आज की राजनीति में प्रतीक गढ़ने का अपना एक मज़ा है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी यह मज़ा स्वयं भी लेते हैं और जनता को भी भरपूर लुटाते हैं। 2014 में मोदी जी ने ‘अच्छे दिन’ लाने का वादा किया था। चुनावी सभाओं में मोदी बोलते थे, ‘अच्छे दिन’ और जनता पीछे से बोलती थी ‘आयेंगे’। अब मोदीजी का ‘अच्छे दिन’ से क्या अभिप्राय था, उन्होंने कभी पूरी तरह से इसे समझाया नहीं। हाँ, जब हज़ारों लोग हाथ उठा के ‘आयेंगे’ बोलते थे तो उनके चेहरे पर चमक साफ़ दिखाई देती थी।
जिन्होंने पीछे-पीछे नारे लगाए या उम्मीद लगाई कि ‘अच्छे दिन’ आयेंगे, वे क्या समझे थे, कौन जाने। पर सभी लोग पांच साल तक उम्मीद लगाए बैठ गए। अंदाज लगा सकते हैं छोटे-छोटे लोगों की छोटी-छोटी उम्मीदें रही होंगी। शान्ति से दाल-भात, छोटा काम या छोटी सी नौकरी मिल जाए, फ़सल का बस ठीक दाम कि तू भी भूखा न रहे, मैं भी न भूखा जाऊँ। थोड़ी सी कम चिंताएँ। बस और क्या। न जान किसी की लेनी न अपनी देनी।
उम्मीदें तो छोटी-छोटी पर सपने बड़े-बड़े - विकास के, बुलेट ट्रेनों के, लहलहाती फ़सलों के, फ़ैक्ट्रियों में काम कर घर पहुँच हँसते-खिलखिलाते बच्चों को देखने के, अपने घर में नन्ही-नन्ही खुशियाँ देखने के। इन सपनों के बरक्स, जिनके पास पैसा था उनके लिए ‘अच्छे दिनों’ में पैसे की बरसात का स्वप्न रहा होगा। उनका सपना था, इनका स्वप्न था, और क्या मोदीजी का कुछ यथार्थ था, क्या कहें।
सब प्रकार के लोगों के स्वप्न और चिंताएँ मिल के प्रतीक बनाते हैं तो ‘अच्छे दिन’ का प्रतीक गढ़ा गया। इसने सब को आनंद से सरोबार किया। इसने मोदी जी को चुनाव भी जिताया।
यह एक ऐसा प्रतीक था, जिसका कोई निश्चित अर्थ नहीं था। जैसे लाल रंग का रुक, हरे का चल होता है। समझने की बात यह है कि उड़ती तितलियों के अनेक रंगों की तरह ऐसे प्रतीक क्षणिक औरअनेकार्थी होते हैं, हो सकते हैं। इतना रंगीन संसार अति यथार्थ का ही होता है। अति यथार्थ, जो दैनिकजीवन के यथार्थ, छोटे लोगों की छोटी उम्मीदों के बरक्स, उनके असंभव सपनों को दर्शाता है।इसलिए ‘अच्छे दिन’ जैसे प्रतीक के अनेक अर्थ शायद लेखक को, कुछ सुधी पाठकों को निरर्थकता का बोध कराते हैं।
‘अच्छे दिन’ से मोदी जी का अर्थ है इतने करोड़ मकान, उतने करोड़ गैस कनेक्शन, सब गाँवों में बिजली, सड़क चकाचक। ऐसी बातें लोगों को चमत्कृत करने के लिए कही जाती हैं। लोगों को लगता है कि मोदी का कहा सब सच है। ‘सबका साथ, सबका विकास’ सारे सपनों को साथ ला रहा है।
‘अच्छे दिन’ के नारे से एक वक़्त आकाश गूँज उठता था। पर अब ऐसा नहीं है। मोदी जी नारा क्योंनहीं लगवाते, ‘अच्छे दिन, आ गए’, कि ‘और ‘अच्छे दिन’ आयेंगे’? वे ‘अच्छे दिन’ का नाम ही नहींलेते। आश्चर्य है कि विपक्ष के बड़े नेता भी चुनावी सभाओं में ‘अच्छे दिन’ की चर्चा नहीं करते, करते भी हैं तो दबी आवाज़ में, लोग भी नहीं करते। बड़े विमर्श का हिस्सा भी यह नहीं है। ‘अच्छे दिन’ ना हुए छूत की बीमारी हो गए।
ऐसे प्रतीकों का ज़मींदोज़ होना ही इनकी नियति है, जिनका अर्थ निकालना कठिन है। पक्ष सोचता है, कौन जाने सवाल उठने लगें? विपक्ष सोचता है, कौन जाने लोगों को लगे कि कुछ अच्छा हुआ है और आने वाले समय में हो जाएगा। तो इस प्रतीक को दोनों ही छेड़ने की हिम्मत नहीं जुटा रहे हैं। ‘अच्छे दिन’, दफन हुए। एक अनिश्चित अर्थ वाले प्रतीक का यही होना था।
