हवा का रुख़ देखकर लगता है कि लोगों की बेचैनी बढ़ रही है, वे पहले के मुक़ाबले ज़्यादा नाराज़ होने लगे हैं और अकेलेपन से घबराकर बाहर कहीं टूट पड़ने के लिए छटपटा रहे हैं। मनोवैज्ञानिक आगाह भी कर चुके हैं कि ऐसी स्थितियों में ‘डिप्रेशन’ के मामलों में भी काफ़ी वृद्धि हो जाती है। इनमें घरों में बंद लोगों के साथ-साथ खुली सड़कों पर अपने को और ज़्यादा अकेला और असहाय महसूस करने वाले हज़ारों-लाखों बेरोज़गार और मज़दूर भी शामिल किए जा सकते हैं।
हमारे लिए ऐसा और इतना लम्बा एकांतवास पहला अनुभव है, कम से कम उस पीढ़ी के लिए जो पिछले बीस वर्षों में बड़ी हुई है। पिछले बीस वर्षों में भी देश को कोई ऐसा युद्ध नहीं लड़ना पड़ा है जिसमें किसी ज्ञात या अज्ञात शत्रु से युद्ध के लिए अपने को घरों में क़ैद करना पड़ा हो। चीन के साथ हुए युद्ध की हमें तो याद है पर उसे भी हुए अब साठ साल होने को आए।
जैसे-जैसे बैसाखी और आम्बेडकर जयंती नज़दीक आ रही है, सरकार की चिंता कोरोना से ज़्यादा लॉकडाउन से आज़ाद होकर सड़कों पर टूट पड़ने को बेताब भीड़ से निपटने को लेकर बढ़ सकती है।
ईमानदारी की बात तो यह है कि कोरोना के फ़्रैक्चर से चढ़ा पट्टा कब और कैसे काटा जाएगा इस पर बड़े डॉक्टर मौन हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने ज़रूर संकेत दे दिया है कि 14 अप्रैल के बाद लॉकडाउन की समाप्ति जनता द्वारा सरकार के निर्देशों का पालन करने पर निर्भर करेगी।
स्मरण किया जा सकता है कि मुख्यमंत्रियों से हुई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के बाद प्रधानमंत्री की ओर से सबसे ज़्यादा तारीफ़ ठाकरे की तरफ़ से आए सुझावों की की गई थी। उद्धव के सुझावों को व्यापक संदर्भों में भी पढ़ा जा सकता है कि पट्टा काटने के बाद केवल बैसाखियों पर टहलने की ही छूट दी जा सकती है।
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