जो कहते थे - महिलाएँ कोई बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा कर सकतीं, उन्हें क़रारा जवाब है शाहीन बाग़। जिन्हें लगता था कि औरतें कभी एकजुट नहीं हो सकतीं, उनके मुँह पर लगा ताला है शाहीन बाग़। जिन्हें औरतों की क़ाबिलियत और सरोकारों पर शक था, उनके लिए सवाल है शाहीन बाग़। और जिनके बारे में आप सोचते थे कि बुर्कानशीं, पर्दानशीं औरतें कुछ नहीं कर सकतीं, उनको अवाक कर दिया है शाहीन बाग़ की औरतों ने।
दिल्ली के शाहीन बाग़ में नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में महीने भर से प्रदर्शन जारी है। हर दिन हज़ारों लोग वहाँ जमा हो रहे हैं। दिल्ली पुलिस की लगातार धमकियों के बावजूद भीड़ कम नहीं हो रही है बल्कि बढ़ती चली जा रही है। यह देश का अभूतपूर्व आंदोलन है, सदियाँ इसे याद रखेंगी। इसकी लहक देश भर में फैल गई है और हर शहर में एक शाहीन बाग़ बन गया है। इस आंदोलन ने समूची दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है।
मोर्चे पर डटी औरतों का हौसला अभी तक टूटा नहीं है। किसी भी भयंकर कार्रवाई की आशंका के बावजूद वे हिम्मत नहीं हार रही हैं। उनके ख़िलाफ़ किसी भी पल कुछ भी हो सकता है। सरकार का दिमाग़ घूम गया है कि इस आंदोलन से कैसे निपटे। उसके सारे रणनीतिकार विफल हो गए हैं। इतने बड़े जनांदोलन के बारे में वे सोच भी नहीं सकते थे। शुरू में केंद्र सरकार ने इसे हल्के में लिया जैसे वे किसी धरना-प्रदर्शन को लेते रहे हैं।
शाहीन बाग़ को हल्के में लेना सरकार को भारी पड़ गया। अब सरकार की पेशानी पर बल पर आ गए हैं और इस आंदोलन ने उसकी नाक में दम कर दिया है। सरकार अगर इन महिलाओं के साथ बल प्रयोग पर उतारु हो जाए तो इस पर कोई आश्चर्य नहीं होगा।
मगर हौसले हैं कि टूटेंगे नहीं
इस बार सरकार का पाला पड़ा है उन पर्दानशीं औरतों से, जो कभी बोली नहीं। हमेशा पर्दे का लिहाज किया। जिन पर लोग तंज कसते रहे। अब वे उतर आई हैं बग़ावत पर। परचम उनके हाथों में है। उन्होंने अपने दृढ़ इरादों से जता दिया है कि वे डिगेंगी नहीं। इरादा कर लिया तो कर लिया।
यहां याद दिलाना ज़रूरी है कि जब-जब महिलाओं ने ठाना है, इतिहास बना दिया है। “चिपको आंदोलन” शायद सबको याद होगा। इतिहास में इस आंदोलन की अमिट छाप है। इस घटना को 45 साल से ज़्यादा हो गए हैं। तब महिलाओं ने “चिपको आंदोलन” जैसा व्यापक आंदोलन चलाकर पुलिस-प्रशासन को झुकने पर मजबूर कर दिया था। ऐसे अनेक आंदोलनों का इतिहास सामने है।
इनका परवाज़ किसी के रोके न रुकेगा। शाहीन का अर्थ फारसी भाषा में पक्षी होता है, जो परवाज़ (उड़ान) भरते हुए अपना शिकार करता है।
यह सच है कि इस आंदोलन ने सारे बैरियर तोड़ दिये हैं, सारे मिथक ढहा दिए हैं। यह मसला अब हिंदू-मुसलमान का नहीं रहा। सिर्फ मुसलिम औरतें नहीं, उनके साथ हिंदू औरतें भी आंदोलन में शामिल हैं। पहल ज़रूर उन्होंने की और देखते-देखते यह आंदोलन सबका हो गया।
कुतर्की लोगों के सवाल
कुतर्की लोग तरह-तरह के सवाल उठाते हैं कि इन घरेलू औरतों को एनआरसी और सीएए के बारे में ग़लत जानकारी है या उन्हें कोई और हवा दे रहा है। उन्हें अंदाजा ही नहीं है कि ये औरतें अपनी अंतरात्मा की पुकार पर, अपनी समझ के कारण सड़क पर उतरी हैं। उन्हें मालूम है कि इस नये क़ानून से उनके समाज का, ग़रीब तबक़े का, आदिवासियों का क्या हाल होगा। अपने ही मुल्क में हम अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाएंगे तो कहां जाएंगे। जिस मुल्क में रहते आए हैं, जिस मुल्क से प्रेम करते हैं, उसी मुल्क में अपनी नागरिकता साबित करनी पड़े तो इससे बड़ा दुख क्या होगा। क्या क्रूर हुकूमतें इस तकलीफ़ को समझती हैं।
