प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 अप्रैल को एक मीडिया हाउस के समिट में ऐसा चुटकुला सुनाया जिसे सुनना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए तक़लीफ़देह था। यह चुटकुला एक प्रोफ़ेसर साहब पर था जिन्हें बेटी की ख़ुदकुशी का नोट मिलता है लेकिन वे ग़लत स्पेलिंग को लेकर परेशान हो उठते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी का यह चुटकुला ऐसे वक़्त पर ठहाके और तालियाँ बटोर रहा था जब युवाओं की बढ़ती ख़ुदकुशी देश के हज़ारों घरों में अँधेरा बनकर पसरी है और पसरती ही जा रहा है। स्वाभाविक था कि विपक्ष इसे प्रधानमंत्री मोदी की संवेदनशीलता पर सवाल की तरह पेश करता। जिस देश में हर 12 मिनट में 30 साल से कम उम्र का एक युवक जान दे रहा हो, उस देश के प्रधानमंत्री के लिए ऐसा चुटकुला सुनाना हैरानी की बात है।
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मामले की गंभीरता को इससे समझिए कि पीएम के चुटकुले पर लगे ठहाकों की गूँज धीमी भी नहीं पड़ी थी कि 27 अप्रैल की रात दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में दर्शनशास्त्र पढ़ाने वाले 33 साल के एड्हॉक शिक्षक समरवीर की ख़ुदकुशी की ख़बर आ गयी। समरवीर मोदी जी की सरकार की उच्च शिक्षा संबंधी उन्हीं नीतियों का शिकार हुए जिसमें स्थायी नीतियों को नियम की जगह अपवाद बनाने की कोशिश हो रही है। समरवीर 2017 से स्थायी होने की आशा में अस्थायी शिक्षक बतौर पढ़ा रहे थे। ख़बर है कि हाल में स्थायी नियुक्तियों के लिए हुए साक्षात्कार में उन्हें उपयुक्त नहीं पाया गया। उपयुक्त और अनुपयुक्त पाये जाने के पीछे कितनी तरह के खेल होते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। छह साल तक पढ़ाने का मतलब समरवीर के पढ़ाये छात्रों के छह बैच निकल चुके थे, लेकिन अचानक वे अनुपयुक्त हो गये। समरवीर आर्थिक और मानसिक रूप से टूट गये थे। दर्शन की तमाम गुत्थियों को सुलझाने वाले समरवीर ने इस पहेली के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
यह कहानी अकेले समरवीर की नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय के 68 कालेजों में 4267 शिक्षक अस्थायी तौर पर ही काम कर रहे हैं। बरसों-बरस उनसे इसी तरह काम लिया जाता है और जब स्थायी करने का कोई दबाव पड़ता है तो फिर एक दिन वे अस्थायी शिक्षक भी नहीं रह जाते। अस्थायी शिक्षक को कभी भी पद से हटाने का कानूनी हक़ जिन प्रबंधकों के पास होता है उन्हें इन अस्थायी शिक्षकों की पीड़ा शायद ही पिघला पाती हो। इसे नौजवानों में बढ़ते तनाव और भविष्य में छाई निराशा से भी जोड़कर देख सकते हैं जो अंतत: सरकार और उसकी नीतियों का ही नतीजा हैं।
राज्यसभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में गृहराज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 9 फ़रवरी 2022 को बताया था कि 2018 से 2020 के बीच, तीन सालों में बेरोज़गारी की वजह से देश के दस हज़ार नौजवानों ने ख़ुदकुशी की थी।
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आँकडे बताते हैं कि 2016 से 2021 को बीच छात्रों की आत्महत्या के मामलों में 27% का इज़ाफ़ा हुआ। 2021 के आँकड़ों के मुताबिक उस साल 13,714 बेरोज़गारों ने आत्महत्या की। इसके अलावा आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या 13,089 थी। 2021 में कुल 164033 लोगों ने खुदकुशी की थी। यानी हर दिन 450 लोगों ने जान दी। इनमें ज़्यादातर 30 साल से कम उम्र के थे। इसमें महिलाओं की ख़ुदकुशी का दर भी चौंकाने वाला था। 2021 में कुल 45,026 महिलओं ने आत्महत्या की थीं। यानी हर नौ मिनट पर एक महिला ने खुदकुशी की।
कुछ समय पहले तक भारत की आबादी में युवाओं की बड़ी तादाद को वरदान की तरह माना जा रहा था। लेकिन ख़राब आर्थिक स्थिति के कारण देश को इससे मिलने वाले फ़ायदे की ट्रेन छूट गयी लगती है। युवाओं की बड़ी तादाद बेरोज़गारी की वजह से परेशान है और अवसाद में है। अप्रैल में आये आँकड़े बताते हैं कि बेरोज़गारी दर 7.8 फ़ीसदी के उच्च स्तर पर जा पहुँची है। ख़ासतौर पर पढ़े-लिखे लोगों के लिए नौकरियों की संभावना दिनों दिन कम होती जा रही हैं। हालत ये है कि चपरासी की नौकरी के लिए बी.टेक और पीएच.डी वाले नौजवान भी बड़ी संख्या में आवेदन देते नज़रा आते हैं।
तनाव का आलम ये है कि दिहाड़ी मज़दूर तक बड़ी तादाद में आत्महत्या कर रहे हैं। 2021 में कुल आत्महत्या के 25.6 फ़ीसदी दिहाड़ी मज़दूर थे। कुल 42,004 दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या की थी जिसमें 4246 महिलाएँ थीं। यह दिहाड़ी में भी अनिश्चितता के नतीजे का एक उदाहरण हो सकता है। स्वरोज़गार से जुड़े 20231 लोगों ने आत्महत्या की थी जो कुल आत्महत्या का 12.3 फ़ीसदी था।
आंकड़ों का यह संजाल किसी को भी अवसाद में ढकेल सकता है। सरकार के लिए तो यह बेहद चिंता का विषय होना चाहिए, लेकिन प्रधानमंत्री किसी छात्रा की ख़ुदकुशी पर चुटकुला सुना रहे हैं। सिर्फ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जिन घरों में भविष्य की उम्मीद का दीपक ख़ुदकुशी से बुझा होगा वह प्रधानमंत्री के चुटकुले पर क्या महसूस कर रहा होगा।
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भारत के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने वाले किसी राजनेता से थोड़ी नहीं ज़्यादा संवेदनशीलता की उम्मीद की जाती है। पर मोदी जी के लिए यह सब मायने नहीं रखता। सोशल मीडिया में वे वीडियो वायरल हैं जिसमें वे नोटबंदी से परेशान लोगों का सार्वजनिक मज़ाक़ उड़ा रहे हैं कि घर में शादी है और पैसे नहीं हैं।
चुटकुले के प्रोफेसर साहब की सुई तो ग़लत स्पेलिंग में अटकी हुई थी लेकिन पीएम मोदी की सुई कहाँ अटकी हुई है कि वे भारतीय नौजवानों की हताशा और निराशा को देख ही नहीं पा रहे हैं? इस सवाल पर प्रधानमंत्री मोदी जितनी जल्दी ग़ौर करें, उतना अच्छा।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)
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