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पीएम जवाब दें कि यूपी में गैस सिलेंडर 450 रुपये में क्यों नहीं देते!

राजस्थान के श्रीगंगानगर की एक चुनावी सभा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गाँधी ने वादा किया कि बीजेपी सरकार ने जितना पैसा अडानी जैसे अरबपतियों को दिया है उतना पैसा वे हिंदुस्तान के गरीबों के बैंक खाते में डालेंगे। राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनने पर महिलाओं को दस हज़ार रुपये सालाना देने सहित कांग्रेस पार्टी की ओर से घोषित सातों गरंटियाँ लागू की जाएँगी।

इस बयान में स्पष्ट है कि राहुल गाँधी देश के ग़रीबों के पक्ष में खड़े होकर प्रधानमंत्री मोदी के ‘दुलरुआ’ और क्रोनी कैपिटल्ज़िम के प्रतीक बन चुके कॉरपोरेट जायंट गौतम अडानी पर निशाना साध रहे हैं। यह भारतीय राज्य के वास्तविक अर्थों में कल्याणकारी बनाने का वादा है। यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य लेकर चल रही मोदी सरकार से सवाल है कि जीडीपी के इस विस्तार में आम ग़रीबों का हिस्सा कितना है? अगर सरकार के मंत्री चार ट्रिलियन इकोनॉमी होने का झूठा ढोल पीट रहे हैं तो फिर देश के अस्सी करोड़ लोग सरकार से मिलने वाले पाँच किलो राशन के मोहताज क्यों हैं या भुखमरी सूचकांक और प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत की स्थिति दयनीय क्यों है?

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हालिया विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान जो शब्द सबसे ज़्यादा प्रचलित हुआ है, वह है-‘गारंटी।‘ बीजेपी के तमाम भावनात्मक मुद्दों की गरमी पर इस गारंटी की राजनीति ने पानी डालने में सफलता पायी है। कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत इसका प्रमाण है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान तेलंगाना, मिज़ोरम के चुनाव प्रचार में भी इनका जोर कायम रहा है। कांग्रेस का सारा जोर फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य, बेरोज़गार नौजवानों, महिलाओं आदि को सीधा नकद सहयोग देने के वादे पर रहा। राजस्थान में तो अशोक गहलोत सरकार की ‘चिरंजीवी योजना’ ने तो दूसरे प्रदेशों के लिए भी ‘काश’ जैसी भावना पैदा कर दी है। जिस दौर में गंभीर बीमारी होने पर घर बिकने की नौबत आ रही हो, वहाँ बड़े से बड़े अस्पताल में जाकर 25 लाख रुपये तक का इलाज कराने की सुविधा एक आश्चर्यजनक तोहफा है जिसका लाभ हर कोई लेना चाहेगा।

कांग्रेस के इस दाँव के जवाब में बीजेपी भी गारंटियों की बात करने पर मजबूर है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को 18 साल के शासन के अंतिम दौर में ‘लाडली बहना’ योजना चलानी पड़ी जिसमें गरीब महिलाओं को 1250 रुपये प्रतिमाह देने का दावा किया गया है। उधर, प्रधानमंत्री मोदी खुद को ही ‘गारंटी’ के रूप में पेश कर रहे हैं। हालाँकि उनके पास इसका जवाब नहीं है कि अगर राजस्थान में उनकी सरकार 450 रुपये में रसोई गैस का सिलेंडर देने का वादा कर सकती है तो उत्तर प्रदेश या उत्तराखंड की जनता को ये नसीब क्यों नहीं है जहाँ बीजेपी की ही सरकार है? या बाक़ी प्रदेशों की जनता का क्या गुनाह है जो लगभग हज़ार रुपये का सिलेंडर खरीद रही है? आखिर प्रधानमंत्री तो पूरे देश का होता है, किसी प्रदेश का नहीं!