कितना शर्मनाक और भयावह होगा जब देश में 130 करोड़ लोग अपने नागरिक होने का प्रमाण पत्र ढूंढेंगे और कागजों के अभाव में अपनी नागरिकता साबित न होने पर आंसू बहाएंगे।
वे जानते हैं कि जो लोग भी एनआरसी में फ़ेल होंगे, उन सबको किसी ट्रिब्यूनल या कोर्ट की प्रक्रिया से गुजरना होगा और ये सब लंबी प्रक्रिया होगी, बेहद तकलीफदेह भी। नागरिकता बहाल होने तक क्या क्या क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। सबकुछ पता है शाहीन बाग़ की महिलाओं को।
हुकुमत के लोग आरोप लगा रहे हैं कि पैसा लेकर यह आंदोलन चल रहा है। इसका मतलब है कि वे महिलाओं को रत्ती भर भी नहीं जानते। जानते होते तो ऐसी वाहियात बातें नहीं करते। पैसे देकर रैलियों में भीड़ जुटाई जाती है, पैसा देकर रातों-रात जनता का वोट ख़रीद सकते हैं लेकिन पैसा देकर किसी स्त्री को आंदोलन के लिए नहीं खड़ा कर सकते जबकि उसके भीतर इसके प्रति ग़ुस्सा और जज्बा न पैदा हो।
शाहीन बाग़ की औरतें व्यावसायिक धरनेबाज़ नहीं हैं जैसी हुकुमतें तैयार करती हैं, पार्टी समर्थकों के रूप में। जो उनके लिए घड़ा फोड़ने, नारेबाज़ी करने पार्टी दफ्तरों पर जुट जाती हैं। उनमें अधिकांश औरतों को पता ही नहीं होता कि मामला क्या है। बस इतना पता होता है कि उनकी स्त्री-शक्ति का फायदा अपने लाभ के लिए राजनीतिक दल उठा रहे हैं। ये महिलाएं उस पार्टी की प्राथमिक सदस्य होती हैं। बनारस में ऐसा नजारा मैं अपनी आंखों से देख चुकी हूं, कानों से सुन चुकी हूं। कुछ वर्ष पूर्व बनारस में दीपा मेहता की “वाटर” फ़िल्म की शूटिंग के दौरान विरोध प्रदर्शन में शामिल महिलाओं को पता ही नहीं था कि “वाटर” फ़िल्म की स्क्रिप्ट में ऐसा क्या है जिसके विरोध के लिए उन्हें सड़क पर उतरना पड़ा है।
कुतर्की लगाते रहे लांछन, तोहमतें
लग्गुओं-भग्गुओं से इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जा सकती है। उन्हें आज समझ में नहीं आ रहा है कि आग उनके घर को भी लगेगी एकदिन। उनका मुल्क भी पराया हो सकता है। आज वे ठहाके लगा रहे हैं, नागरिकता क़ानून पर मस्ती में झूम रहे हैं। महास्वार्थी और नासमझ तो ये लोग हैं न कि आंदोलनकारी महिलाएं।
ऐसे लोगों को सर्वेश्वर की यह कविता याद कर लेनी चाहिए-
“यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रही हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो
यदि हां तो
तो मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना है
देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाक़ी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें।”
शाहीन बाग़ जगा हुआ है, ठंड में सिकुड़ रहा है, आशंका से मन ही मन कांप रहा है लेकिन अपनी जगह डटा हुआ है। शाहीन बाग़ की महिलाएं उठ खड़ी हुई हैं। इस बार राह थोड़ी कठिन है। संघर्ष बहुत बड़ा है। हुकुमत से टकराव है। अपने लोगों का ही साथ पूरा नहीं मिल रहा है। नासमझ लोग, हुकुमत के प्रशस्ति गायन-वाचन में व्यस्त हैं। इस आंदोलन को कुचलने के षड्यंत्र में शामिल हो रहे हैं। मनोबल तोड़ने के लिए तरह-तरह के आरोपों की झड़ी लगी हुई है।
जाइए...एकबार देख आइए...सच्चाई का ताप महसूस करिए। अपने वातानुकूलित कमरों में बैठ कर उसे बिकाऊ साबित मत करिए। मुल्क सबका है। ये आंदोलन अपने मुल्क से प्रेम का सबसे बड़ा सबूत है।
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