पहलू ख़ान को 1 अप्रैल 2017 को अलवर में मारा-पीटा गया था। उसे गायों की तस्करी करने के शक में 6 लोगों ने घेरकर मार डाला था। दो दिन बाद उसकी मौत हो गई थी। मरने से पहले दिए अपने बयान में पहलू ने हत्यारों के नाम भी पुलिस को बताए थे और मौक़े पर जो वीडियो बनाया गया था, वह भी पुलिस के पास था लेकिन राजस्थान की पुलिस ने अदालत के सामने सारा मामला इतने लचर-पचर ढंग से पेश किया कि
सभी अभियुक्त बरी हो गए यानि पहलू ख़ान को किसी ने नहीं मारा। वह अपने आप मर गया।
अदालत ने अपने फ़ैसले में पुलिस की काफ़ी मरम्मत की है लेकिन मैं अदालत से पूछता हूँ कि उसने मुक़दमे के दौरान पुलिस को बाध्य क्यों नहीं किया कि वह हत्या के सारे तथ्य उजागर करती। हत्या के उस
वीडियो को सारे देश ने देखा था। वह खुले-आम उपलब्ध है। अदालत चाहती तो उसे ख़ुद ‘यू टयूब’ पर देख सकती थी। उसे देखा भी गया लेकिन अदालत ने उस पर भरोसा नहीं किया।
अदालत पुलिस की लापरवाही का रोना रोती रही लेकिन मैं पूछता हूँ कि क्या उसने अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से निभाया? अदालत ने उन पुलिसवालों को कड़ी सजा क्यों नहीं दी, जिन्होंने सारे मामले पर पानी फेरने की कोशिश की? यह ठीक है कि राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने इस मुक़दमे पर अपील करने की घोषणा की है
लेकिन उसकी कौन सी मजबूरी है कि वह उन पुलिसवालों को दंडित नहीं कर रही है? उन्हें तुरंत मुअत्तिल किया जाना चाहिए।
ऐसे पुलिसवालों की मिलीभगत या लापरवाही की वजह से सरकार, अदालत और पुलिस विभाग की इज्जत पैंदे में बैठी जा रही है। भारत की केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी की बदनामी सारी दुनिया में की जा रही है, जो कि ग़लत है, क्योंकि भीड़ की हिंसा की ऐसी वारदातें कांग्रेस सरकार के राज (2009-14) में 120 बार हुईं और मोदी राज (2014-19) में सिर्फ़ 40 बार हुईं।
ज़ाहिर है कि इन हिंसक और मूर्खतापूर्ण कुकृत्यों को कोई भी सरकार या पार्टी प्रोत्साहित नहीं कर रही है बल्कि भारतीय समाज में फैले हुए अंधविश्वास और अंधभक्ति का यह दुष्परिणाम है। पहलू ख़ान और उसके जैसे अन्य मामलों में यदि दोषियों को सख्त सज़ा नहीं मिली तो यह भारत की शासन-व्यवस्था के माथे पर काला टीका होगा। मैं सोचता हूँ कि लाल क़िले के अपने भाषण में मोदी को इस भीड़ की हिंसा के विरुद्ध खुलकर बोलना चाहिए था। सच्ची गोभक्ति इसी में है कि गाय की रक्षा के बहाने मनुष्यों की हत्या न हो। गाय और मनुष्य, दोनों की रक्षा हो, यह ज़रुरी है।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)
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