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इन 11 लोगों में हिंदू भी हैं और मुसलमान भी - जिन 6 बंगाली मज़दूरों को गोली मारी गई, वे सबके-सब मुसलमान हैं। यानी इन हत्याओं का धर्म से कोई लेना-देना नहीं था। हमलावरों की नज़र में सामने वाले की केवल एक पहचान थी - वे लोग कश्मीर घाटी से बाहर के लोग थे। ये सभी हमले राज्य से बाहर के लोगों पर हुए हैं, केवल 28 अक्टूबर को हुए हमले में मारा गया व्यक्ति जम्मू का निवासी था।
पहला हमला 14 अक्टूबर को हुआ था, जब राजस्थान के एक ट्रक ड्राइवर शरीफ़ ख़ान की हत्या कर दी गई थी और एक अन्य को घायल कर दिया गया था। उसके दो ही दिन बाद पंजाब के फल व्यापारी तरनजीत सिंह और छत्तीसगढ़ के ईंट-भट्ठा मज़दूर सेठी कुमार सागर को मार डाला गया। एक और हमला 24 अक्टूबर को हुआ जिसमें राजस्थान के ही एक और ट्रक चालक मोहम्मद इलियास सहित दो लोगों की जान चली गई। दूसरे व्यक्ति की पहचान नहीं हो पाई है लेकिन समझा जाता है कि वह भी कश्मीर से बाहर का ही था।
28 अक्टूबर को हुए हमले में नारायण दत्त नाम के एक ट्रक ड्राइवर की गोली मारकर हत्या कर दी गई। नारायण दत्त का केस इस मामले में थोड़ा अलग है क्योंकि वह जम्मू के ही कटरा इलाक़े के थे मगर उग्रवादियों के लिए वे ‘बाहरी’ ही थे।
कश्मीरी हिंसा में यह एक नया ट्रेंड है जो 2006 के बाद क़रीब-क़रीब बंद था। 2017 में अमरनाथ यात्रियों पर हुए हमले को छोड़ दें (जिसमें 8 तीर्थयात्री मारे गए थे) तो कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों ने पिछले 13 सालों से अपनी लड़ाई भारतीय सशस्त्र बलों तक ही सीमित रखी है। कभी-कभी मुख़बिर या पुलिस व सेना में भर्ती कश्मीरी भी उनकी गोलियों का निशाना बन जाते हैं। लेकिन ग़ैर-कश्मीरियों पर हमले 2006 के बाद से बंद थे। 2006 में हुए हमले में 16 प्रवासी मज़दूरों की जान गई थी। उसके बाद से ऐसी घटना नहीं घटी क्योंकि इन हमलों को स्थानीय लोगों का समर्थन नहीं मिला।
इस बीच आख़िर ऐसा क्या हुआ है कि आतंकवादी ग़ैर-कश्मीरियों को फिर से निशाना बनाने लगे हैं? वजह एक ही है और वह बिल्कुल स्पष्ट है - केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 के तहत राज्य को मिले विशेष दर्जे को समाप्त किया जाना।
जब तक कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा मिला हुआ था, तब तक कश्मीरियों को इस बात का गुमान था (जिसे कुछ लोग मुग़ालता भी कह सकते हैं) कि 1947 में भारत के साथ विलय करने का जो निर्णय लिया गया था, उसकी शर्तों का केंद्र सरकार पालन कर रही है। लेकिन 5 अगस्त के फ़ैसले ने उनका वह भ्रम तोड़ दिया। इस बात को लेकर कश्मीरियों में मन में कितना ग़ुस्सा है, यह हम इसी से जान सकते हैं कि कर्फ़्यू आदि में ढील देने और स्कूल-कॉलेज खोलने के आदेश के बाद भी आज क़रीब तीन महीनों से कश्मीर बंद है। और बंद है कश्मीरियों के मन में एक और बात पर ग़ुस्सा। वह ग़ुस्सा है भारतीयों के प्रति।
अब तक कश्मीरियों को भारतीयों से कुछ ज़्यादा लेना-देना नहीं था। यदि उन्हें जनमतसंग्रह का अधिकार नहीं दिया जा रहा था (जिसके बारे में वे अपनी राय आउटलुक के ओपिनियन पोल में बता चुके हैं), तो उसके लिए वे भारत सरकार को दोषी मानते थे या फिर भारतीय सेना को। यदि अनुच्छेद 370 के तहत मिले विशेष अधिकारों में धीरे-धीरे क्षय होता गया, तो उसके लिए भी राज्य के नेता और केंद्र की सरकार ही उनकी निगाहों में ज़िम्मेदार थे।
