अगर लॉकडाउन लंबे समय तक जारी रहा तो इससे करोड़ों लोगों के बेरोज़गार होने का ख़तरा है। लेकिन इसे हटा लें तो तो कहीं भारत में भी इटली और अमेरिका-जैसा विस्फोट न हो जाए।
बीते कुछ दिनों में हरेक जागरूक हिन्दुस्तानी का वास्ता इस सवाल से ज़रूर पड़ा होगा कि पश्चिम के विकसित देशों की अपेक्षा क्या भारत पर कोरोना की मार कम पड़ी है? क्या भारत के आँकड़े देश की सच्ची तसवीर दिखा रहे हैं?
अगर कृषि क्षेत्र में फ़सलों की समस्याओं का तत्काल समाधान न किया जाए, तैयार फ़सलों की कटाई न की जाए और उन्हें मंडी तक न पहुँचाया जाए तो फ़सलें ख़राब हो जाएँगी।
एक रिपोर्ट के मुताबिक़ कोरोना महामारी के कारण भारत के 40 करोड़ लोगों के ग़रीबी रेखा के नीचे जाने का ख़तरा बढ़ गया है और लॉकडाउन से मजूदर बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट-2020’ बताती है कि भारत खुशहाल देशों की सूची में पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल से पीछे है जबकि 2013 तक उसकी स्थिति ठीक थी। आख़िर ऐसा क्यों हुआ है।
चंद रोज़ पहले तक सवा सौ करोड़ की आबादी के इस मुल्क में संक्रमण पर प्रभावी नियंत्रण दिखाई दे रहा था। लेकिन अब स्थिति नियंत्रण से बाहर होती दिख रही है। इसके लिए ज़िम्मेदार कौन?
लम्बे समय तक चल सकने वाले लॉकडाउन के दौरान हमें इस एक सम्भावित ख़तरे के प्रति भी सावधान हो जाना चाहिए कि अपने शरीरों को ज़िंदा रखने की चिंता में ही इतने नहीं खप जाएँ कि हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक आत्माएँ और आस्थाएँ ही मर जाएँ।
कोरोना वायरस की महाआपदा ने देश की न्यायिक व्यवस्था को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर दिया है। भले ही अभी इस तरफ़ बहुत कम लोगों का ध्यान गया है लेकिन आने वाले समय में इस क्षेत्र में आपको व्यापक परिवर्तन देखने को मिल सकते हैं।
क्या 14 अप्रैल के बाद लॉकडाउन ख़त्म होगा। लेकिन इससे अहम सवाल है कि केंद्र और राज्य सरकारें लॉकडाउन के बाद पैदा होने वाले हालात से निपटने के लिए तैयार हैं?
कोरोना वायरस से व्याप्त वर्तमान माहौल में सबसे नाजुक स्थिति विभिन्न आयु-समूहों के बच्चों और विद्यार्थियों की है। वायरस से बचाने के लिए बच्चों के स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए गए हैं और वे बड़ों के साथ घरों में कैद रहने को मजबूर हैं।