ग़ौर से देखा जाए तो जनता अब सिर्फ़ हवाई वादों पर भरोसा करने को तैयार नहीं है, उसे पार्टियों से ठोस वादों की दरकार है। वह ऐसी योजनाएँ चाहती है जो तुरंत उसकी ज़िंदगी पर असर डालें न कि सिर्फ भविष्य का सपना दिखायें। यह ‘तंत्र’ पर ‘लोक’ का सीधा हस्तक्षेप है जो सिर्फ़ लोकतंत्र का बोर्ड देखकर संतुष्ट नहीं है। देश की अर्थनीति लंबे समय से ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ के भरोसे थी जिसके तहत संपन्नता को रिस कर नीचे पहुँचना था ताकि गरीबी दूर हो। लेकिन समय ने इस थ्योरी की सीमाएँ स्पष्ट कर दी हैं। देश की जीडीपी तेजी से बढ़ी है और सरकार का दावा है कि भारत जल्दी ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश हो जाएगा। लेकिन सरकार के अपने आँकड़े ही बताते हैं कि 80 करोड़ जनता पाँच किलो राशन के लिए सरकार पर आश्रित है। 
प्रति व्यक्ति आय और भुखमरी सूचकांक में भारत की शर्मनाक स्थिति भी असमान विकास की भयावह तस्वीर सामने रखती है। 21 अरबपतियों के पास 70 करोड़ भारतीयों के बराबर की संपत्ति इकट्ठी हो चुकी है। तीन फ़ीसदी जीडीपी पर देश की आधी आबादी ग़ुज़ारा करती है।
तो क्या यह गारंटी राजनीति देश की आर्थिक नीति को बड़े पैमाने पर प्रभावित करने जा रही है। कांग्रेस की गारंटी राजनीति के बीज राहुल गाँधी की ‘न्यूनतम आय गारंटी स्कीम’ में नज़र आते हैं जो उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में सामने रखा था, लेकिन पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद पैदा किये गये ‘राष्ट्रवादी तूफ़ान’ में जनता उसकी ओर ध्यान नहीं दे पायी थी। उस न्यूनतम आय योजना (न्याय) के तहत औसतन छह हज़ार रुपये महीना कमाने वालों को छह हज़ार रुपये सरकार की ओर से मुहैया कराये जाने थे जिससे उसकी आय 12 हजार हो जाती। इसका लाभ 25 करोड़ लोगों को मिलता। कहा गया था कि गरीबों की जेब में पैसे आने से अगली पीढ़ी की शिक्षा और रोजगार की संभावनाओं में इजाफा होगा, साथ ही स्थानीय बाज़ार भी इससे गति पायेंगे।
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वैसे, दुनिया के तमाम अर्थशास्त्रियों ने न्यूनतम आय गारंटी या सकल मूलभूत आय (यूनिवर्सल बेसिक इनकम) को विकास के लिए एक अहम उपाय बताया है। दुनिया के कई देशों में इसे लेकर प्रयोग हुए हैं या चल रहे हैं। लेकिन यह मौजूदा कॉरपोरेट चालित अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है। 2017 में नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने कहा था कि देश के पास ऐसी योजनाओं के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। हालाँकि ऐसी योजना की वक़ालत करने वाले लंदन युनिवर्सिटी के प्रो.स्टैंडिंग के मुताबिक भारत में युनिवर्सल बेसिक इनकम लागू करने पर जीडीपी का तीन से चार फ़ीसदी खर्च आयेगा जबकि सब्सिडी पर सरकार चार से पाँच फीसदी तक खर्च करती है।

ज़ाहिर है, गारंटी योजनाओं के ज़रिये कांग्रेस, मोदी सरकार की कारपोरेटपरस्त नीतियों को चुनौती दे रही है। मोदी सरकार के पास स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के नाम पर पाँच लाख की आयुष्मान योजना है जो सीधे-सीधे बीमा कंपनियों को फायदा पहुँचाती है जबकि कांग्रेस 25 लाख तक का इलाज देने वाली चिरंजीवी योजना लायी है जिसमें किसी बीमा कंपनी का कोई रोल नहीं है। सारा खर्च राज्य को ही वहज करना है। वैसे ही के.जी से लेकर पी.जी तक मुफ्त शिक्षा की गारंटी शिक्षा को पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले करने की राह में बड़ा रोड़ा बनेगी। राहुल गाँधी जिस सामाजिक न्याय, या जितनी आबादी उतना हक़ की बात कर रहे हैं, उसके लिए एक नये आर्थिक वातावरण की भी ज़रूरत होगी जो इन गारंटी योजनाओं से बन सकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य और न्यूनतम आय की गारंटी होने पर नागरिकों का देशनिर्माण में बेहतर योगदान देना संभव होगा। किसी भी अर्थव्यवस्था का महत्व उसके आकार में नहीं, जनता की इस आकांक्षा को पूरा करने की क्षमता में निहित है। गारंटी योजनाएँ इसी की गारंटी हैं।

(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं) 

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पंकज श्रीवास्तव
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