1984 के सिख विरोधी दंगों में भीड़ ने बेगुनाहों का क़त्ल किया। उस वक़्त अल्पसंख्यक सिख समुदाय किस पीड़ा से गुज़रा होगा, इसका दूसरों के लिए अहसास करना भी मुश्किल है।
बेगुनाह सिखों का क़त्ल करने वाली दंगाई भीड़ को हर क़त्ल के हिसाब से ईनाम देने की घोषणा कांग्रेस नेता सज्जन कुमार खुलेआम कर रहा था। और जब वह इस सांप्रदायिकता की आग पर रोटियाँ सेंक कर संसद पहुँचा तब मेजें थपथपाई जा रही थीं। नवंबर 1984 में तीन दिन अपने ही देश की राजधानी में, अपनी ही पुलिस और फ़ौज की निगरानी में, अपने ही देश के मासूम नागरिकों की नस्लकुशी कर फ़िरकापरस्ती की आग पर चुनावी रोटियाँ सेंकने को उतावले राजीव गाँधी जब जल्द चुनाव करवा रहे थे तब किसी चुनाव आयोग को चुनाव लायक माहौल बनने का और चुनाव नहीं करवाने की नहीं सूझी।
अपने ही देश की जनता को मारकर विश्व विजयी होने का भ्रम पालकर ऐसी मानसिकता के साथ रण नगाड़े बजाकर 'बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती काँपती ही है' कहकर क़त्लेआम को सही ठहराने पर अगर कथित सेक्युलरवादियों को साँप न सूँघा होता और ये जाग गए होते तो शायद तसवीर बदल जाती।
आज मॉब लिंचिंग की ख़बरों पर रह-रहकर दिखावा भर करने के लिए जागने वाला मीडिया नवंबर 1984 में मानो मृत हो गया था। देश की राजधानी में हज़ारों लोगों को ज़िंदा जलाया जा रहा था। दुकानें लूटी जा रही थीं। घर तहस-नहस किए जा रहे थे। लेकिन मीडिया ने आँखों पर ऐसी पट्टी बाँधी कि अख़बारों में सिंगल कॉलम ख़बर भी नहीं थी।
जी हाँ। जेसिका लाल कांड में दस साल तक रिपोर्टिंग होती है, लेकिन हज़ारों सिख देश के अंदर राजधानी में ज़िंदा जला दिए जाते हैं, लेकिन ख़बर सिंगल कॉलम भी नहीं आती है। ऐसे मीडिया से आज हम कश्मीर के हालात पर रिपोर्टिंग की आशा करेंगे? सरकारी हंटर पर नाचने वाला यह मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तंभ से सत्ता का पहरेदार बन चुका है। उस वक़्त मीडिया की भूमिका पर आपराधिक मौन धारण करने वाले आज मीडिया की गिरावट पर अफसोस जताते हैं तो हैरानी होती है।
सरहद पर एक फ़ौजी के शहीद होने पर पाकिस्तान की ईंट से ईंट बजाने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि 1984 में भारतीय सेना के 58 अफ़सर और फ़ौजियों को हिंसक भीड़ ने मार डाला था। कभी कोई रिपोर्टिंग हुई?
ये वे लोग थे जो सरहद पर ड्यूटी निभाने जा रहे थे या फिर सरहद से छुट्टी लेकर अपने घर वापस जा रहे थे। जी हाँ। ये देश के ही फ़ौजी थे और देश की वर्दी में ही जलाए गए। कुछ चश्मदीदों का तो यहाँ तक कहना है कि इनके पास बंदूक़ें भी थीं और ये फ़ौजी थे पर अपने ही नागरिकों पर फ़ायर करने से इनकार कर दिया। लेकिन भीड़ ने बक्शा नहीं। अगर वायु सेना के ग्रुप कैप्टन ने अपने परिवार को बचाने के लिए भीड़ पर गोली चलाई तो पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया। अपनी सुरक्षा के लिए गोली चलाने वाले को गिरफ़्तार करने के लिए दिल्ली पुलिस के विशेष आयुक्त आमोद कंठ को वीरता का राष्ट्रपति पुरस्कार मिला। दंगाइयों से पीड़ितों को बचाने के लिए नहीं। दंगाइयों से ख़ुद को बचाने की कोशिश करने वाले को गिरफ़्तार करने के लिए। हाल में कोर्ट ने कहा कि यह बहुत शर्म की बात है कि ऐसे लोगों को वीरता पुरस्कार मिला।
भीड़ आग लगाती रही
बहरहाल, जिस गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब पर हमले के लिए कमलनाथ, जो कि पूर्व मुख्यमंत्री हैं मध्य प्रदेश के, भीड़ की अगुआई कर रहे थे। वहीं दिल्ली पुलिस का कमिश्नर सुभाष टंडन गुरुद्वारे पर गोलियाँ चलवा रहा था। मुख्तियार सिंह का हलफ़नामा है कि जब गुरुद्वारे पर हमला हुआ तो एक सिख बुजुर्ग ने गेट पर आकर कहा 'गुरु तेगबहादुर हिंद दी चादर'। उसके इतना कहने पर कि ‘हिंदू धर्म के लिए गुरु तेगबहादुर साहब ने बलिदान किया है और यह बलिदान का घर है जहाँ धड़ का संस्कार हुआ था ऐसे पवित्र स्थान पर हमला न करो', भीड़ ने कुछ नहीं सुना और उसे आग लगा दी। पिता को जलते देखकर उसका बेटा बचाने आया तो उसे भी आग लगा दी। दोनों तड़पते रहे लेकिन पुलिस ने अस्पताल नहीं ले जाने दिया। दोनों ने वहीं तड़प-तड़पकर दम तोड़ दिया। त्रिलोकपुरी में 400 से अधिक सिखों का क़त्लेआम कराने वाला एसएचओ शूरवीर त्यागी था। 30 लड़कियों को उठाकर चिल्ला गाँव ले गए और उनको बचाने से मना करने वाला डीएसपी सेवादास था।
कमेटी की रिपोर्टों का क्या हुआ?
