नीचे दो तसवीरें लगा रहा हूँ। एक साल 2009 की है, एक 2022 की। पहली तसवीर लखनऊ में योगी आदित्यनाथ के शपथ समारोह की है। मोदी के आगे 145 डिग्री तक झुक आए शख़्स का नाम है नीतीश कुमार। पढ़िए, दोनों के रिश्तों पर यह टिप्पणी।
जून, 2013 का वक्त था। नरेंद्र मोदी को साल 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए बीजेपी की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया। तब इन्हीं नीतीश ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया। इसके बाद नीतीश ने खुद को धार्मिक तटस्थता के पैरोकार के रूप में पेश किया। इधर, बिहार बीजेपी ने महीनों तैयारी कर मोदी की पहली रैली करवाई। नाम था- हुंकार रैली। बड़े-बड़े पत्रकार दिल्ली से बिहार निर्यात किए गए। पूरे पटना को मोदी के पोस्टरों से पाट दिया गया। इस रैली में मोदी ने नीतीश को ‘मौकापरस्त’ और ‘बगुलाभगत’ तक कहा।
साल 2014 के चुनावों पर लिखी अपनी एक किताब में राजदीप सरदेसाई बताते हैं- कुछ साल पहले एक रात्रि भोज पर मैंने नीतीश से पूछा था कि मोदी के बारे में ऐसा क्या था कि वह इतना आहत हो गए। इस पर नीतीश का जवाब था, “यह विचारधारा की लड़ाई है...यह देश सेक्युलर है और सेक्युलर रहेगा...कुछ लोगों को यह पता होना चाहिए।”
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साल 2005 में बिहार चुनाव हुए। मुसलिम वोट लालू से शिफ़्ट होकर नीतीश की तरफ़ चले गए। इससे नीतीश की पूरे बहुमत के साथ सरकार आई। नीतीश समझ गए कि अब लंबी राजनीति के लिए मुसलिम वोट चाहिए। इसलिए उन्होंने बीजेपी गठबंधन में रहते हुए भी मोदी से दूरी बनानी शुरू कर दी।
इस बीच नीतीश बीजेपी से संबंध बनाए रखने के लिए जेटली और सुशील मोदी से काम चलाते रहे। साल 2009 का समय था। बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे आडवाणी। बीजेपी ने शक्ति प्रदर्शन के लिए लुधियाना में संयुक्त रैली रखी और नीतीश को बुलाया।
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नीतीश ने आने में अनिच्छा ज़ाहिर की क्योंकि उन्हें मालूम था कि वहाँ मोदी आएँगे। नीतीश नहीं चाहते थे कि वे मोदी के साथ मंच साझा करें। क्योंकि उन्हें खुद को सेक्युलरिज्म के एक शीर्ष पैरोकार के रूप में दिखाना था। तब मोदी बीजेपी में कोई बड़ी ताक़त भी नहीं थे इसलिए उन्हें इग्नोर करने में नीतीश का कोई नुक़सान भी नहीं था।
नीतीश की अनिच्छा देख जेटली ने उन्हें कहा कि ये आडवाणी का कार्यक्रम है इसलिए उनका होना ज़रूरी है। नीतीश के आडवाणी से अच्छे सम्बन्ध थे। इसलिए वहां जाने के लिए राज़ी हो गए। लेकिन मोदी बड़े राजनीतिक खिलाड़ी हैं। नीतीश के मंच पर पहुंचते ही वे अभिवादन करने के लिए पहुँच गए और नीतीश का हाथ पकड़ लिया।
ये ऐसा सीन था जिसे टीवी और अख़बारों की हेडलाइनों ने लपक लिया। नीतीश इसपर लाल-पीले हो गए। उन्होंने मोदी के हाथ पकड़ने की घटना को खुद के साथ विश्वासघात कहा। राजदीप की किताब के अनुसार नीतीश ने बाद में जेटली से कहा, ‘आपने अपना वायदा नहीं निभाया।’
साल 2010 में पटना में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी। पूरे पटना में मोदी के बड़े-बडे़ पोस्टर लगाए गए। जिसमें कोसी के बाढ़ पीड़ितों के लिए मोदी के योगदान का आभार व्यक्त किया गया था। दरअसल गुजरात सरकार ने बाढ़ पीडितों के लिए 5 करोड़ रुपए दिए थे।
नीतीश ने पटना में आए बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं को अपने यहां डिनर पर बुलाया हुआ था। नीतीश ने जब समाचार पत्रों में मोदी के दान वाले विज्ञापन देखे तो ग़ुस्सा हो गए। उन्होंने डिनर कार्यक्रम तक रद्द कर दिया और बाद में दान के पैसे लेने से भी इंकार कर दिया। इस बात पर मोदी भी गुस्सा हो गए।
राजदीप की किताब के अनुसार मोदी ने तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी से कहा, ‘आप नीतीश को मेरे साथ ऐसा आचरण करने की अनुमति कैसे दे रहे हैं?’ नीतीश की आत्मकथा लिखने वाले संकर्षण के अनुसार, ‘यह वह दिन था जब नीतीश-मोदी की लड़ाई ने व्यक्तिगत स्तर पर एक भद्दी शक्ल ले ली।’
राजदीप सरदेसाई की किताब के अनुसार- 2010 की घटना पर नीतीश ने अपने एक सहयोगी से कहा, ‘हम उनके (मोदी-बीजेपी) बगैर भी चल सकते हैं।’ 2010 के बाद बीजेपी में मोदी का क़द बढ़ने लगा। 2013 तक वे बीजेपी के निर्विवादित शीर्ष नेता बन गए। 2013 में नीतीश ने भी बीजेपी गठबंधन से रिश्ता तोड़ लिया।
एक वक्त था, जब सार्वजनिक मंच पर मोदी के गले मिलने पर नीतीश लाल-पीले हो गए और एक वक्त अब है, जब वो ही तीर-कमान की तरह मोदी के पैरों में लटक रहे हैं। वे एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं लेकिन आचरण उस राज्यपाल की तरह कर रहे हैं जिसका कार्यकाल प्रधानमंत्री की दया पर आश्रित होता है। समय-समय की बात है।
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