एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली में प्रदूषण यानी इससे होने वाली बीमारियों से हर रोज़ कम से कम 80 मौतें होती हैं। डॉक्टर कहते हैं कि खाँसी, जुकाम जैसी मामूली बीमारी से लेकर दमा, कैंसर और ब्रेन स्ट्रोक तक प्रदूषण की देन हैं। हाल ही में आई रिपोर्ट में बताया गया है कि इस साल की जनवरी पिछले चार सालों में अब तक की सबसे प्रदूषित जनवरी है। 20 जनवरी तक दिल्ली में 7 दिन से प्रदूषण ख़तरनाक स्तर पर था। साल के पहले ही महीने में दिल्लीवालों के लिए प्रदूषण के कारण जान पर बन आई है। प्रदूषण का यह भूत दिनों-दिन और डरावना होता जा रहा है। प्रदूषण इतना डराने लगा है कि अब सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कहने लगे हैं कि हम रिटायर होकर दिल्ली में नहीं रहेंगे क्योंकि दिल्ली अब रहने लायक नहीं रह गई।
अगर कई-कई एकड़ के बंगले में हरियाली के बीच बनी कोठी में रहने वालों को प्रदूषण सता रहा है तो सवाल यह उठता है कि आम जनता कहाँ जाए। दिल्ली की पौने दो करोड़ आबादी में से दिल्ली छोड़कर जाने का विकल्प तो कुल मिलाकर एक लाख लोगों के पास भी नहीं होगा। बाक़ी लोग कहाँ जाएँ। आख़िर दिल्ली के हुक्मरानों ने, राजनीतिक दलों ने, अफ़सरशाही ने या फिर ख़ुद दिल्लीवालों ने ऐसा क्या किया है कि दिल्ली में प्रदूषण का लेवल कम हो सके।
आज हम दिल्ली का एयर क्वालिटी का इंडेक्स देखते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इंडेक्स 100 से नीचे रहे तो फिर सेहत के लिए ठीक है। 100 से 200 तक ख़राब, 200 से 300 तक बहुत ख़राब और 300 से 400 तक ख़तरनाक हो जाता है।
इससे ज़्यादा को तो परिभाषित भी नहीं किया गया, लेकिन दिल्ली में एयर क्वालिटी को नापने के लिए क़रीब 40 स्थानों पर लगी मशीनों में से ज़्यादातर ऐसी हैं जो 999 से आगे का डाटा नहीं ले पातीं और यहाँ प्रदूषण 999 को भी पार कर जाता है। एयर क्वालिटी इंडेक्स के लिए मशीनें 2015 में लगी थीं। इत्तेफ़ाक से दिल्ली में केजरीवाल सरकार भी तब ही बनी थी। तब से अब तक हालात लगातार बिगड़े ही हैं। पहले कहा जाता था कि गर्मियों में तेज़ हवाएँ चलती हैं तो प्रदूषण कम हो जाता है। इसी तरह सर्दियों में भी प्रदूषण कम हो जाता है लेकिन अब सभी हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहते हैं कि बारिश हो जाएँ तो फिर प्रदूषण का लेवल कम हो जाए। दिल्ली पूरे साल गैस चैम्बर बनी नज़र आती है।
प्रदूषण की चिंता किसे?
- इसकी वजह यह है कि दिल्ली में इस समय प्रदूषण में पीएम-2.5 और पीएम-10 का लेवल ज़्यादा होने के कारण चिंताजनक है। अगर वाहनों का धुआँ हो तो फिर नाइट्रोजन ऑक्साइड और कार्बन ऑक्साइड का लेवल बढ़ता है। यहाँ तो धूल के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है और उस पर रोक लगाने के लिए किसी भी स्तर पर बड़ी कोशिशें नहीं हो रहीं।
दिल्ली में जब से आप सरकार आई है, ख़ासतौर पर छोटी सड़कों की मरम्मत का काम नहीं हो पा रहा। यह काम एमसीडी के ज़िम्मे है और उसके पास सैलरी के लिए भी पैसा नहीं है। आप सरकार कहती है कि भ्रष्टाचार इतना ज़्यादा है कि एमसीडी में काम नहीं हो रहा। इस टकराव में टूटी सड़कों से सबसे ज़्यादा गर्द उड़ रही है। इसकी वजह से ट्रैफिक जाम होता है तो पॉल्यूशन का लेवल और बढ़ जाता है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट और मेट्रो की क्नेक्टिविटी पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा।
बसें क्यों कम हुईं?
