- काशी विद्यापीठ छात्र संघ का स्वर्णिम इतिहास रहा है। यहाँ के छात्र संघ से बेहतर नेता निकलते रहे हैं, जिन्होंने न केवल राज्य को बल्कि देश को बुलंदी दी है। लेकिन उसी छात्र संघ ने दो साल से अपने चुनाव को मज़ाक बना कर रख दिया है। चुनाव लड़ रहे छात्र नेता, चुनाव के दिन सड़क पर गमछा बिछाकर, बक़ायदा लेटकर, वोट देने जा रहे छात्रों के पैर पकड़ कर रुदन के साथ वोट माँगते देखे गए और नेताओं में पाँव पकड़ने की होड़ लगने लगी।
यहीं से पाँव पकड़ना, पाँव पखाराना, पाँव लग्गी, सियासत में प्रवेश कर गयी। सियासत में मनमोहक औज़ार नीचे से चला और ऊपर तक जा पहुँचा। कल तो हद का भी बांध भसक गया जब 56 इंच वाले प्रधानमंत्री झुक कर अदब से सफ़ाईकर्मियों के पैर धोने के लिए झुक गए और वह भी पूरे कर्मकांड के साथ।
हमने कहा, ‘कोई नहीं, यह सच है, इस तरह का प्रधानमंत्री कोई नहीं हुआ और न शायद हो। बंदा तवारीख़ में अकेला रहेगा, इसकी कार्बन कॉपी तक नही मिलेगी।'
आख़िर ऐसी भी क्या मजबूरी थी?
सियासत में जब नीति, कार्यक्रम, उसूल, सब ख़राब हो जाएँ तो नेतृत्व थक कर पैर पकड़ने लगता है। वही हाल इस समय सरकारी दल का हो चुका है। अब सवाल यह है कि प्रधानमंत्री की वह कौन सी मजबूरी है जिसने उन्हें इतना झुका दिया? सीधा-सा उत्तर तो यही होता है कि चुनाव में उन जातियों का मनोविज्ञान क्या बोल रहा है?
कभी गोवध के बहाने, कभी मज़हब के बहाने और इसके अलावा सामाजिक व आर्थिक विपन्नता तो और भी चरम पर हो ही गई।
सफ़ाईकर्मी को पाँव नहीं धुलवाने हैं, उसे उनके पेशे से जुड़ी सहूलियत और सुविधा चाहिए, कर्मकांड नहीं।
एक रफ़ाल लड़ाकू विमान कम करके देश के सफ़ाईकर्मियों के लिए सफ़ाई की विकसित सुविधा और यंत्र दिए जा सकते हैं। जनाबे आली, सोच का नज़रिया साफ़ करिए, पाँव ख़ुद साफ़ हो जाएँगे इसके लिए पाँव को ज़मीन पर रखना होगा।
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