कमेटियों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। कुसुम लता मित्तल कमेटी ने 72 पुलिस अफ़सरों को पुलिस के नाम पर कलंक बताकर कार्रवाई करने को कहा। लेकिन कुछ नहीं हुआ। कार्रवाई करता कौन? उस समय देश के गृह मंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव थे। बाबरी मसजिद के ढहने पर नरसिम्हा राव की भूमिका पर सवाल उठाने वाले क्यों भूल जाते हैं कि 1984 में यही गृह मंत्री थे। जब वेद मारवाह कमीशन ने पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़े किए तो उन्होंने उस आयोग को भंग कर दिया। जब फ़ौज लगाने को कहा गया तो इन्होंने फ़ौज लगाने से मना कर दिया। इन्होंने रंगनाथ मिश्रा आयोग बनाकर सारे क़त्लेआम पर मिट्टी डाल दी। यह वही रंगनाथ मिश्रा थे जिन्हें बाद में कांग्रेस ने टिकट देकर राज्य सभा में भेजा दिया।
सच्चाई यह है कि साध्वी प्रज्ञा के संसद पहुँचने पर सवाल खड़े करने वालों ने अगर एच. के. एल. भगत टाइप के मंत्री बनने पर अपनी ज़ुबान बंद न कर ली होती तो शायद हालात कुछ और होते।
आयोग पर आयोग बनते रहे लेकिन इंसाफ़ नहीं हुआ। 37 वर्ष बीत चुके हैं। विधवाओं और अनाथ बच्चों के आँसू आज भी सूखे नहीं हैं।
एसआईटी जाँच में क्या हुआ?
ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2018 में एसआईटी बनाने से पहले 2015 में मोदी सरकार ने पूर्व आईपीएस प्रमोद अस्थाना की अध्यक्षता में एक एसआईटी बनाई थी। इसे छह महीने में रिपोर्ट देनी थी लेकिन दो साल बाद कहा कि सात-आठ मामले खोले जा सकते हैं, लेकिन बाक़ी सारे मामले बंद कर दो। तब सुप्रीम कोर्ट को एसआईटी बनानी पड़ी। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि सुप्रीम कोर्ट 34 साल के बाद क्यों जागा था।
अगर यही सर्वोच्च न्यायालय 1984 के बाद जाग जाता और एसआईटी बनाता, जिस तरह 2002 में दंगों के बाद सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एसआईटी बनी और जिस तरह सारे केस गुजरात से हटाकर महाराष्ट्र में ले जाए गए, तो उसी तरह यह 1984 में क्यों नहीं हुआ?
ये दोहरे मानदंड क्यों अपनाए गये। सच्चाई यह भी है कि अगर सात अप्रैल 2009 को क़ातिलों के छूटने पर ख़ुशी जताने के तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के बयान पर सवाल न दाग़े गए होते, जूते से न जगाया गया होता तो सज्जन कुमार आज जेल की सलाखों के पीछे नहीं पहुँचता। जिस सीबीआई ने 2009 में सज्जन कुमार के ख़िलाफ़ केस बंद कर दिया था उसी को जूता कांड के बाद चार्जशीट दाखिल करनी पड़ी।
सज्जन कुमार
2013 में छह अभियुक्तों में से पाँच को निचली अदालत ने सज़ा दे दी और सज्जन कुमार को छोड़ दिया। लेकिन 2018 में हाई कोर्ट ने उसे भी दोषी माना और उम्रकैद की सजा सुना दी। जिस किशोरी लाल को सात निर्दोष सिखों के क़त्ल में हाई कोर्ट में सात दफ़ा फाँसी की सज़ा सुनाई गई थी उसे सुप्रीम कोर्ट ने उम्रकैद में बदल दिया। और तो और, शीला दीक्षित सरकार ने उसे अच्छे ‘चाल-चलन’ के लिए रिहा करने का आदेश दे दिया। जी हाँ। सात मर्डर केस में जिसको दोषी ठहराया गया उसे रिहा करने का आदेश दिया।
सिख कौम नवंबर 1984 की पीड़ा को दीपावली और गुरु नानक साहब के प्रकाश उत्सव के बीच हर साल याद करने को मजबूर है। हर साल जब गुरु नानक साहब का प्रकाश पर्व आने वाला होता है तो 1984 के इस दुख और पीड़ा से होकर गुज़रना पड़ता है। लेकिन दुख तब और बढ़ जाता है जब रावण का हर वर्ष पुतला फूँकने वाले, 550 साल पुराने राम मंदिर-बाबरी मसजिद विवाद पर भड़कने वाले और पाकिस्तान बनने के 72 साल बाद भी ख़ूनी बँटवारे को न भूलने वाले कहते हैं कि ‘सिखों 1984 को भूल जाओ, आगे बढ़ो, अब इससे कोई लाभ नहीं है’।
नहीं। इंसाफ़ नहीं हुआ है। इंसाफ़ नहीं हुआ है इसलिए कि इन क़त्लेआमों को भूला नहीं जाता। न ही सिख कौम भूलेगी। सबक़ लिया जाता है। इंसाफ़ किया जाए। इसलिए यह पीड़ा, जब तक इंसाफ़ नहीं होता, बनी रहेगी।
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