लेकिन इस बार जब केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 के दो खंड समाप्त कर उसे पिलपिला कर दिया और भारत की आम जनता ने उसका खुले और व्यापक तौर पर स्वागत किया, तो कश्मीरियों का मन राज्य से बाहर रहने वाले सभी भारतीयों के लिए मैला हो गया। शायद इसी को देखते हुए अगस्त के बाद से हज़ारों ग़ैर-कश्मीरी राज्य छोड़कर जा चुके हैं। निश्चित रूप से उन्होंने कश्मीरियों के व्यवहार में कोई तब्दीली देखी होगी हालाँकि ऐसी कोई घटना सामने नहीं आई है जिसमें आम कश्मीरी नागरिक ने किसी ग़ैर-कश्मीरी के साथ बदसलूकी की हो।
इन ग़ैर-कश्मीरियों को अगर भय था तो हर कश्मीरी के चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहे उस ग़ुस्से का जो कभी भी कोई अप्रिय शक्ल ले सकता था। ऐसी स्थिति में कब किस दिशा से गोली चल पड़ेगी, यह कहना मुश्किल था। यही कारण है कि उन्होंने हालात सामान्य होने तक अपने घरों को लौट जाना सही समझा।
लेकिन जो ग़ैर-कश्मीरी अब भी जान जोखिम में डालकर वहाँ रह रहे हैं या काम के सिलसिले में वहाँ जा रहे हैं, जैसे ट्रक ड्राइवर या व्यापारी, वे हथियारबंद कश्मीरियों के आक्रोश का शिकार हो रहे हैं। पहले जब ग़ैर-कश्मीरियों पर ऐसे जानलेवा हमले होते थे तो स्थानीय कश्मीरी, यहाँ तक कि अलगाववादी नेता भी, उसके ख़िलाफ़ बोलते थे। लेकिन अब ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही है। न नेताओं में, न आम जनता में। इन पाँचों हमलों के बाद घाटी में इनके ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं सुना गया।
कश्मीरियों के मन में ‘बाहरियों’ के प्रति इस ताज़ा दुराव का एक कारण यह भी है कि अनुच्छेद 370 के साथ-साथ अनुच्छेद 35ए भी समाप्त कर दिया गया है।
नतीजा यह हुआ कि 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने जो किया, इसका घोषित मक़सद भले ही भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के संबंधों को और मज़बूत करना रहा हो लेकिन हक़ीक़त में इस क़दम ने कश्मीर और कश्मीरियों को भारत से ही नहीं बल्कि भारतीयों से भी और दूर कर दिया है - इतना दूर कि अब उनके लिए भारत सरकार, भारतीय सेना और भारतीय लोगों में कोई अंतर नहीं रहा। ग़ैर-कश्मीरी उनके लिए पूरी तरह ग़ैर हो गए।
आतंकवादी कश्मीरियों की इसी नई मानसिकता का फ़ायदा उठा रहे हैं। सेना या सशस्त्र बलों पर हमला करना करना उनके लिए मुश्किल है क्योंकि वे भारी संख्या में हैं और उनके साथ भिड़ना अपनी मौत को दावत देना है। उनके मुक़ाबले निःशस्त्र ग़ैर-कश्मीरी आसान शिकार हैं। उनपर हमले करके वे भारत और भारतीयों से अपना ‘बदला' भी ले रहे हैं और उन्हें अपनी जान जाने का भी कोई ख़तरा नहीं है।
किसी भी युद्ध का लक्ष्य भी तो यही होता है कि अपना कम-से-कम नुक़सान और दुश्मन की भारी-से-भारी क्षति। ऐसे में यह समझना हमारी भूल ही होगी कि मंगलवार को बंगाल से आए मज़दूरों पर हमला ग़ैर-कश्मीरियों पर आख़िरी हमला है।
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