2001 में न्यूयार्क और वाशिंगटन की इमारतों को यात्री विमानों से तहस-नहस कर देने वाले 9/11 के कुख्यात आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के विभिन्न ठिकानों पर मिसाइल से हमले किये थे। तब से 19 सालों तक तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ते हुए 24 सौ से अधिक अमेरिकी सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। इस दौरान अमेरिका को दस ख़रब डालर ख़र्च करने पड़े। लेकिन अमेरिका आज उसी तालिबान के साथ समझौता कर अफ़ग़ानिस्तान से अपनी जान छुड़ा कर भागने के लिये मजबूर है।
कतर में शनिवार को अमेरिका और तालिबान के बीच जो शांति समझौता हुआ है उसके तहत अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या 13 हजार से घटाकर 8,600 पर लाने की सहमति दी है और इसके साथ अफ़ग़ानिस्तान सरकार से कहा है कि वह अफ़ग़ानी जेलों से पांच हजार तालिबानियों को रिहा कर दे। बदले में तालिबान ने अमेरिका को वचन दिया है कि वह अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका या उसके साथी देशों के ठिकानों पर हमले नहीं करेगा।
इस समझौते के बाद अफ़ग़ानिस्तान सरकार को भरोसा दिलाने के इरादे से अमेरिका और अफ़ग़ानिस्तान के बीच एक साझा घोषणा पत्र भी शनिवार को जारी किया गया। इसके लिये अमेरिकी रक्षा मंत्री मार्क एस्पर और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के प्रमुख स्टोलटेनबर्ग काबुल पहुंचे थे।
अमेरिका-तालिबान समझौते के बाद कतर की राजधानी दोहा में अफ़ग़ानिस्तान सरकार के छह प्रतिनिधियों ने तालिबान के साथ मुलाक़ात कर संकेत दिया कि अफ़ग़ानिस्तान सरकार तालिबान के साथ शांति वार्ता जारी रखेगी।
इस समझौते के दो सप्ताह के भीतर तालिबान के प्रतिनिधियों के साथ अफ़ग़ानिस्तान सरकार के प्रतिनिधियों की सुलह वार्ता शुरू होगी जिसमें तालिबान की सरकार में भागीदारी को लेकर शर्तें तय होंगी।
काबुल पर होगा तालिबान का शासन
तालिबान और अमेरिका के बीच हुए इस शांति समझौते के बाद माना जा रहा है कि काबुल पर तालिबान का शासन जल्द स्थापित होगा। तालिबान काबुल पर एकछत्र राज स्थापित करना चाहेगा और इसमें किसी जनतांत्रिक, प्रगतिशील, ग़ैर कट्टरपंथी ताक़तों को शामिल करने को तैयार नहीं होगा।
दो दशक बाद तालिबान के शासन की वापसी से अफ़ग़ानिस्तान पर फिर कट्टरपंथी नीतियां हावी होंगी और वहां महिलाओं को फिर घरों में क़ैद रहने को मजबूर किया जाएगा।
कामयाब होगा शांति समझौता?
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने की संभावनाओं के मद्देनजर भारत नई सरकार को नजरअंदाज नहीं कर सकता इसलिये अमेरिका-तालिबान शांति समझौते का पर्यवेक्षक बनने के लिये भारत ने अपने राजनयिक प्रतिनिधि दोहा भेजे। हालांकि भारत को इस शांति समझौते की कामयाबी को लेकर गहरा संदेह है और इस बारे में भारतीय राजनयिकों ने अमेरिकी अधिकारियों से लगातार बातचीत की है। 24-25 फरवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के भारत दौरे में भी इस समझौते को लेकर भारत की शंकाओं से उन्हें अवगत कराया गया था।
अमेरिका को रहना होगा सतर्क
अमेरिका-तालिबान शांति समझौते पर अमेरिका में ही गहरे संदेह हैं। अमेरिकी कांग्रेस के 22 सदस्यों ने अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो को लिखे एक खुले पत्र में समझौते पर कहा है कि भले ही तालिबान ने अमेरिकी प्रशासन को शांति से आगे बढ़ने का भरोसा दिलाया हो लेकिन तालिबान का झूठे वायदे करने का इतिहास रहा है। इस खुले पत्र के मुताबिक़ तालिबान अंततः अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान से पूरी फौज़ हटाने को बाध्य करेगा और इससे कम पर कोई भी बात नहीं मानेगा। क्योंकि तालिबान का अंतिम लक्ष्य अफ़ग़ानिस्तान में पूर्ण स्तर का एक अधिनायकवादी इसलामी राज स्थापित करने का है।
सामरिक हलकों में अमेरिका के इस क़दम की विश्वसनीयता पर यह कह कर शंका जाहिर की जा रही है कि तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका और भारत सहित कई साथी देशों को अपना बोरिया-बिस्तर समेटना होगा।
भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में तीन अरब डालर से अधिक का निवेश किया है और वहां शांति व स्थिरता की बहाली में अभूतपूर्व योगदान दिया है। भारत को चिंता है कि उसने अफ़ग़ानिस्तान के चार शहरों में जो काउंसुलेट (वाणिज्य दूतावास) खोले हैं, उन्हें तालिबान सरकार तुरंत बंद करवा देगी।
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद पाकिस्तान की क्षेत्रीय अहमियत फिर बढ़ेगी और काबुल में तालिबान से बेहतर रिश्ते बनाए रखने के लिये पश्चिमी देश फिर पाकिस्तान की खुशामद करने लगेंगे और इससे भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान का रुख और आक्रामक होगा। इससे आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई को मिलने वाला अंतरराष्ट्रीय समर्थन कमजोर होगा।
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