राष्ट्रपति की मुहर लगते ही नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 अब क़ानून बन चुका है। आज की तारीख़ में यह भारत का एक अति संवेदनशील राजनीतिक विषय है। क़ानून बनने से पहले इस विधेयक के लोकसभा एवं राज्यसभा में पारित होने के समय से ही तीखी बहस, आरोप-प्रत्यारोप और हर तरह के राजनीतिक दाँव पेच देखने को मिल रहे थे। पर अब एक और विकट स्थिति पैदा होने जा रही है जिसका भारत के संघीय ढाँचे पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे। यह विकट स्थिति है- ग़ैर-बीजेपी शासित राज्य सरकारें विरोध कर रही हैं तो केंद्र सरकार इसे कैसे लागू करा पाएगी?
राजनीतिक दलों ने अपने वैचारिक नीति एवं चुनावी रणनीति को ध्यान में रखते हुए इस विधेयक पर अपने दृष्टिकोण रखे और संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही में हिस्सा लिया। उसी समय यह साफ़ हो रहा था कि जिन दलों ने संसद में इस विधेयक का विरोध किया है, उनकी अगर राज्यों में सरकारें हैं तो वे अपने राज्य में इस क़ानून का विरोध अवश्य करेंगी। तत्काल पश्चिम बंगाल, केरल और पंजाब की राज्य सरकारों ने नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार कर दिया। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की सरकारों ने भी ऐसे संकेत दिए हैं कि वे भी इस क़ानून को अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगी। अगर इन सरकारों ने ऐसा किया तो भारतीय संवैधानिक व्यवस्था और संघीय ढाँचे को एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। अभी भारत के 17 राज्यों में बीजेपी या उसके गठबंधन एनडीए की सरकार है और तेरह राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में नहीं है। क्या ये तेरह राज्य/केंद्र शासित प्रदेश इस क़ानून को मानने से साफ़ इनकार कर देंगे?
सरसरी तौर पर तो यह लगता है कि राज्य सरकारें संवैधानिक रूप से इस नए क़ानून को लागू करने से इनकार नहीं कर सकती हैं। चूँकि यह क़ानून संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत संघ सूची में आता है इसलिए सभी राज्यों पर लागू होगा।
क्या है संवैधानिक स्थिति?
केंद्र के क़ानून को नहीं मानने की हालत में ऐसा माना जाएगा कि राज्य की सरकार संविधान के अनुसार नहीं चल रही है। इस स्थिति में धारा 356 का प्रयोग कर उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। ऐसा पहले हो चुका है।
ईएमएस नम्बूदरीपाद की केरल सरकार को 1959 में जवाहरलाल नेहरू ने ऐसी ही स्थिति में बर्खास्त किया था। केंद्र सरकार और केरल सरकार के बीच भूमि सुधार और शिक्षा क़ानून को लेकर ज़बरदस्त टकराव की स्थिति में हटाया गया। केरल की वामपंथी सरकार उस तरह के क़ानूनी प्रावधान लाना चाहती थी जो केंद्र सरकार के बनाए क़ानून से विपरीत था।
क्या कहता है क़ानून
भारतीय संविधान के पार्ट XI में केंद्र और राज्य के संबंधों की व्याख्या की गयी है और सीधे तौर से कहा गया है कि राज्यों को संसद से बने क़ानून का पालन करना ही पड़ेगा। संविधान की धारा 249 तो भारत की संसद को राष्ट्रहित में राज्य की सूची के विषय पर भी क़ानून बनाने का अधिकार देता है। संविधान की धारा 251 तथा 254 स्पष्ट करती है कि केंद्र और राज्य के बीच किसी भी विधेयक को लेकर विवाद की स्थिति में केंद्र की स्थिति मान्य होगी। संविधान की धारा 256 के अनुसार राज्य सरकार का यह दायित्व है कि वह संसद द्वारा बनाए गए क़ानून को मान्यता दे। धारा 257(1) के अनुसार प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार से किया जाएगा कि वह केंद्र की कार्यकारी शक्ति के प्रयोग में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करे।
समस्या व्यावहारिक है
