हेमंत सोरेन
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हेमंत सोरेन
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कल्पना सोरेन
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प्रधानमंत्री द्वारा घोषित राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान भारतीय मीडिया ने टीवी स्क्रीन्स और इंटरनेट स्ट्रीम्स पर लाखों प्रवासी मजदूरों को, जो भारत के कई शहरों और कस्बों में काम किया करते थे, उन्हें सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते हुए अपने गाँवों और घरों की ओर लौटते हुए दिखाया। इनमें से कई लोगों ने तो रास्ते में ही दम तोड़ दिया! अब औरंगाबाद में ऐसे ही पैदल घर जा रहे 16 मजदूरों के ट्रेन से कट कर मरने की बेहद दुखद ख़बर आयी है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के कारण इन लोगों और उनके परिवारों को बहुत कठिनाई और पीड़ा हुई है, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न जो कोई नहीं पूछता, वे यह हैं कि -
“ये सभी लोग घर वापस लौटकर आखिर करेंगे क्या?”
वे आजीविका की तलाश में शहरों की ओर इसलिए गए थे क्योंकि उनके अपने गाँव में आजीविका चलाने का कोई साधन उपलब्ध नहीं था। 1947 में अविभाजित भारत की जनसंख्या लगभग 45 करोड़ थी, जो अब पाकिस्तान और बांग्लादेश के अलग होने के बाद केवल भारत में ही आज लगभग 135 करोड़ हो गयी है यानी जनसंख्या में लगभग 4 गुना वृद्धि।
इसलिए कृषि-योग्य भूमि (जिस पर खेती की जाती है) पर बहुत अधिक बोझ है। इसके अलावा, मशीनों ने मानव श्रम को कुछ हद तक विस्थापित कर दिया है। 1947 के बाद इन्हीं तथ्यों के कारण ग्रामीण लोग बड़ी संख्या में शहरों की ओर चले गए थे।
ऐसा अनुमान है कि 1947 में 85% भारतीय गाँवों में और 15% शहरों में रह रहे थे। आज यह माना जाता है कि केवल 60-70% भारतीय गाँवों में रहते हैं और 30-40% लोग शहरों में।
गाँवों से शहरों की ओर पलायन कर चुके करोड़ों लोगों के वापस गाँव लौटने पर यह सवाल उठता है कि ये लोग अपने गाँवों में क्या करेंगे? वहां उनके लिए कोई काम नहीं है। वे केवल अपने रिश्तेदारों पर बोझ बन जाएंगे और शायद ही उनका स्वागत किया जायेगा।
शहरों में वे कुछ पैसे कमा रहे थे, जो वे गाँव में रहने वाले अपने परिवार के पास भेज देते थे। अब उनकी पत्नियाँ भी उनके लौटने पर शायद ही खुश होंगी क्योंकि अब वे अपने परिवारों के लिए नहीं कमा पायेंगे, बल्कि उन्हें ख़ुद ही दो वक्त की रोटी के लिए भी शायद किसी और के सामने हाथ फ़ैलाना पड़े।
ये बातें जॉन स्टाइनबेक (John Steinbeck) के महान उपन्यास ‘ग्रेप्स ऑफ़ रॉथ’ (Grapes of Wrath) की याद दिलाती है। यह उपन्यास उन प्रवासियों के बारे में था जिन्होंने अमेरिका के ओक्लाहोमा, टेक्सस, अर्कांसस और कुछ अन्य राज्यों से, 1930 के दशक में चल रहे डस्ट स्टॉर्म और आर्थिक मंदी की वजह से कैलिफोर्निया की ओर पलायन किया था।
वे सभी यह सोचकर आये थे कि कैलिफोर्निया पहुँचकर उन्हें कुछ काम-काज मिल जायेगा परन्तु हुआ कुछ और ही। वहाँ पहले से मौजूद मजदूरों ने इन प्रवासियों का जमकर विरोध किया, यह सोचकर कि इनकी वजह से उनकी पगार कम हो जायेगी और बीमारियां फैलेंगी। (मेरे ब्लॉग – ‘Satyam Bruyat’ में लेख ‘Grapes of Wrath’ पढ़ें)।
स्टाइनबेक ने अपने उपन्यास में लिखा था- “पके हुए अंगूरों को दबाने पर निकले उनके रस से वाइन (अंगूरी मदिरा) बनती है” (Ripe grapes spill their juices when pressed for wine)। इसी तरह, प्रवासी क्रोध से भरे हुए थे और गुस्से से उबल रहे थे। उनकी आत्मा में क्रोध का भार बढ़ता जा रहा था।
आज की स्थिति देख कर भारत के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। मुझे आशंका है कि अगर जल्द ही सरकार ने परिस्थिति सुधारने के लिए ठोस कदम ना उठाये तो भारत के कई हिस्सों में खाने-पीने का सामान जुटाने के लिए दंगे हो जायेंगे और क़ानून व्यवस्था व्यापक तौर पर भंग हो जायेगी।
ठीक वैसे ही जैसा कि 1789 में फ्रांस में हुआ था, जब पेरिस और अन्य शहरों में खाद्य-सामग्री की घोर कमी हो गयी थी जिसके परिणाम स्वरूप फ्रांसीसी क्रांति हुई (French Revolution) या जैसे कि रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में महिलाओं ने खाद्य की कमी के कारण प्रदर्शन किए जिसकी वजह से बाद में 1917 की क्रांति हुई।
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