भारत के चार ख़ास प्रधानमंत्री किसी जाति, संप्रदाय, मज़हब, भाषा या वर्ग-विशेष के प्रतिनिधि नहीं थे। वे संपूर्ण भारत के प्रतिनिधि थे। वे प्रधानमंत्री थे, प्रचारमंत्री नहीं थे। वे प्रधानसेवक थे, प्रधानमालिक नहीं थे। वे सर्वसमावेशी थे, वे सर्वज्ञ नहीं थे।
कश्मीर ने पूरे देश को ज़ोरदार ढंग से यह संदेश दिया कि कश्मीर के लोग लोकतंत्र और संविधान में किसी संघी से ज़्यादा यकीन करते हैं, जो एक मात्र राष्ट्रवादी होने का दावा करते हैं।
क्या दिल्ली के बॉर्डर पर जन्म लेने वाले किसान धरने भी इक्कीसवीं सदी के चम्पारण में विकसित होने की दिशा में है? क्या यह धरना भी बीजेपी की घराना पूंजीवाद की राजनीति के ऊपर चढ़े हिन्दूवाद के मुलम्मे की चूलें हिला कर रख देने की तैयारी कर रहा है?
सरकार ने अब अपने किसान संगठन भी खड़े कर लिए हैं। मतलब कुछ किसान अब दूसरे किसानों से अलग होंगे! जैसे कि इस समय देश में अलग-अलग नागरिक तैयार किए जा रहे हैं।
बांग्लादेश की जयंति के 49वें और शेख मुजीबुर्रहमान के शताब्दी समारोह के मौके पर भारत और बांग्लादेश के प्रधानमंत्रियों के बीच बातचीत हुई, दोनों देशों के बीच जो 7 समझौते हुए हैं, उससे आपसी व्यापार, लेन-देन और आवागमन में काफी बढ़ोतरी होगी।
किसान आंदोलन से संबंधित गुरुवार की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान गतिरोध को हल करने के लिए एक बहुत ही समझदारी भरा रास्ता दिखाया। सरकार को इन क़ानूनों के कार्यान्वयन को रोकना चाहिए।
कृषि क़ानून के विरोध को प्रधानमंत्री और उनके वफादार किसानों को ‘ग़लत’ या ‘गुमराह’ घोषित कर सारे आन्दोलन को विपक्ष द्वारा प्रायोजित गुमराह लोगों का ग़ैर-ज़रूरी आन्दोलन कह कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं।
जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल के बीच वैचारिक टकराव की तरह-तरह की चर्चाएँ होती हैं, नीतियों को लेकर दोनों में मतभेद भी थे। लेकिन उनका आपसी प्रेम अंतिम समय तक बना रहा।
सरदार वल्लभभाई पटेल की आज पुण्यतिथि है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने 'किसान नेता' सरदार पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति नर्मदा के तट पर स्थापित कराई। लेकिन वह आज किसानों की बात क्यों नहीं सुनते?
देश के ज़्यादातर पढ़े-लिखे, शहरी और ऊँची जातियों के लोग स्वेच्छया ‘हम दो और हमारे दो’ की नीति पर चल रहे हैं लेकिन ग़रीब, ग्रामीण, अशिक्षित, मज़दूर आदि वर्गों के लोगों में अभी भी यह आत्म-चेतना जागृत नहीं हुई है।