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राम मंदिर निर्माण: ‘भय बिनु होय ना प्रीति’; राम भय के नहीं, प्रेम के प्रतीक हैं 

अयोध्या में राम मंदिर बने इसमें किसे आपत्ति हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को मुसलिम समुदाय ने भी स्वीकार कर लिया है। लेकिन अगर देश के प्रधानमंत्री मंदिर निर्माण के लिए हो रहे भूमिपूजन के वक्त भी “भय” की बात करेंगे तो फिर सवाल तो उठेगा कि आप “डराना” किसे चाहते हैं? वो कौन हैं जो आपके निशाने पर हैं? 
आशुतोष

“जिस देश में अपने अतीत की चेतना न हो, उसका कोई भविष्य नहीं हो सकता। इसी तरह यह भी महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र अपने अतीत को प्राप्त करने की न सिर्फ़ क्षमता विकसित करे बल्कि, उसे यह भी जानना चाहिए कि अपने भविष्य को आगे बढ़ाने के लिए अतीत का कैसे उपयोग किया जाए।” 

हिंदुत्व के आराध्य नेता सावरकर की ये पंक्तियाँ ऐसे वक्त में अनायास ही याद आ जाती हैं, जब पाँच अगस्त को राम मंदिर के निर्माण की औपचारिक शुरुआत होती है। अतीत क्या है ये एक सवाल है। क्या अतीत को पकड़ कर बैठने से ही देश का कल्याण होगा। क्या अतीत की ग़लतियों को ठीक करने के लिए देश को एक सतत युद्ध में झोंके रखना ही राष्ट्रधर्म है या राष्ट्रधर्म ये भी है कि अतीत से सीख कर आगे बढ़ें और नए भारत के निर्माण में नए संप्रत्ययों की खोज करें। 

सावरकर सही कहते हैं कि अतीत का इस्तेमाल भविष्य के निर्माण के लिए करना चाहिए। लेकिन अतीत ही भविष्य हो जाए तो फिर सारी उर्जा ह्रास के काम में लग जाती है। राम मंदिर के निर्माण के समय ये गारंटी से नहीं कहा जा सकता कि आज का सत्ता पक्ष अतीत की जकड़नों से बाहर निकल पाया है, वो अभी भी वहीं जड़ बनकर बैठा हुआ है।

अयोध्या में प्रधानमंत्री क्या कहते हैं, ये अहम नहीं है। आरएसएस प्रमुख क्या कहते हैं ये भी अहम नहीं है। अहम ये है कि यथार्थ के धरातल पर क्या किया जा रहा है और क्या किया जाएगा।

भय किस पर, किसलिए और क्यों? 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में लोकसभा चुनाव जीतने के बाद “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” का नारा दिया था। उसके बाद जो किया गया, वो उसके उलट है। जिस अंदाज में तीन तलाक़ को हटाया गया, जिस तरह से अनुच्छेद 370 को बदल कर जम्मू-कश्मीर के दो टुकड़े किए गए, नागरिकता क़ानून का विरोध करने वालों के साथ जो बर्ताव हुआ या अभी भी किया जा रहा है, वो इसी बात का प्रतीक है कि हिंदुत्ववादी अभी भी अतीत में ही साँस ले रहे हैं और भगवान राम से उन्होंने भले ही कुछ और सीखा हो या न सीखा हो, ये ज़रूर सीखा है कि “भय बिनु होय न प्रीति।” लेकिन ये भय किस पर, किसलिए और क्यों? 
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मंदिर के अवशेष मिले

राम मंदिर आंदोलन के समय ये डंके की चोट पर कहा गया कि मुग़ल बादशाह बाबर के सिपहसालार मीर बाक़ी ने मंदिर को तोड़ कर बाबरी मसजिद बनवाई थी। मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता कि बाबर ने ऐसा करने के लिए आदेश दिया था या नहीं क्योंकि इसका कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है। लेकिन इस बात का प्रमाण ज़रूर है कि जहां मसजिद थी वहाँ मंदिर के अवशेष मिले हैं। यानी यह कहा जा सकता है कि मंदिर को तोड़ कर मसजिद बनायी गयी। 

लेकिन इस बात के पुख़्ता ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि बाबर ने मुग़ल काल की स्थापना के बाद अपने बेटे हुमायूँ से क्या कहा था और जो बाबर ने कहा था उस पर आज भी हिंदुत्ववादियों को गौर करने की ज़रूरत है और इतिहास को लेकर अपनी दृष्टि को बदल कर नए सिरे से शुरुआत करने की आवश्यकता है।

