राष्ट्रपिता की एक बार फिर हत्या की जा रही है। पहले उनके शरीर का नाश किया गया। फिर उनके आश्रमों और उनकी स्मृतियों से जुड़े प्रतीकों पर हमला किया गया। अब उन्हें मुग़लों के साथ-साथ इतिहास और पाठ्यपुस्तकों से या तो बाहर किया जा रहा है या फिर उनकी हत्या और उनके हत्यारों से जुड़े संदर्भों को सत्ता की ज़रूरतों के मुताबिक़ संशोधित किया जा रहा है। मानकर चला जा रहा है कि ऐसा निर्विरोध कर दिए जाने के बाद गांधी की समाज से वैचारिक, आध्यात्मिक और नैतिक उपस्थिति पूरी तरह ख़त्म कर दी जाएगी !
किसी से छुपा नहीं रह गया है कि गांधी को मारने का काम उनके स्थान पर सावरकर की प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए हो रहा है। निश्चित ही गांधी और सावरकर एकसाथ नहीं रह सकते ! धर्म विशेष की सत्ता की स्थापना में एक के लिए दूसरे को हटाया जाना ज़रूरी है। इस काम को संपन्न करने के लिए 30 जनवरी 1948 और 26 मई 2014 की अवधि के बीच कल्पना नहीं की जा सकती थी। दोनों ही तारीख़ों का भारत की आत्मा के साथ गहरा संबंध स्थापित हो गया है। इतिहास के विद्यार्थी भारत के दूसरे विभाजन की तारीख़ अब ज़्यादा आसानी से तलाश सकते हैं !
ख़ादीधारी गांधीवादी और अपने को बापू का अनुयायी मानने का दंभ भरने वाले कांग्रेसी भी मुखरता के साथ सवाल करने से कतरा रहे हैं कि गांधी के घर में ही बैठकर इतनी हिम्मत के साथ उस व्यक्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करने का दुस्साहस कैसे किया जा सकता है जिस पर राष्ट्रपिता की हत्या के बाद विशेष अदालत में मुक़दमा चलाया गया था। अदालत द्वारा निर्दोष साबित कर दिए जाने के बाद नवम्बर 1966 में गठित एक-सदस्यीय कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था :’ गांधी की हत्या का षड्यंत्र सावरकर और उनके अनुयायियों ने रचा था इसी निष्कर्ष पर आना पड़ता है।’ सावरकर का तब तक निधन हो चुका था।
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गांधी का विचार और उनकी ज़रूरत वर्तमान की विभाजनकारी राजनीति के लिए चरखे से काते गए सूत के बजाय मशीनों से बुने गए पॉलिएस्टर की ऐसी नक़ाब हो गई है जिसके पीछे उनकी सहिष्णुता ,अहिंसा और लोकतंत्र का मज़ाक़ उड़ाने वाले क्रूर और हिंसक चेहरे छुपे हुए हैं। ये चेहरे गांधी विचार की ज़रा-सी आहट को भी किसी महामारी की दस्तक की तरह देखते हैं और अपने अनुयायियों को उसके हिंसक प्रतिरोध के लिए तैयार करने में जुट जाते हैं।
दक्षिणपंथी बहुसंख्यकवाद को हथियारों से सज्जित करने की शर्त ही यही है कि गांधी द्वारा प्रतिपादित धार्मिक सहिष्णुता की हत्या करके उसे अल्पसंख्यक-विरोधी धार्मिक उन्माद में बदल दिया जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गांधी को वैचारिक रूप से ख़त्म किया जाना ज़रूरी है। हिंदुत्व के कट्टरपंथी समर्थकों के लिए वह एक दुर्भाग्यपूर्ण क्षण रहा होगा कि गांधी को उनके शरीर के साथ ही विचार रूप में भी राजघाट पर नहीं जलाया जा सका। इन समर्थकों का मानना हो सकता है कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ और पाठ्यपुस्तकों में क्रूर फेर-बदल के ज़रिए उस अधूरे रहे काम को पूरा करने का वर्तमान से ज़्यादा उपयुक्त अवसर आगे नहीं आ सकेगा।
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एक डरे हुए राष्ट्र की मानसिकता के कारण हम इस बात को स्वीकार करने में संकोच कर रहे हैं कि विचार रूप में गांधी की हमें कोई ज़रूरत नहीं बची है। गांधी की एक व्यक्ति और विचार के रूप में तभी तक ज़रूरत थी जब तक कि राष्ट्र की महत्वाकांक्षाएँ अहिंसक थीं।
जैसे-जैसे नागरिकों के पास हिंसक विचारों और मारक हथियारों का ज़ख़ीरा बढ़ता गया, उजागर होने लगा कि सत्ता गांधी की उपस्थिति का इस्तेमाल हिंसा के लिए हथियारों की ग़रीबी और औद्योगिक पिछड़ेपन के कारण ही कर रही थी। अब सत्ता की नज़रों में गांधी दारिद्र्य, दारुण्य और दया का प्रतीक बन कर रह गए हैं। उसके लिए फ़ाइव ट्रिलियन की इकानमी में प्रवेश करने वाले राष्ट्र को इस तरह के प्रतीकों के साथ नहीं रखा जा सकता !
दक्षिण अफ़्रीका की 7 जून 1893 की घटना की तरह अगर आज की तारीख़ में कोई सवर्ण किसी मोहनदास करमचंद गांधी को ट्रेन से उतारकर प्लेटफ़ार्म पर पटक दे तो कितने लोग उसकी मदद के लिए आगे आने की हिम्मत करेंगे, दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। विदेशों में बसने वाले भारतीय या एशियाई मूल के नागरिक आए-दिन अपने ऊपर होने वाले नस्लीय हमले चुपचाप सहते रहते हैं। इनमें लूट और हत्याएँ भी शामिल होती हैं। इन हमलों के ख़िलाफ़ कहीं कोई कोई छटपटाहट नहीं नज़र आती।
गांधी की प्रतिमाओं के साथ विदेशों में होने वाले अपमान की घटनाओं के प्रति तो सरकार विरोध व्यक्त करती है पर जब अपने ही देश के किसी शहर में गोडसे की मूर्ति बिना किसी विरोध के स्थापित हो जाती है या कहीं और राष्ट्रपिता के पुतले पर सार्वजनिक रूप से गोलियाँ दागकर तीस जनवरी 1948 की घटना का गर्व के साथ मंचन किया जाता है तो कोई पीड़ा नहीं होती ।
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