गुजरात में 2002 की हिंसा के बाद राज्य के दौरे पर गये तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक पत्रकार-वार्ता में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘राजधर्म’ की याद दिलायी थी। उन्होंने कहा था- “मुख्यमंत्री के लिए मेरा सिर्फ़ एक संदेश है कि वह राजधर्म का पालन करें---राजधर्म—ये शब्द काफ़ी सार्थक है। मैं इसी का पालन कर रहा हूँ। राजा के लिए शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता। न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर, न संप्रदाय के आधार पर।”
साझा सरकार का नेतृत्व कर रहे प्रधानमंत्री वाजपेयी ने मुख्यमंत्री को ‘राजधर्म’ की याद दिला कर दरअसल अपने ‘राजधर्म’ का पालन किया था। भारतीय संविधान की आत्मा में बसे इस ‘राजधर्म’ में प्रधानमंत्री किसी दल का नहीं पूरे देश का होता है। किसी भी नागरिक को होने वाली पीड़ा से संवेदित होने के लिए उसकी जाति, धर्म, क्षेत्र या नस्ल जानने की उसे ज़रूरत नहीं पड़ती। इस ‘राजधर्म’ की नज़र में किसी भी नागरिक के प्रति होने वाला अन्याय सिर्फ़ ‘अन्याय’ होता है जिसे रोकना और अपराधी को सज़ा दिलाना राज्य की ज़िम्मेदारी होती है।
लेकिन 21 सालों में नर्मदा से लेकर इम्फ़ाल ( मणिपुर की प्रमुख नदी) तक में बहुत पानी बह चुका है। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर हैं और उन्हें मणिपुर के मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह को राजधर्म की याद दिलाने की तब भी जरूरत महसूस नहीं हुई जब दो महिलाओं की ‘नग्न परेड’ के वीडियो ने दुनिया के हर संवेदनशील इंसान को शर्मसार कर दिया है (इस्तीफ़ा माँगने का तो सवाल ही नहीं। वह तो वाजपेयी भी कहाँ ले पाये थे!)। इतना ज़रूर हुआ कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई थू-थू और सुप्रीम कोर्ट के कड़े तेवर को देखते हुए 79 दिनों से जारी प्रधानमेत्री की चुप्पी टूटी और उन्होंने संसद के बाहर ‘छत्तीस सेकेंड’ का अफ़सोस ज़ाहिर किया।
एन.बीरेन सिंह के शासन में मणिपुर में गृहयुद्ध के हालात हैं और सूबे के सभी समुदायों के मुख्यमंत्री के बजाय एन.बीरेन सिंह ‘मैतेई हीरो’ में बदल गये हैं। कुकी आदिवासियों को सबक़ सिखाने के लिए ‘अपने हीरो’ के नेतृत्व में मैतेई पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने पूरे घोड़े खोल दिये हैं। ये संयोग नहीं कि सरकार के शस्त्रागार से चार हज़ार से ज़्यादा एसॉल्ट राइफ़लें और लाखों गोली-बारूद उपद्रवियों तक ‘बिना किसी लूटपाट’ के पहुँच गयीं। सरकार इन हथियारों को वापस पाने के लिए सख़्ती करने के बजाय अनुनय-विनय कर रही है। जगह-जगह ड्रॉप बॉक्स लगाकर हथियार वापस करने क गुहार लगायी जा रही है। यह बताता है कि हथियार सरकार के ‘अपनों’ के पास हैं और ये लूटे नहीं दिये गये हैं।
अब यह साफ़ हो चुका है कि 4 मई की शर्मनाक घटना के बारे में प्रशासन को 18 मई को शिकायत मिल गयी थी, लेकिन एफआईआर 49 दिन बाद 21 जून को दर्ज की गयी। राष्ट्रीय महिला आयोग को भी 12 जून को लिखित शिकायत पहुँच चुकी थी। यानी केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक को पूरी ख़बर थी। फिर भी पहली गिरफ्तारी 78 दिन बाद हुई जब ‘नग्न परेड’ का वीडियो वायरल हुआ।
मणिपुर प्रशासन का यह ढीला रवैया बताता है कि महिलाओं की ‘नग्न परेड’ कराने वाली भीड़ को नाराज़ करने का जोखिम सरकार नहीं लेना चाहती थी। कहा जा रहा है कि यह दरिंदगी पुलिस की मौजूदगी के बावजूद हुई। यानी ‘राज्य की उपस्थित’ में दो महिलाओं के साथ यह सब हुआ। पीड़ितों में से एक करगिल में युद्ध लड़ चुके एक पूर्व सैनिक की पत्नी भी है। मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया है कि मणिपुर में ‘ऐसी हज़ारों घटनाएँ’ हुई हैं। इस वीभत्स कांड को ‘सामान्य’ घटना के रूप में दिखाने की कोशिश ही सारी कहानी साफ़ कर देती है।