बाबर का वसीयतनामा 

बाबर ने हुमायूँ के लिए वसीयतनामा लिखा था। रामधारी सिंह दिनकर अपनी किताब “संस्कृति के चार अध्याय” में बाबर को उद्धृत करते हैं - “हिंदुस्तान में अनेक धर्मों के लोग बसते हैं। भगवान को धन्यवाद अदा करना कि उन्होंने तुम्हें अपना बादशाह बनाया है। तुम तअस्सुब (पक्षपात) से काम न लेना; निष्पक्ष होकर न्याय करना और सभी धर्मों की भावना का ख़्याल रखना। हिंदू गाय को पवित्र मानते हैं, अतएव जहां तक हो सके गोवध नहीं करवाना और किसी भी संप्रदाय के पूजा के स्थान को नष्ट नहीं करना।” यह संभव है कि इस बात को कहने वाले बाबर ने हो सकता है कि हिंदुओं के धार्मिक स्थलों को तोड़ा हो और उनकी जगह मसजिदें बनवायी हों।  

सावरकर को पढ़ें हिंदुत्ववादी

तो क्या इतिहास के इस पन्ने को पकड़ कर भारत बैठा रहे? क्या हिंदुत्ववादियों को ये बताने की ज़रूरत है कि सावरकर ने खुद इस संदर्भ में क्या कहा था। सावरकर ने कहा था, “राष्ट्र को अपने इतिहास का मालिक होना चाहिए, ग़ुलाम नहीं, क्योंकि यह निहायत मूर्खपन होगा कि कुछ चीज़ें अब भी की जाएं क्योंकि वो अतीत में की गई थीं।” 

सावरकर के आगे की पंक्ति आज के हिंदुत्ववादियों को शायद पसंद न आए। वो कहते हैं- “शिवाजी के वक्त में मुसलमानों से नफ़रत ठीक है और वह ज़रूरी थी। लेकिन अब ऐसी भावना रखना क्योंकि तब वह हिंदुओं में इतने ज़ोर पर थी, न केवल ग़लत, बल्कि मूर्खतापूर्ण होगा।” 

ऐसा नहीं है कि बाबर ने हुमायूँ को जो लिखा वो अपवाद है। हुमायूँ के बेटे अकबर ने भारत पर 49 साल तक शासन किया। उसने एक कमजोर साम्राज्य को भारत ही नहीं बल्कि विश्व के सबसे बड़े और समृद्ध शासन में तब्दील किया और ये उसने इसलाम और तलवार के बल पर नहीं किया था। 

अकबर से उस वक्त के मुसलिम कट्टरपंथी काफ़ी ख़फ़ा रहते थे। अकबर सुबह उठ कर महल के सबसे ऊँचे बुर्ज से सूर्य को अर्घ्य देता था और उसको ऐसा करते देखने वालों की भीड़ रोज़ इकठ्ठा होती थी। बदायूँनी इस बात से इतना चिढ़ता था कि उसने लिखा- “बादशाह सूरज की ओर मुँह कर के खड़े होते हैं, मक्का की ओर नहीं।”  

अकबर ने गो हत्या पर पाबंदी लगाई थी। हिंदुओं पर लगने वाले जज़िया कर को हटाया था। रोज़ शाम को दरबार में जब रोशनी जलती थी तो सबको हिंदुओं की तरह खड़े होकर प्रणाम करना पड़ता था। वो राखी बँधवाता था और हफ़्ते के कुछ दिन मांसाहार नहीं करता था।

अकबर को नापंसद थी कट्टरता 

अकबर सभी धर्मों के जानकारों को फ़तेहपुर सीकरी में इकठ्ठा कर धर्म की बारीकी पर चर्चा करता था। धर्मों की कट्टरता उसे कुपित करती थी। वह उनपर तगड़ी चोट करता था। 

एक जगह अकबर कहता है, “मैं ये देखता हूँ अलग-अलग धर्मों की अलग-अलग परंपराएं और मान्यताएं हैं। हिंदू, मुसलमान, यहूदी, यज़ीदी, और ईसाईयत्व अलग-अलग हैं। लेकिन हर धर्म के मानने वाले अपनी धार्मिक संस्थाओं को दूसरों से बेहतर मानते हैं। इतना ही नहीं वो दूसरों को अपने धर्म में परिवर्तित भी कराना चाहते हैं और जब ऐसा नहीं होता है तो वे न केवल ऐसे शख़्स से नफ़रत करते हैं, ऐसे लोगों को अपना शत्रु भी मानने लगते हैं और इससे मेरे मन में (धर्म के प्रति) संदेह और संकोच पैदा होता है।” 

