सरकार चाहे तो इस तरह की चर्चाओं की गुप्त जाँच के लिए किसी एजेंसी की मदद ले सकती है कि क्या जनता का एक बड़ा वर्ग प्रधानमंत्री द्वारा अचानक से घोषित कर दिए जाने वाले फ़ैसलों या फिर उनकी कठोर भाव-भंगिमा को लेकर हमेशा आशंकित या सहमा हुआ रहता है, उनके अन्य सहयोगियों से उतना नहीं! इस गुप्त जाँच के दायरे में उनकी ही पार्टी के मंत्री, मुख्यमंत्री और कार्यकर्ता भी शामिल किए जा सकते हैं। निश्चित ही इस तरह की चर्चाओं के पीछे न तो किसी विदेशी षड्यंत्र को सूंघा जा सकता है और न ही विपक्ष का कोई हाथ या पंजा तलाशा जा सकता है।
जो डर इस समय व्याप्त है वह आपातकाल से अलग और ज़्यादा निराशा पैदा करने वाला नज़र आता है। आपातकाल के दौरान लोग इंदिरा गांधी के अलावा संजय गांधी से भी बराबरी का भय खाते थे। चौधरी बंसीलाल से भी घबराते थे और विद्या चरण शुक्ल से भी। ’तुम भी विद्या, हम भी विद्या’ वाले प्रसंग के बाद से तो और ज़्यादा ही। दिल्ली में तुर्कमान गेट की घटना और ज़बरिया नसबंदी के बाद तो संजय गांधी आतंक के प्रतीक बन गए थे। फिर कई राज्यों में उस समय दिल्ली के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा वफ़ादार मुख्यमंत्री भी मौजूद थे। इस समय की बात कुछ और ही है।
चलने वाली चर्चाओं का चौंकाने वाला सच यह भी है कि इस समय के डर का सम्बन्ध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचलित कर देने वाले ‘मौन’ और आलोचकों में अप्रत्याशित घबराहट पैदा करने वाले उनके ख़ौफ़ से है। इंदिरा गांधी बोलती भी थीं और न चाहते हुए भी देशी-विदेशी मीडिया के सभी तरह के प्रश्नों के उत्तर देती थीं। करन थापर जैसे पत्रकार उस दौर में भी होते थे। इस काल में सवालों के जवाब के लिए मोदी के मौन के पीछे छुपी भाषा को पढ़ना पड़ता है।
मोदी संसद में उपस्थित रहते हुए भी अपने आप को अनुपस्थित कर लेते हैं और अनुपस्थित रहते हुए भी उनकी सूक्ष्म नज़रें दोनों सदनों की हरेक सीट पर रहती है। तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ’ब्रायन पूछते भी हैं कि राज्य सभा में जब दो पूर्व प्रधानमंत्री उपस्थित रहते हैं, मोदी क्यों अनुपस्थित रहते हैं? डेरेक यह भी कहते हैं कि क्या ग़त्ते का बना उनका कोई बड़ा-सा कट आउट लगाकर संसद का काम चलाया जाए?
विपक्ष इस वक्त जितने भी मुद्दे उठा रहा है, मोदी उन पर सार्वजनिक रूप से कोई चिंता जताकर अपने ‘डाई हार्ड’ मतदाताओं के बीच यह भय नहीं फैलने देना चाहते होंगे कि कहीं भी कुछ ग़लत चल रहा है।
लद्दाख़ में चीन द्वारा किया गया अतिक्रमण इसका उदाहरण है। देश को उसके सम्बंध में आज तक हक़ीक़त का नहीं पता है। प्रधानमंत्री के लिए देश और दुनिया में इस आशय की छवि को बनाए रखना ज़रूरी हो गया है कि ‘ऑल इज वेल इन इंडिया’। ऐसी रणनीतिक बातों का पार्टी के घोषणापत्रों में उल्लेख नहीं किया जा सकता। लोगों के बीच नेतृत्व की योग्यता के प्रति अविश्वास पैदा करके उनका विश्वास नहीं जीता जा सकता। मोदी के मित्र डॉनल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति पद का चुनाव हार जाने के दिन तक भी कोरोना को अमेरिका की कोई बड़ी समस्या नहीं घोषित होने दिया जबकि उनके अनिच्छापूर्वक पद छोड़ने तक वहाँ दुनिया में सबसे ज़्यादा चार लाख लोग मर चुके थे।
मोदी सरकार ने भी विदेशी मीडिया के इन अनुमानों को कभी कोई चुनौती नहीं दी कि भारत में कोरोना से मरने वालों की संख्या आधिकारिक दावों के मुक़ाबले छह से आठ गुना अधिक हो सकती है।
वर्ष 1989 में सत्ता में आने के बाद वी पी सिंह ने मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करते हुए अगस्त 1990 में पिछड़ी जातियों (ओ बी सी) के लिए 27 प्रतिशत के आरक्षण की घोषणा कर दी थी। इसके विरोध में हुए आंदोलन में कोई दो सौ सवर्ण छात्रों ने आत्मदाह का प्रयास किया था जिनमें बासठ की बाद में मौत हो गई थी। इस बात का निश्चित तौर पर कभी पता नहीं चल पाया कि इस आंदोलन को सभी तरह के आरक्षण की विरोधी भाजपा का भी कोई अंदरूनी समर्थन प्राप्त था कि नहीं क्योंकि यही दक्षिणपंथी पार्टी तब वी पी सिंह सरकार को बाहर से अपना सहारा दिए हुए थी। मंडल रिपोर्ट के लागू होने के पहले ही वी पी सिंह सरकार गिरा भी दी गई थी।
आरक्षण-विरोधी भाजपा मोदी के नेतृत्व में इस समय ओबीसी मय हो गई है। सारे सवर्ण भी इस समय चुप हैं। भाजपा ने पलक झपकते ही अपना सवर्ण चोला उतार कर पिछड़ों की सेवा का नया गणवेश धारण कर लिया और देश में कहीं कोई आहट भी नहीं होने दी। सफलतापूर्वक प्रचारित किया जा रहा है कि मोदी स्वयं भी पिछड़े वर्ग से ही हैं।
सच्चाई यह है कि मोदी का हाथ अपनी समर्थक जनता की सबसे कमजोर और इमोशनल नब्ज पर सख़्ती से पड़ा हुआ है जबकि उनके विरोधी हौले-हौले उन नसों को ही टटोलने में अपनी ताक़त लगाए हुए है जहां धड़कनों या बुख़ार का कभी पता नहीं चलता। इसे मोदी की आवाज़, उनके प्रति भक्ति या फिर डर का ही चमत्कार माना जा सकता है कि उनके एक इशारे पर लोग क़तारों में भूखे-प्यासे भी खड़े हो जाते हैं, हज़ारों किलोमीटर पैदल चलने लगते हैं और बजाय भोजन पकाने के ख़ुशी के मारे ख़ाली थालियाँ ही कटोरियों से बजाने लगते हैं।
विपक्ष का हाथ अगर सम्मिलित रूप से सही मुद्दों और जनता की असली नब्ज़ तक नहीं पहुँचा तो मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार न सिर्फ़ 2024 में ही फिर से लौटकर आ जाएगी, हर हाल में समर्पित रहने वाले अपने मतदाताओं की मदद से इच्छा-सत्ता का वरदान भी प्राप्त कर लेगी। तब तक मोदी को लेकर व्याप्त डर और भी व्यापक हो जाएगा।
(दो वर्ष पूर्व इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख के संपादित अंश)
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