गौर से देखिए तो यह पश्चिम के तटीय प्रदेश यानी गुजरात मे मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में विकसित हुए राजनीतिक मॉडल का उत्तर-पूर्व में दोहराव है। असम के बाद मणिपुर में भी इस मॉडल को बहुत चमकदार ढंग से लागू किया जा रहा है। इस मॉडल में सभी नागरिकों का दिल जीतने की ज़रूरत नहीं होती। बस किसी तरह बहुमत को यह विश्वास दिलाने की ज़रूरत होती है कि सरकार उनकी है और वे कुछ भी कर सकते हैं। अल्पसंख्यकों को भावनात्मक चोट पहुँचायी जाती है, उन्हें चिढ़ाया जाता है। उन्हें दुश्मन क़रार देते हुए प्रचार अभियान छेड़ा जाता है। हर वक़्त उनसे सतर्क रखने का उपाय बरतने की सीख बहुसंख्यक आबादी को एक ‘मिलिशिया’ मे तब्दील कर देता है जो सरकार के हर सही-ग़लत का साथ देने पर आमादा रहती है।
किसी समाज को ऐसे ही जॉम्बी में तब्दील किया जाता है। संवेदना को भोथरा करने के क्रम में महिला और पुरुष का भेद भी मिट जाता है। आखिर इस बात को कैसे समझा जाए कि मणिपुर में महिलाओं की नग्न परेड करने वाली भीड़ में ‘महिलाएँ’ भी थीं। वे मैतेई मर्दों को कुकी महिलाओं के साथ कुकर्म करने को उकसा रही थीं। कहते हैं कि सारे युद्ध अंतत: महिलाओं की देह पर लड़े जाते हैं। वे ‘माल-ए-ग़नीमत’ होती हैं जिनका इस्तेमाल विजेता मनमर्जी से करते हैं।
ऐसा नहीं कि मणिपुर मे हालात पहली बार ख़राब हुए हैं। 1993 में भी ऐसी स्थिति बनी थी। तत्कालीन प्रधानंत्री नरसिम्हाराव ने तब मणिपुर की अपनी ही कांग्रेस सरकार को बरखास्त करके एक संदेश दिया था। इस बार तो जैसे किसी ‘प्रयोग’ के तहत मामले को लटकाया गया। ‘सर्वदलीय बैठक’ या ‘[सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल’ जैसी औपचारिकताएँ भी समय पर नहीं निभायी गयीं। अगर नीयत सही होती तो हाईकोर्ट से मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर विचार करने का निर्देश मिलने पर बीरेन सिंह सरकार इस संदर्भ में सर्वे आदि कराने की बात कह सकती थी। किसी समुदाय को आदिवासी दर्जा देना एक लंबी प्रक्रिया होती है। लेकिन बहुसंख्यकों के समर्थन को ध्यान में रखते हुए इसे तुरत-फुरत राजनीतिक एजेंडे में बदल दिया गया जिसके खिलाफ़ कुकी समुदाय ने भी मोर्चा खोल दिया। 3 मई से जो आग लगी उसे बुझाने का न केंद्र की ओर से कोई प्रयास हुआ न राज्य सरकार की ओर से। पीएम मोदी तो चुप्पी साधे ही रहे, गृहमंत्री अमित शाह के दौरे का भी कोई असर नहीं पड़ा। राष्ट्रीय मीडिया की मणिपुर पर चुप्पी ने उनका काम आसान कर दिया।
यह सौ फ़ीसदी लोकतंत्र को 51 फ़ीसदी में तब्दील करने का संकीर्ण अभियान है जिसका पहला शिकार इंसानियत होती है। नरेंद्र मोदी की चुनावी सफलताओं ने उनकी पार्टी के तमाम दूसरे नेताओं को भी इसी मंत्र का जाप करने की प्रेरणा दी है। एन.बीरेन सिंह को लगता है कि अगर वे ‘मैतेई’ हीरो बन जाते हैं तो आबादी के 53 फ़ीसदी का उन्हें समर्थन हासिल हो जाएगा। यह लंबी राजनीतिक पारी की गारंटी होगी।
मैतेई मे ज़्यादातर हिंदू हैं जिन्हें बीजेपी अपना आधार बनाने में जुटी है। ईसाई बहुल कुकी समुदाय के प्रति वैसी ही घृणा फैलाई गयी जैसे कि बीजेपी अन्य राज्यों में अल्पसंख्यकों के प्रति फैलाती है। उन्हें देशद्रोही से लेकर आतंकवादी तक के रूप मे चिन्हित किया गया। इस राजनीतिक का मेघालय, नगालैंड और मिज़ोरम जैसे राज्यों में गंभीर असर पड़ सकता है। पूरा उत्तर पूर्व ही सुलग सकता है जिसपर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
इस घृणा आधारित ‘बहुसंख्यकवादी राजनीति’ का नुकसान हर उस देश को उठाना पड़ा है जहाँ ऐसे प्रयोग हुए हैं। आज जर्मनी में हिटलर का कोई नाम नहीं लेना चाहता। वैसे इस राजनीति में बहुसंख्यों का ‘अपमान’ भी छिपा है। यह मानकर चला जाता है कि सोच-विचार की शक्ति बड़ी जल्दी खो देते हैं। घृणा की सुई लगाकर उनके अंदर के ‘जानवर’ को बड़ी आसानी से जगाया जा सकता है। लेकिन एक सच यह भी है कि भारत बहुसंख्यकों की इच्छा से ही एक समावेशी और धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बना है। अल्पसंख्यकों की रक्षा को देश का धर्म बताते हुए स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को ठुकराया था। लीग का साथ देने वाली विचारधारा आज उसकी आशंकाओं को सही ठहराने पर आमादा है। इसका जवाब देना बहुसंख्यकों की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी है।
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