आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद ज़्यादातर बार सत्ता परिवर्तन में छात्र आंदोलनों की अहम भूमिका रही है। छात्र आंदोलनों की ताक़त को कमतर समझना हमेशा ही नुक़सान का सौदा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट का नाम रखा है, उन्होंने बंगाल के बँटवारे और भारत छोड़ो आन्दोलन को कुचलने की माँग की थी।
जाति जनगणना पर महाराष्ट्र सरकार प्रस्ताव पास करने से राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति आदि को दलित व पिछड़ी जाति बताकर वंचित तबक़े का हितैशी होने का दावा करने वाली बीजेपी फँसती नज़र आ रही है।
विकास दर से जुड़े तमाम आँकड़े बताते हैं कि स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, पर गौर करने पर यह तसवीर सामने आती है कि स्थिति उतनी बुरी भी नहीं है, जितनी लोग समझ रहे हैं।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ग़ैरमौजूदगी में भी उनकी नज़्म पाकिस्तान हुकूमत की चूलें हिला रही थी। ऐसी नज़्म को कुछ लोग अगर हिंदू विरोधी समझ रहे हैं तो उनकी बुद्धि पर तरस खाना चाहिए।
मोदी सरकार को यह समझना होगा कि छात्रों के अलावा बड़े पैमाने पर दलित, आदिवासी, किसान और नौजवान उसके ख़िलाफ़ क्यों दिख रहे हैं? निश्चित रूप से यह उसके लिए चेतावनी की घंटी है।
मौसम की अति के चलते असमय होने वाली सैकड़ों मौतें हमारे उस भारत की नग्न सच्चाइयाँ हैं जिसके बारे में दावा किया जाता है कि वह तेज़ी से विकास कर रहा है और जल्द ही दुनिया की एक आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा।
धार्मिक भेदभाव को हवा देने वाले नागरिकता क़ानून और एनआरसी के विरोध में करोड़ों भारतीय नागरिकों के साथ हिंदू-मुसलिम महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर देशव्यापी आंदोलन कर रही हैं।
दिल्ली में नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर विरोध-प्रदर्शन के दौरान जब छात्रों ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म गायी तो इस नज़्म को हिंदू-विरोधी क़रार दिया गया। आख़िर फ़ैज़ कौन थे? क्यों है इतना विवाद?
आर्थिक जगत में डॉ. भीमराव आम्बेडकर के योगदान को हमेशा कमतर आँका गया है। आज़ादी के बाद अगर उन्हें समय मिलता, तो निश्चित ही अर्थशास्त्री के रूप में उनकी सेवाओं का लाभ दुनिया ले पाती।