करो या मरो! 1942 की अगस्त क्रांति का यही नारा था जिसने दूर दिखाई पड़ रही आज़ादी की भोर को अगले पाँच साल में हक़ीक़त बना दिया। इस क्रांति के साथ एक सपना भी जुड़ा था जिसे 80 साल बाद आज ज़मींदोज़ होते देखा जा रहा है।
क़रीब एक सौ चौंतीस साल पुरानी कांग्रेस 2014 और 2019 की हार के कारण सन्निपात की स्थिति में पहुँच गई है। एक पार्टी के तौर पर यह इतनी विचलित पहले कभी नज़र नहीं आयी। क्या हिंदू राष्ट्रवाद के भँवर में फँसकर ऐसी स्थिति में कैसे पहुँच गई?
आम्बेडकर ने क्यों लिखा था कि मुझे लगता है कि हमें कश्मीर के बजाय पूर्वी बंगाल पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए, जिसके बारे में हमें अख़बारों से पता चल रहा है कि वहाँ हमारे लोग बहुत ख़राब परिस्थितियों में रहे हैं?
क्या लोकतंत्र का अर्थ बहुमत की तानाशाही है? क्या बहुमत जो खाता-पीता है, जैसे रहता-जीता है, जैसे पूजा-अर्चना करता है, वही सारे देश को करना होगा? पढ़िए, 8 अगस्त 2019 को लिखी नीरेंद्र नागर की टिप्पणी।
सुषमा स्वराज अपने बेहद सहज और मिलनसार स्वभाव की वजह से राजनीतिक गलियारों में सबकी चहेती रहींं। सभी पार्टियों में नेताओं से उनके व्यक्तिगत अच्छे संबंध थे। उनकी यादें हमेशा ताज़ा रहेंगी।
क्या जम्मू-कश्मीर के दो हिस्से करने से कश्मीर समस्या का समाधान हो जायेगा? क्या कश्मीर में आतंकवाद ख़त्म हो जायेगा? क्या आतंकवादी हिंसा पूरी तरह से दब जायेगी? पढ़िए, चार साल पहले आशुतोष ने क्या लिखा था।
5 अगस्त 2019 को संसद में संकल्प में अमित शाह ने पूरा अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की बात नहीं की और केवल 2 और 3 को समाप्त करने की बात क्यों की? जानें क्या क़ानूनी उलझन थी? पढ़ें 4 साल पहले छपी यह रिपोर्ट।
1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी से कश्मीर की सापेक्ष स्वायत्तता को समाप्त करने का जो सिलसिला नेहरू सरकार ने शुरू किया था, उसे मोदी सरकार ने तार्किक परिणति तक पहुँचा दिया है।
केंद्र की एनडीए सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 को निर्वीर्य यानी शक्तिहीन करने की तैयारी कर ली है और गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में आज तत्संबंधी प्रस्ताव पेश किया।
रक्षा सचिव को यह आदेश दिए गए हैं कि वे आर्डनेंस फ़ैक्ट्री बोर्ड का कार्पोरेटाइज़ेशन कर दें। दूसरे सार्वजनिक उपक्रमों की भी ऐसी ही स्थिति है। क्या नरेन्द्र मोदी एक से ज़्यादा तरीक़ों से इस देश को ख़तरनाक रास्ते पर ले जा रहे हैं?
तीन तलाक़ पर अपने रवैये से जदयू ने केंद्र में अपनी गठबंधन की मोदी सरकार का रास्ता तो आसान कर दिया लेकिन क्या इससे ख़ुद उसकी आगे की राह मुश्किल हो गई है?