आप सरकार के आने के बाद दिल्ली में बसों की तादाद क़रीब 2 हज़ार कम हो गई है। वह कहते हैं कि अदालती चक्कर के कारण बसें नहीं ख़रीदी जा रहीं। अब एक हज़ार इलेक्ट्रिक बसें लाने के लिए प्रयोग किए जा रहे हैं।
हैरानी की बात यह है कि दिल्ली में बसें तो पहले ही सीएनजी से चल रही हैं और सीएनजी को सबसे साफ़ फ़्यूल बताने का दावा तो दिल्ली सरकार ने ही किया था। सुप्रीम कोर्ट या एनजीटी में से किसी ने नहीं कहा कि दिल्ली में सीएनजी के कारण प्रदूषण फैल रहा है तो फिर इलेक्ट्रिक बसें क्यों लाई जा रही हैं?
- सीएनजी की लो फ़्लोर बस की क़ीमत 55 लाख से 85 लाख के बीच है जिसमें मेंटेनेंस भी शामिल है। इससे पहले आप सरकार का कहना था कि इतनी महँगी बस क्यों लाई जाए जबकि 30 लाख रुपए में सेमी लो फ़्लोर बसें मौजूद हैं। अब 2 करोड़ रुपए की इलेक्ट्रिक बस लाने का प्रस्ताव आप कैबिनेट ने ही पास कर दिया है। आख़िर क्यों? सड़कों पर धूल तो इलेक्ट्रिक बसें उतनी ही उड़ाएँगी।
जहाँ तक सड़कों की सफ़ाई का काम है तो एमसीडी उसमें पूरी तरह नाकामयाब रही है। कुछ इलाक़ों में बड़ी सड़कों की सफ़ाई तो मशीनों से हो रही है लेकिन बाक़ी काम अभी भी सफ़ाई कर्मचारी लंबी झाड़ू से कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि 'आप' सरकार ही पूरी तरह ज़िम्मेदार है। इससे पहले की सरकारों ने भी दिल्ली में प्रदूषण पर कंट्रोल करने के लिए कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। उल्टे यही कोशिश रही कि सुप्रीम कोर्ट के सख़्त निर्देशों को टाला जा सके।
जब दिल्ली के रिहायशी इलाक़ाे से फ़ैक्ट्रियाँ हटाने का आदेश आया था तो दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा ने इसका डटकर विरोध किया था। इसी तरह जब सीएनजी लाने की बात हुई तो दिल्ली विधानसभा में प्रस्ताव पास करके शीला सरकार ने सीएनजी को लाने पर एतराज जताया था। अगर तब सुप्रीम कोर्ट सख्त न रहता तो फिर ये कदम भी कहां उठ पाते। सीलिंग के बावजूद रिहायशी इलाकों में तो अब भी फ़ैक्ट्रियाँ चल रही हैं और राजनीतिक दल उससे बचाव के रास्ते तलाशने में जुटे रहते हैं।
मिडल क्लास मजबूर या ग़ैर-ज़िम्मेदार?
सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी की सख़्ती तो बरक़रार है लेकिन उस पर भी कई बार सवाल उठते हैं। ख़ासतौर पर कारों की उम्र 10 और 15 साल करने का फ़ैसला आम जनता के गले कभी नहीं उतर पाया। अगर कमर्शियल गाड़ियों को हटाने की बात हो तो समझ में आती है लेकिन एक मिडल क्लास आदमी जो सारी उम्र की कमाई से एक कार खरीद पाता है और 10 साल में एक लाख किलोमीटर की सीमा तक भी नहीं पहुँच पाता, उसकी गाड़ी का कबाड़ में बिकना उसे सोचने पर मजबूर करता है कि यह कहाँ का इंसाफ़ है। वह भी तब, जब हम देखते हैं कि दिल्ली का ट्रांसपोर्ट विभाग सड़कों पर दौड़ने वाली गाड़ियों का प्रदूषण कभी चेक ही नहीं कर पाता क्योंकि उसके पास स्टाफ़ ही नहीं है। आज दिल्ली में सिर्फ़ 10 फ़ीसदी लोग ही पॉल्यूशन सर्टिफ़िकेट लेते हैं। इससे यह भी अंदाज़ा हो जाता है कि हम ख़ुद प्रदूषण से कितने चिंतित हैं। दिल्ली की जनता ख़ुद भी प्रदूषण कम करने के लिए सरकारी असफलता पर तो उँगली उठाती है लेकिन अपनी ज़िम्मेदारी से हमेशा ही हाथ झाड़ लेती है।
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