतीय संस्कृति पर हमला लगता है। ‘काम के घंटे’ आदि की बात करने को वह विदेशी षड्यंत्र मानते हैं चाहे युवक-युवतियाँ काम के बोझ से बेमौत मर रही हों जैसा कि पुणे के 26 साल की चार्टर्ड एकाउंटेंट एवं सेबेस्टियन के मामले में हुआ। उसकी माँ ने खुला आरोप लगाया है कि बग़ैर छुट्टी कंपनी लगातार काम करवाती थी जिसके नतीजे में उसकी जान गयी।
मोहन भागवत ने बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं का उदाहरण देकर एकजुट होने का आह्वान किया है। लेकिन भारत के अल्पसंख्यकों की एकजुटता आरएसएस को डराती है। उनकी आये दिन होने वाली लिंचिंग को मोहन भागवत ‘छोटी-मोटी बात’ बता चुके हैं। इस पर दूसरे देशों से उठने वाले सवालों को अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र बताते हैं जबकि चाहते हैं कि बांग्लादेश के हिंदुओं पर होने वाले किसी भी अत्याचार पर पूरी दुनिया को बोलना चाहिए। उनकी नज़र में भारत का 'हिंदू ख़तरे में' है। यह अलग बात है कि ऐसा कहते हुए वे दस साल से ज़्यादा वक्त से जारी मोदी सरकार पर भी टिप्पणी कर रहे हैं जो हिंदुओं समेत सभी देशवासियों की सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार है।
दरअसल, मोहन भागवत कभी नहीं चाहते कि भारत की अस्सी फ़ीसदी आबादी रचने वाले हिंदू समाज में कोई वास्तविक जागरण आये और वह अपनी दुर्दशा के वास्तविक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों को पहचाने। हिंदू समाज की एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा जातिप्रथा के नाश का भी उसका कोई इरादा नहीं है। आरएसएस के लिए हिंदू एकता का मतलब गाँव-गाँव मुसलमानों पर आक्रमण करने को तैयार हिंदू नौजवानों की टोलियाँ हैं। मस्जिद के सामने खड़े होकर मुसलमानों को गाली देना और वहाँ लहराने वाले हरे झंडे को उखाड़कर भगवा झंडा लगाने का उत्पात है। देश की भयानक बेरोज़गारी का दंश झेलते हिंदू नौजवानों के लिए उसके पास यही कार्यक्रम है। नफ़रत के आधार पर हिंदू समाज को ‘संगठित' करके पूँजीवादी लूट का मार्ग प्रशस्त करने वाली राजसत्ता का निर्माण ही आरएसएस का लक्ष्य है। उसके सौ साल का सफ़र का यही हासिल है।
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