अकबर इतना खुला हुआ था कि ईसाई मिशनरियों को ये लगता था कि वो उसे ईसाई बना लेंगे लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। अकबर के बाद जहांगीर और शाहजहाँ भी कमोबेश इसी नीति पर चले। दिलचस्प बात ये है कि दोनों की रगों में मुसलिम के साथ हिंदू खून भी दौड़ता था। 

निश्चित तौर पर औरंगज़ेब मुग़ल सल्तनत को इसलामिक कट्टरता की ओर ले गया! पर उसका बड़ा भाई दारा शिकोह वेद और उपनिषद का न केवल बड़ा जानकार था बल्कि उसने इनके फ़ारसी में अनुवाद भी करवाए थे। 

औरंगज़ेब की कट्टरता का क्या हस्र हुआ, ये बताने की ज़रूरत नहीं है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि हिंदुत्ववादी अतीत को एक ही चश्मे से क्यों देखते हैं? उन्हें अतीत में ये चीज़ें क्यों नहीं दिखायी पड़तीं?

हिंदुत्ववादियों को न तो अकबर दिखता है और न ही अमीर खुसरो, जो कहते हैं, “संभव है कोई मुझसे पूछे कि भारत के प्रति मैं इतनी श्रद्धा क्यों रखता हूँ। मेरा उत्तर यह है कि केवल इसलिए कि भारत मेरी जन्मभूमि है, भारत मेरा अपना देश है। खुद नबी ने कहा है कि अपने देश का प्रेम आदमी के धर्म प्रेम में सम्मिलित है।

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किसे “डराना” चाहते हैं?

सवाल दृष्टि का है। नज़रिये का है। अयोध्या में राम मंदिर बने इसमें किसे आपत्ति हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को मुसलिम समुदाय ने भी स्वीकार कर लिया है। लेकिन अगर देश के प्रधानमंत्री मंदिर निर्माण के लिए हो रहे भूमिपूजन के वक्त भी “भय” की बात करेंगे तो फिर सवाल तो उठेगा कि आप “डराना” किसे चाहते हैं?

वो कौन हैं जो आपके निशाने पर हैं? भारत के इतिहास में अकबर और अशोक, दो सम्राट हुए हैं, जिन्होंने भले ही तलवार के इस्तेमाल से परहेज़ न किया हो लेकिन उनकी शक्ति, मान्यता और महानता हिंसा से नहीं थी! अतीत उनका गुणगान शांति, अहिंसा और सौहार्द्र के पुजारी के तौर पर करता है। और दोनों के ही साम्राज्य अपने-अपने समय के सबसे वैभवशाली साम्राज्य थे। उनकी बुनियाद भय पर नहीं टिकी थी। वे भय से प्रीति नहीं करवाते थे। 

राम के पूरे चरित्र में भय की प्रधानता नहीं है। वो शबरी के राम हैं। संघ परिवार की दिक्कत ये है कि उसे सत्य और अहिंसा की ताक़त पर यक़ीन नहीं है। संघ के लोग भव्यता को “परम वैभव” समझ लेते हैं। राम का वैभव सरलता में है। प्रेम में है। सादगी में है। क्रोध उनका चरित्र नहीं है।

विनयशीलता उनका मूल तत्व है। राम की महानता और उनकी दिव्यता भव्य मंदिर बनने में नहीं है, उनकी दिव्यता प्रेम का मंदिर बनने में है। ये बात संघ को कौन समझाए कि जो कण-कण में व्याप्त हैं उनको किसी मंदिर की दरकार नहीं है, वे तो प्रेम के प्यासे हैं। पर प्रेम का रास्ता इतना आसान नहीं है। कबीर दास कह गए हैं - 

प्रेम न बारी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाए, 

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ लै जाए । 

यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहीं, 

सीस काटि भुइयां धरो, तब पैठो घर माहि। 

प्रेम में शीश कटाना पड़ता है। गांधी बनना पड़ता है। संघ में ये नैतिक बल नहीं है और न ही मौजूदा सत्ता पक्ष में है। 

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