इसके नज़दीकी अर्थ वाला प्रतीक बड़ी तैयारी से पहले गढ़ा गया और बाज़ार में छोड़ा भी गया। करोड़ों रुपये ख़र्च करके देश भर में पोस्टर लगाए गए। यह पोस्टर थे, ‘मोदी है तो मुमकिन है’ लिखे हुए। यह प्रतीक भविष्य से जुड़ने का है। पर मुमकिन क्या है यह लोगों की कल्पना पर छोड़ दिया जाता है। लोगों की कल्पना को पंख दिए जाते हैं। खेतों में काम करने वाला और उड़न खटोले में उड़ने वाला सोचता है कि और क्या-क्या नया हो सकता है; मोदी उन्हें कैसे आगे ले जा सकते हैं, कैसे उन्हें कुछ सहूलियतें मिल सकती हैं। वह कितना हमारे लिए सोचते हैं। करोड़ों लोगों की कल्पना ही उसे अति यथार्थ बना देती है।
इस बीच बेरोज़गारी के आँकड़े आ गए, किसानों की आवाज़ थोड़ी ज़्यादा सुनाई देने लगी। भलाई इसी में समझी गई कि इस नारे को नीचे से सरका दिया जाए।
अब एक ऐसे प्रतीक की ज़रूरत थी जो ‘अच्छे दिन’ से अधिक ठोस हो, लुभावना हो, लोगों को पतली गली से निकलने का रास्ता न दे। मिला और बहुत जोशो-ख़रोश से मिला। वायु सेना की बालाकोट में एयर स्ट्राइक के बाद मीडिया व सोशल मीडिया में राष्ट्रवाद का उन्माद छा गया। पाकिस्तान को सबक सिखा सकने का जोश भारत के कई कोनों में व्याप्त हुआ। इस मानसिकता ने राष्ट्रवाद के अति यथार्थ को परवान चढ़ा दिया कि राष्ट्रवाद पहले, भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी बाद में। हर ‘राष्ट्रवादी’ भारतीय चौकीदार हो गया। राष्ट्रवाद का विरोध, अब चौकीदार मोदी का विरोध और राष्ट्रद्रोह हो गया।
अचानक राष्ट्रवादी विचारधारा को पंख मिल गए। प्रतीक को नए वस्त्र मिल गए। ‘राष्ट्रवाद’ 2019 केचुनाव का एक मात्र प्रतीक है, जिसको आज खंड-खंड नहीं किया जा सकता, चुनाव के दौरान बिलकुल ही नहीं। जैसे, यह कहना कि देश के अंदर आकर 44 सैनिकों की दिनदहाड़े हत्या जिस देश में संभव हो, वहाँ का नायक कितना कमज़ोर होगा, किसी भी विपक्ष के नेता के बूते में नहीं। आज से पांच साल बाद पूछते रहिये।
यह कहा जाता है कि कश्मीरियों के साथ सरकारी व्यवहार और नीतियों के कारण यह घटना हुई, इसे कोई जोर-शोर से नहीं उठाता। ऐसी ही नीति के मूल सिद्धांत माओवादियों, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों के प्रति नीतियों में मिल जायेंगे। इनमें मूल तत्व हैं, नफरत, एक की ही सोच, एक का ही इरादा, एक का ही फैसला, पूँजी के हित में फ़ैसला।
हिन्दुस्तान के बंदी मसूद अज़हर जिसे मोदी जी की पार्टी के रक्षा मंत्री स्वयं अफ़गानिस्तान छोड़ आये थे, अब अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित हुआ है, इसमें कौन सी पीठ थपथपाने की बात है? विपक्ष यह हिम्मत नहीं जुटा पाता कि सत्य कहे। अति यथार्थ को दमदार चुनौती नहीं मिल रही। यह चुनाव ठोस धरातल पर नहीं हो रहा है। यह छाया युद्ध है। यहाँ प्रतीकों से युद्ध होना है। प्रतीक ही बनने हैं, और चुनाव होते-होते लय हो जाने हैं। आप छाया से लड़ेंगे, लोग आपको पागल कहेंगे।
पांच साल पहले लोगों को ‘अच्छे दिन’ जैसे प्रतीकों के अति यथार्थ में बहना था, अब ‘राष्ट्रवाद’ के प्रतीक में बह जाने का समय है। बिना सवाल उठाये, इस अतिरेक में, देश का खून गरम है, इस में उबाल लाना है लेकिन सिर्फ़ चुनाव तक। पांच साल बाद विचार किया जाएगा। कुछ नए प्रतीकों के साथ।
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