भारतीय वायुसेना के पास लड़ाकू विमानों के 42 स्क्वाड्रन (एक स्क्वाड्रन में 18 से 20 विमान) होने चाहिये लेकिन इनकी संख्या घट कर 30 रह गई है और यह बेहद चिंताजनक बात है। इसे लेकर भारतीय सामरिक हलकों में गहन चिंता जाहिर की जाती रही है लेकिन राजनेता अपनी सुविधा, अपने हितों और अपने नजरिये से ही फ़ैसले लेते हैं।
रफ़ाल के बावजूद भारतीय वायुसेना की मारक क्षमता में कोई क्रांतिकारी इज़ाफा नहीं होने वाला। वायुसेना में जब तक 36 रफ़ाल यानी इसके दो स्क्वाड्रन शामिल हो जाएंगे तब तक वायुसेना के लड़ाकू विमानों के मिग वर्ग के दो-तीन स्क्वाड्रनों को रिटायर करना होगा।
वायुसेना के पिछले एयर चीफ़ मार्शल बीएस धनोआ ने कहा था कि रफ़ाल होता तो बालाकोट हमले के नतीजे कुछ और ही होते। यानी उनके कहने का अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि जिन मिराज-2000 विमानों से बालाकोट आतंकी ठिकाने पर हमला किया गया उसे वांछित नतीजे नहीं मिले थे।
ख़रीदे जायेंगे 114 लड़ाकू विमान
लेकिन अब 2007 के 126 लड़ाकू विमानों का प्रस्ताव फिर से कागजों पर उतार दिया गया है। इसमें थोड़ा संशोधन करते हुए 114 लड़ाकू विमानों को हासिल करने का पुराना प्रस्ताव फिर से अमल में लाने के इरादे से पिछले साल ही इस पर कागजी कार्रवाई शुरू की गई है। इस विमान सौदे के लिये टेंडर निकाला जा चुका है लेकिन पिछली बार से विपरीत इस टेंडर में एक बड़ा फर्क यह होने वाला है कि विदेशी कम्पनी को इसके लिये भारतीय साझेदार कम्पनी को चुनना होगा और टेंडर जीतने वाली विदेशी कम्पनी को भारतीय कम्पनी की साझेदारी से भारत में ही अपना विमान बनाना होगा ताकि इसे ‘मेड इन इंडिया’ विमान कहा जा सके।
चूंकि विमान को बनाने वाली विदेशी कम्पनी का चयन करने में दो साल का वक्त लग सकता है और सौदा पूरा करने में और भी देरी हो सकती है इसलिये 114 नये विमानों का नया सौदा करने में तीन-चार साल का वक्त लगने की सम्भावना है। इसलिए भारतीय वायुसेना को अगले दशक के मध्य से ही नये लड़ाकू विमान मिलने की उम्मीद करनी चाहिये। यानी तब तक भारतीय वायुसेना के स्क्वाड्रनों की संख्या यदि तीस से घटी नहीं तो स्थिर ही रह पाएगी।
चूंकि 2007 में मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) श्रेणी के 126 विमानों का टेंडर निकाला गया था और इसके बदले सितम्बर, 2016 में केवल 36 विमानों का ही सौदा किया गया इसलिये वांछित संख्या में लड़ाकू विमानों को नहीं हासिल करने के फ़ैसले से भारतीय वायुसेना में लड़ाकू विमानों का संकट बरकरार रहेगा।
सामरिक हलकों में चिंता की एक और बात यह पैदा हुई है कि पांचवीं पीढ़ी के जिस रुसी विमान के साझा विकास और उत्पादन पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं, वह योजना अब रद्द की जा चुकी है और वायुसेना से कहा गया है कि भारतीय रक्षा शोध एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) द्वारा गत एक दशक से विकसित किये जा रहे एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एय़रक्राफ्ट (एमका) पर नज़र रखे और विदेशों से पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान के आयात की ज़रूरत नहीं है।
वायुसेना ने सरकार के इस फ़ैसले का समर्थन किया है लेकिन सामरिक हलकों में कहा जा रहा है कि प्रस्तावित एमका लड़ाकू विमान का पहला प्रोटाटाइप 2025 में ही विकसित हो सकेगा। चूंकि प्रोटाटाइप बनाने और वास्तविक इस्तेमाल वाला वैमानिकी उत्पाद बनाने में चार-पांच साल और वक्त लगना लाजिमी है, इसलिये हम कह सकते हैं कि पांचवी पीढ़ी के स्वदेशी लड़ाकू विमान के लिये भारतीय वायुसेना को कम से कम एक दशक और इंतजार करना होगा।
दूसरी ओर, पाकिस्तानी वायुसेना के पास भारत के मौजूदा 30 के मुक़ाबले 28 स्क्वाड्रन लड़ाकू विमानों का भंडार है। इसलिये यदि तुलनात्मक तौर पर देखें तो पाकिस्तान की वायुसेना से 19-20 का ही फर्क है। इस नज़रिये से भारतीय वायुसेना की यह चिंता बरकरार रहेगी कि पाकिस्तानी वायुसेना के मुक़ाबले भारतीय वायुसेना का पलड़ा कितना अधिक भारी रह सकेगा।
पाकिस्तानी वायुसेना के पास हालांकि रफ़ाल की क्षमता वाला कोई विमान नहीं है लेकिन वह चीनी जेएफ़-17 लड़ाकू विमानों का स्वदेशी उत्पादन कर रहा है जो कि काफ़ी क्षमतावान माना जाता है। इसके अलावा पाकिस्तान के पास अमेरिकी एफ़-16 लड़ाकू विमानों के तीन स्क्वाड्रन विमान हैं। ये सभी विमान युद्ध के दौरान भारत के लिये सिरदर्द साबित होंगे।
बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक के बाद जिस तरह 28 फ़रवरी को पाकिस्तानी वायुसेना ने अपने एफ़-16 और जेएफ़-17 विमानों का जत्था भारतीय इलाक़े में भेजकर सनसनी पैदा कर दी थी, वह भारतीय वायुसेना के लिये सबक होना चाहिये।
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