तमिलनाडु के दुर्गद्वार में सेंध लगाने की जुगत भिड़ा रही बीजेपी ने 24 दिसंबर को एक ग़लती कर दी। राज्य बीजेपी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से पेरियार की पुण्यतिथि पर एक आपत्तिजनक ट्वीट किया गया। इस ट्वीट में पेरियार और उनकी पत्नी के बीच उम्र के अंतर पर तंज़ कसा गया था। ट्वीट के सामने आते ही हंगामा मच गया। डीएमके और दूसरे विपक्षी दलों ने इसके लिए बीजेपी की तीख़ी आलोचना की। बीजेपी की सहयोगी पार्टी और राज्य में सरकार चला रही एआईएडीएमके के लिए भी उसका बचाव करना मुश्किल हो गया और आख़िरकार बीजेपी को इस ट्वीट को हटाना पड़ा।
पेरियार यानी ई.रामास्वामी नायकर। द्रविड़ आंदोलन के प्रणेता। जिन्होंने 'आर्यों' को हमेशा निशाने पर रखा। उन्होंने अपनी सच्ची रामायण में राम को भी निशाने पर लिया। सिर्फ राम को ही क्यों, पेरियार ईश्वर की अवधारणा को भी नहीं मानते थे और ऐसा करने वाले वह सिर्फ भारत नहीं, दक्षिण एशिया या कहें कि पूरे विश्व के अकेले ऐसे विचारक और राजनेता थे जिन्होंने नास्तिकता के खुले प्रचार के बावजूद राजनीतिक सफलता हासिल की और जनता का प्यार पाया।
ज़ाहिर है, महान तर्कवादी कहे जाने वाले पेरियार बीजेपी की आँख में हमेशा खटकते हैं। अपने शुरुआती दिनों में बीएसपी ने उत्तर प्रदेश में ‘पेरियार मेला’ लगाना शुरू किया था, लेकिन बीजेपी से सहयोग लेने की क़ीमत उसे पेरियार से पीछा छुड़ा कर चुकानी पड़ी।
बीएसपी से छिटकी जातियां
2007 में यूपी में अपने बूते सत्ता में आने के बाद मायावती ने लखनऊ में पेरियार की मूर्ति लगाने की योजना बनाई थी, लेकिन राम मंदिर का नाम जपकर राजनीति की मुख्यधारा में आई बीजेपी को ‘राम विरोधी’ का यह सम्मान रास नहीं आया। विनय कटियार जैसे उग्र हिंदुत्ववादी बीजेपी नेताओं ने पेरियार की मूर्ति को तोड़ने का एलान कर दिया और बहुजन से सर्वजन की ओर बढ़ रहीं मायावती ने अपने क़दम पीछे खींच लिए। पेरियार की मूर्ति आज भी लखनऊ में इसे बनाने वाले शिल्पकार के स्टूडियो में रखी है। यह उलट वैचारिक यात्रा बीएसपी को 'हाथी नहीं गणेश है' तक ले गयी। नतीजा यह हुआ कि बीएसपी के 85 प्रतिशत (15 बनाम 85 का कांशीराम का सिद्धांत) में शामिल तमाम जातियाँ रामधुन गाते हुए बीजेपी के साथ चली गयीं।उत्तर भारत में पेरियार से पिंड छुड़ाने में क़ामयाब रही बीजेपी के लिए दक्षिण में पेरियार एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं। तमिलनाडु में पेरियार की वैचारिकी इतनी प्रबल है कि कमल हासन जैसे प्रसिद्ध अभिनेता ने नई पार्टी बनाते हुए पेरियार को ही अपनी प्रेरणा बताया। द्रविड़ पार्टियों के तो मूल में ही पेरियार थे। पेरियार उन्हें सम्मान के रूप में कहा जाता है जिसका अर्थ है - सम्मानित व्यक्ति।
पेरियार का जन्म तमिलनाडु के इरोड में एक समृद्ध नायकर (चरवाहा) परिवार में 17 सितंबर, 1879 को हुआ था। कुशाग्र बुद्धि के पेरियार बचपन से ही तर्क करने में बहुत प्रवीण थे और पूजा-पाठ और ईश्वर की अवधारणा आदि पर ब्राह्मणों को चुनौती देते थे। उन पर राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव पड़ा और 1919 में वह कांग्रेस में शामिल हो गए।
मतभेदों के बाद छोड़ी कांग्रेस
गाँधी जी के अनुयायी बनकर उन्होंने असहयोग आंदोलन में जमकर काम किया। लेकिन 1924 में शूद्रों के मंदिर प्रवेश के लिए किए गए उनके ‘वायकोम सत्याग्रह’ की वजह से कांग्रेस के उच्चवर्णीय नेताओं से उनके मतभेद हो गए। गाँधी जी का रुख भी उन्हें ठीक नहीं लगा। फिर ब्राह्मण वर्चस्व वाली नौकरशाही और विधानसभा में शूद्रों-पिछड़ों की भागीदारी से जुड़े उनके प्रस्ताव ने कांग्रेस संगठन के अंदर लड़ाई को तीख़ा कर दिया और 1925 में पेरियार ने कांग्रेस छोड़ दी।