यह ठीक है कि राज्य संसद के बनाए क़ानून को लागू करने से इनकार नहीं कर सकते। लेकिन एक भावनात्मक रूप से उद्वेलित राज्य में किसी भी केंद्र के अप्रिय क़ानून को लागू करना न सिर्फ़ व्यावहारिक नहीं है, बल्कि असंभव भी है। नागरिकता क़ानून को लागू कैसे किया जा सकता है अगर राज्य का स्थानीय प्रशासन और पुलिस मदद न करे? नागरिकता संशोधन क़ानून लागू करना तो क़ानून व्यवस्था से सीधा जुड़ा विषय है। क्या बग़ैर राज्यों के सहयोग के यह हो पाएगा? केंद्र सरकार कैसे विदेशी आप्रवासियों की पहचान करेगी? किस विदेशी को नए नागरिकता क़ानून से मदद मिलना है, किसे वंचित रखना है, इसका फ़ैसला कैसे होगा? क़ानून-व्यवस्था की ज़िम्मेदारी तो राज्यों की है। विदेशियों की पहचान के लिए एफ़आरओ के ऑफ़िस की बहुत बड़ी आवश्यकता होती है और यह पद ज़िले में सामान्य रूप से पुलिस अधीक्षक के पास होता है। वे राज्य सरकारें, जिन्हें नागरिकता संशोधन क़ानून पसंद नहीं है, इस काम में जितना चाहें उतना विलम्ब कर सकती हैं।
ऐसा सुनने में आया है कि केंद्र सरकार नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने के लिए एक नियम भी संसद से पारित करा सकती है। क्या केंद्र की सरकार राज्यों के अधिकारियों को सीधे आदेश देगी? नागरिकता संशोधन क़ानून राज्य के अंदरूनी कैडर के अधिकारियों के सहयोग के बिना नहीं हो पाएगी। अगर संबंधित मुख्यमंत्री ने अपने अधिकारियों को नागरिकता संशोधन क़ानून के क्रियान्वयन में भाग लेने से मना कर दिया तो क्या फिर वहाँ की सरकार को बर्खास्त किया जाएगा? केंद्र को राज्यों की सरकार को बर्खास्त करने पर जो राजनीतिक क़ीमत चुकानी पड़ेगी उसका भी तो ध्यान रखना होगा।
अगर राज्य में दुबारा चुनाव होने की स्थिति में उसी पार्टी की सरकार बनती है जिसे बर्खास्त किया गया था तो फिर क्या करेंगे? एनटी रामाराव की सरकार इंदिरा गाँधी के हाथों बर्खास्त होने के बाद सन 1983 में आँध्र प्रदेश के अगले चुनावों में और भी बड़े जनादेश लेकर आयी थी।
क्या हुआ प्रधानमंत्री के टीम इंडिया के विचार का?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में टीम इंडिया का मतलब केंद्र की सरकार और राज्यों के मुख्य मंत्रियों की मिलीजुली टीम को बताया था? इसी टीम पर भारत को आगे ले जाने की ज़िम्मेदारी थी। अब क़रीब आधी टीम तो इस क़ानून के ख़िलाफ़ दिख रही है। टीम के खिलाड़ी आपस में ही लड़ रहे हैं तो फिर देश का क्या होगा? भारत का संघीय ढाँचा केंद्र और राज्यों के बीच एक पारस्परिक सहयोग पर आधारित है। इस तरह के क़ानूनों से राष्ट्र विरोधी शक्तियाँ भारत के राजनीति में और भी ज़्यादा सशक्त होंगी। केंद्र और राज्यों के प्रशासनिक संबंधों को प्रभावित करने वाले अन्य कई कारक ऐसे भी होते हैं जो संविधान में वर्णित नहीं होते हैं लेकिन विभिन्न निकायों या सम्मेलनों आदि के रूप में विद्यमान होते हैं जो केंद्र तथा राज्यों के समन्वय को बढ़ाने का प्रयास करते हैं जैसे कि क्षेत्रीय परिषद्, राष्ट्रीय विकास परिषद्। आवश्यक है कि वैसे मंचों पर केंद्र और राज्य की सरकारें साथ बैठें और इस क़ानून की दुबारा से समीक्षा करें।
आगे की राह मुश्किल?
अगर केंद्र सरकार को किसी राज्य में अपना क़ानून हर हाल में लागू करना है और वहाँ उनका जनसमर्थन नहीं है तब तो वर्तमान के संविधान अनुसार उस राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदलने के सिवा कोई और विकल्प नहीं है। लेकिन कितने केंद्र शासित प्रदेश बनाए जा सकते हैं? भारत के संविधान ने भारत को राज्यों का संघ बताया है न कि केंद्र शासित प्रदेशों का। आगे की राह कठिन दिख रही है। भारत जैसे देश में एकीकृत शासन व्यवस्था बनाने की कोशिश करना असंभव है। इस देश को राजनीतिक शक्तियों और व्यवस्था के विकेंद्रीकरण की आवश्यकता है। बेहतर तो यह होगा कि राज्यों की आपत्तियों को सुना जाए और अगर इस नागरिकता संशोधन क़ानून में और नए संशोधन की ज़रूरत दिखे तो अवश्य करना चाहिए।
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