पेरियार ने ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ चलाते हुए जनता के बीच तर्क और विज्ञान के महत्व को प्रचारित किया। वह पूजा-पाठ और ईश्वर को शूद्रों के ख़िलाफ ब्राह्मणों का षड्यंत्र मानते थे।1932 में वह सोवियत यूनियन गए और वहाँ से बेहद प्रभावित होकर लौटे। उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण हो, पेरियार इसके समर्थक बन गए। उनके समर्थकों के बच्चों का नाम ‘रसिया’ से लेकर ‘मॉस्को’ तक रखा जाने लगा।
पेरियार 1938 से 1944 तक जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष रहे जो ग़ैर-ब्राह्मणों को हर स्तर पर भागीदारी और सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष कर रही थी। साथ ही पेरियार ‘द्रविड़ राष्ट्रवाद’ के भी पुरोधा बनकर उभरे और 1937 के हिंदी विरोधी आंदोलन में गिरफ्तार भी हुए।
1944 में पेरियार ने द्रविड़ कड़गम बनाया जिसने तमिलनाडु की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। आगे चलकर पार्टी में विभाजन हुआ और डीएमके-एआईएडीएमके बनीं लेकिन पेरियार निर्विवाद पथ-प्रदर्शक माने गए। करुणानिधि के बेटे और डीएमके प्रमुख स्टालिन तमिल राजनीति में बड़ी हैसियत रखते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के नायक हैं पेरियार
पेरियार देश के सामाजिक परिवर्तन आंदोलन के बड़े नायक माने जाते हैं। उत्तर भारत में पहले अर्जक संघ और फिर बहुजन समाज पार्टी के आंदोलन ने उनकी पुस्तिकाओं को गाँव-गाँव पहुँचाया। बीजेपी का पेरियार से विरोध का बड़ा कारण ‘सच्ची रामायण’ जैसी उनकी रचना भी है। ‘सच्ची रामायण’ रामायण के तमाम चरित्रों को खलनायक के रूप में पेश करती है। इस किताब को लेकर एक समय उत्तर भारत में भी बहुत बवाल हो चुका है।
समाज सुधारक और आरपीआई के नेता ललई सिंह यादव (जिन्हें उत्तर भारत का पेरियार कहा गया) ने 1968 में ‘सच्ची रामायण’ का हिंदी में अनुवाद किया था। इसके प्रकाशन के बाद बवाल शुरू हुआ और यूपी सरकार ने 20 दिसंबर, 1969 को इसकी कॉपियों को जब्त कर लिया था। ललई सिंह यादव ने इस प्रतिबंध के ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 19 जनवरी 1971 को जस्टिस ए.के.कीर्ति, जस्टिस के.एन.श्रीवास्तव और जस्टिस हरि स्वरूप की बेंच ने किताब से प्रतिबंध हटाते हुए ललई सिंह यादव को 300 रुपये हर्जाना दिलाने का आदेश सुनाया।
हाईकोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ यूपी सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी। लेकिन न्यायपालिका ने ‘भावनाओं के आहत’ होने की दलील पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को तरजीह दी और 16 सितंबर, 1976 को जस्टिस पी.एन.भगवती, जस्टिस वी.आर.कृष्ण अय्यर और जस्टिस मुर्तजा फाजिल अली की पूर्ण बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला बरकरार रखने का आदेश सुनाया।
यह फ़ैसला बताता है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में (जहाँ एक का नायक, दूसरों का खलनायक हो सकता है) सभी को अपनी बात कहने का हक़ है। भारत असहमति पर सहमति के इसी सिद्धांत पर भरोसा रखते हुए ही एक रह सकता है। बीजेपी इसी ‘राष्ट्रीय सहमति’ को तोड़ने में जुटी हुई है।
पेरियार जनता के बीच बड़े कड़े शब्दों में देवी-देवताओं पर प्रहार करते थे। धर्मभीरु लोग कहते थे कि पेरियार पर ईश्वर का कहर टूटेगा...लेकिन पेरियार उल्टा चुनौती देते थे कि अगर भगवान है और उसमें ज़रा भी शक्ति है तो वह उन्हें दंड क्यों नहीं देता...उनका जीवन छीन ले। वह लगातार ऐसा करते थे…और ऐसा करते हुए 24 दिसंबर, 1973 को जब पेरियार स्मृतिशेष हुए तो उनकी उम्र 94 साल हो चुकी थी।
पेरियार की यह घोषणा आज भी उनकी तमाम प्रतिमाओं और स्मति स्थलों पर दर्ज है- 'ईश्वर नहीं है, ईश्वर नहीं है, ईश्वर बिल्कुल नहीं है। जिसने ईश्वर का आविष्कार किया, वह महामूर्ख था। जिसने ईश्वर का प्रचार किया, वह धूर्त था। जो ईश्वर की पूजा करता है, वह बर्बर है।'
- ई.वी.रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’
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